।। प्रो हरि शंकर प्रसाद ।।
वरिष्ठ प्राध्यापक, दर्शनशास्त्र विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
नैतिक और आध्यात्मिक जीवन का निरंतर प्रयास आवश्यक
हमारे समय में बुद्ध के दर्शन और संदेश के महत्व पर विचार करने से पहले उनके विचारों पर एक नजर डालना अपेक्षित है. बुद्ध स्वयं को इसी संसार के व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिसने अपनी अंतर्दृष्टि से बुद्धत्व की प्राप्ति की है. किसी प्रकार के दैवत्व या उनके व्यक्तित्व और व्यवहार में कोई दैवीय तत्व के होने का उनका कोई दावा नहीं है. वे अपने अनुयायियों से भी जीवन के सत्य की अनुभूति करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. बुद्ध मनुष्य को सामाजिक प्राणी के रूप में देखते हैं, जिसके दुखों का निवारण संभव है.
बौद्ध धर्म के अनुसार, मनुष्य मस्तिष्क, शरीर, इच्छा, चाहत, उद्देश्य, आशय, रुचि, भाव व तर्क का समुच्चय है. बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के उसे अपने नैतिक और आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए प्रयास करना है.
बुद्ध अपने धम्म के सिद्धांतों के तार्किक परीक्षण के आग्रही हैं और वे अपने शिष्यों से बिना किसी विशेष आदर या अनुराग के उनके अपने विचारों को भी तर्क की कसौटी पर परखने के लिए कहते हैं. बुद्ध के लिए जीवन की तात्कालिक चिंताएं महत्वपूर्ण हैं. इस बात को उनके तीर वाले उद्धरण से समझा जा सकता है.
अगर तीर से घायल किसी व्यक्ति के लिए प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि यह तीर उसके शरीर से बाहर निकले और उससे हुए घाव की तुरंत चिकित्सा हो. यदि वह व्यक्ति तीर के आकार-प्रकार, किसने तीर चलाया, उसकी जाति क्या थी, कहां से आया आदि जैसे व्यर्थ के प्रश्नों में उलझ जायेगा तो यह उसके लिए नि:संदेह घातक होगा. बुद्ध के लिए धार्मिक-दार्शनिक पहचान महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक जीवन का निरंतर प्रयास आवश्यक है.
इस प्रयास में मार्गदर्शन के लिए सूत्र बुद्ध ने दिये जो विवरण और विश्लेषण के साथ बौद्ध धर्म के शास्त्रों में संग्रहित हैं. बुद्ध के संदेशों और संकेतों में कई ऐसे सूत्र हैं, जिनसे हमें सीख लेने की जरूरत है. विश्व और पूरी मनुष्यता के सामने उपस्थित संकटों को तीर के उद्धरण वाले प्रसंग के परिप्रेक्ष्य में रखते हुए उन्हें श्रेणीबद्ध कर प्राथमिकताएं तय की जानी चाहिए. उदाहरण के लिए युद्ध की समस्या और उससे जनित विभीषिका को लें. युद्ध, हिंसक संघर्ष, परस्पर अविश्वास आदि समस्याएं मानवता की चिर समस्याएं हैं और इनसे ही बहुत सारी अन्य परेशानियां जन्म लेती हैं. बुद्ध के लिए हिंसा अस्वीकार्य है.
वे युद्ध और शांति का उद्गम केंद्र मनुष्य के मस्तिष्क को मानते हैं. इसीलिए वे चित्त की शांति और हृदय में करुणा की बात करते हैं. समानता, न्याय, स्वतंत्रता और मानवाधिकार आज के लोकतांत्रिक विश्व के प्रमुख मूल्य हैं. वैसे तो ये तत्व सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत आते हैं, लेकिन इनपर धार्मिक विचार भी बहुत पहले से व्यक्त किये जाते रहे हैं. प्राचीन भारत में ये अलग से विचारणीय विषय न होकर, एक समग्र विश्वदृष्टि के ही अंग थे.
बुद्ध के दर्शन में समानता का अर्थ इस तथ्य को रेखांकित करना है कि हर व्यक्ति एक गरिमापूर्ण उपस्थिति है और हर एक व्यक्ति को अवसर, संसाधनों, अधिकारों आदि की उपलब्धता बिना किसी भेदभाव के सुनिश्चित की जानी चाहिए. हम सभी यह जानते हैं कि दुनिया में मौजूद अधिकांश विषमताएं मनुष्यजनित हैं. उदाहरण के लिए, हम जाति-व्यवस्था को ले सकते हैं.
न्याय, स्वतंत्रता और मानवाधिकार के सिद्धांत समानता के सिद्धांत के ही विस्तार हैं. इसका अर्थ यह है कि समानता इन सिद्धांतों का आधार-तत्व है. यदि हमारे समाजों में समानता की भावना सुदृढ़ होगी तो न्याय, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, सामाजिक परिवर्तन, व्यक्तिगत विकास, शांति, सौहार्द और समृद्धि की ओर हम तेजी से बढ़ सकेंगे. मानव-निर्मित विषमता ही अन्याय, शोषण, अत्याचार, हिंसा, सामाजिक तनाव और सौहार्दहीनता का मूल स्नेत है.
इस स्थिति में बुद्ध का धम्म विभिन्न धर्मो और पंथों के बीच वैचारिक संवाद का सैद्धांतिक आधार बन सकता है क्योंकि यह एक शाश्वत, स्वाभाविक और नैतिक सिद्धांत है जो देश और काल की सीमाओं से आबद्ध नहीं है. खोखले सांप्रदायिक पराभौतिक सत्य के समक्ष यह एक नैतिक सत्य है. यदि सार्वभौमिक मानवीय लक्ष्य आज के विश्व की आवश्यकता है, तो इसका समाधान धम्म ही है क्योंकि यह मान्यता और व्यवहार तथा आदर्श और वास्तविक के बीच की दूरी को पाट देता है. इसके अतिरिक्त, बुद्ध के सिद्धांत स्वयं और अन्य की पारस्परिक आवश्यकता को रेखांकित करता है.
अपने को बदलने की प्रक्रिया का अर्थ केवल स्वयं का विकास नहीं है, बल्कि आत्मसंतोष भी है, जिसे पाने के लिए अन्य की उपस्थिति एक अनिवार्य शर्त है. बुद्ध के लिए दुख एक सार्वभौम समस्या है, अत: इसका समाधान भी सार्वभौम होना चाहिए. बौद्ध सिद्धांत मनुष्यता को एक दुखी समुदाय के रूप में चिन्हित करता है. इसके विपरीत वैदिक मान्यता है कि मनुष्य एक श्रेणीबद्ध समुदाय है और यह एक दैवीय व्यवस्था है. यह विभाजन विषमता और अन्याय का मूलभूत आधार है. इस स्थिति का सार्वभौम समाधान नैतिक व्यवहार है.
बुद्ध ने आर्थिक असमानता की समाप्ति के लिए सामाजिक सहयोग और राज्य के ठोस प्रयासों की आवश्यकता पर बल दिया है. उन्होंने अनुचित तरीके और लालच से धन-संग्रहण को वजिर्त किया है. उनके अनुसार, दान नैतिक व्यवहार का अहम अंग है. अशिक्षा से उबरने के लिए बुद्ध ने हर व्य्क्ति के लिए समुचित ज्ञान, तर्क क्षमता, चैतन्य, नैतिकता, मूल्यधर्मिता आदि की आवश्यकता बतायी ताकि व्यक्ति एक संतुलित व स्वायत्त नैतिक इकाई बन सके.
बुद्ध के संदेशों को ठोस दार्शनिक स्वरूप देनेवाले महान बौद्ध चिंतक नागाजरुन ने द्वितीय शताब्दी में सम्राट उदय को जो सलाह दी थी, वह हमारे और हमारे शासकों को लिए आज भी प्रासंगिक है-नेत्रहीनों, बीमारों, वंचितों, असहायों, दरिद्रों व विकलांगों को बिना किसी अवरोध के भोजन और पानी मिलने की व्यवस्था और उनके प्रति करुणा का भाव; पीड़ितों, बीमारों और विजित लोगों की समुचित देखभाल; परेशान किसानों को बीज और अन्य जरूरी सहयोग; करों का बोझ कम करना; चोरों-डाकुओं को अपने और दूसरे राज्यों से हटाना; वस्तुओं के मूल्य उचित हों और लाभ को नियंत्रित रखो.