चुनाव का दौर है. किसी भी राजनीतिक पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र में पंचायत सशक्तीकरण का जिक्र नहीं किया है. पंचायत के प्रति ऐसी उदासीनता क्यों?
देश में जबसे लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिनिधि चुनने की प्रकिया शुरू हुई. घोषणा पत्र निकालने भी प्रक्रिया को भी शुरू किया गया. घोषणा पत्र के किसी बिंदु पर काम करने की बात कितनी अमल में आती है? मुद्दों पर काम करने की घोषणा, केवल घोषणा बन कर रह जाती है. पंचायती राज सिस्टम ग्रामीण स्तर तक पहुंचने का जरिया है. घोषणा पत्र में ही इसका केवल जिक्र होता है.
चुनाव अब पार्टी और काम के आधार पर नहीं हो रहा है. व्यक्ति के आधार पर हो रहा है. जब ऐसा माहौल होगा, व्यक्ति विशेष की बात होगी, तो ग्रामीण क्षेत्र, पंचायत सब गौण हो जाते हैं. इन्हें फिर कौन पूछेगा? घोषणा पत्र काम करने का नहीं, प्रचार का साधन बन गया है. सशक्तीकरण का जिक्र नहीं होने का यह एक पहलू है. देश के 15-16 राज्य नक्सल प्रभावित हैं. नक्सलवाद के जड़ में भी यही देखने को मिलेगा. यह भी सांस्कृतिक और आर्थिक मामला है. हमने उन लोगों को कभी अपना अंग नहीं समझा. लोकतांत्रिक प्रक्रिया उनकी समस्या को खत्म नहीं कर पायी. पंचायत का सशक्तीकरण इनसे सीधे जुड़ा हुआ है. अगर इस मामले पर असफलता मिलती है तो इसके लिए कार्यपालिका भी दोषी है. पंचायती राज का मतलब ही है, ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाभ. हर आदमी यह समङो कि इस व्यवस्था में मेरा भी स्थान है. सन् 1992-93 में पंचायती राज कार्यान्वयन का मामला उठा था कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को मुख्य धारा से जोड़ने की जरूरत है. आज यह असफल है. इन सबके पीछे बहुत कारण हैं. कोई भी सरकार यह नहीं चाहती कि पंचायत सशक्त हो.
पंचायत सशक्त हो, आखिर कोई भी सरकार क्यों नहीं चाहती है? इसमें क्या परेशानी है?
इसके लिए पूरी राजनीतिक व्यवस्था को जिम्मेवार मानना होगा. त्रि-स्तरीय पंचायती व्यवस्था को पूरा अधिकार मिले. इसके लिए कोई पहल नहीं करना चाहता. इसका फंड बहुत सीमित है. जिला परिषद को कुछ परिस्थिति में ज्यादा अधिकार है. वह एक सीमा तक कर वसूल सकती है. पंचायती राज के लिए संविधान में लिखित रूप से बहुत शक्ति दी गयी है. लेकिन वास्तविकता अलग है. सीधे शब्दों में कहे तो आज कोई भी राजनीतिक दल या सरकार की कोशिश इस बात के लिए नहीं होती कि पंचायती राज व्यवस्था दुरुस्त हो. पंचायती राज मजबूत होगा, ग्रामीण इलाके के लोग सक्षम होंगे तो राजनेताओं का वजूद खत्म होने लगेगा. साल 2006-11 के बाद लगभग 25 प्रतिशत लोग विधानसभा या विधान परिषद में वैसे सदस्य बने जो कभी जिला परिषद में अपनी पहचान बना चुके थे. सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को यह पसंद नहीं आया. उन्हें लगा कि अगर ऐसा होगा तो सरकार पर उनकी पकड़ खत्म हो जायेगी. देश के कई ऐसे राज्य हैं जहां राजनीति में परिवारवाद हावी है. ऐसे नेता ताकतवर हैं. वह नहीं चाहते कि कोई ग्राम-पंचायत का आदमी राजनीति में प्रवेश करे. विरासत की राजनीति करने वाले ही नहीं चाहते कि पंचायत सशक्त हो. यह भी एक पहलू है.
देश की बड़ी आबादी गांव में रहती है. केंद्र, राज्य सरकार द्वारा पंचायत सशक्तीकरण के लिए कई तरह की योजनाएं, सुविधाएं देने की बात कही जाती है. ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की पहली रूपरेखा पंचायत तय करती है. अगर इस स्तर पर ही मजबूती नहीं होगी तो विकास कैसे होगा?
गांव-पंचायत मजबूत हो. इसके लिए कोई बात ही नहीं करता. मैं जब जेएनयू में था तब वहां इन मामलों से जुड़े कई सेमिनार होते थे. हम स्थिति जानने की कोशिश करते थे. अब एनजीओ, सरकार इस तरह का आयोजन कराते हैं. बड़ी-बड़ी बातें होती हैं. लेकिन नतीजा? प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से ही गरीबी हटाओ का नारा दिया गया. बातें बहुत होगी. धरातल पर उसका खास असर नहीं है. थोड़ा-बहुत है. जिस स्तर पर होना चाहिए, उस स्तर पर नहीं है. विकास में सबसे बड़ी बाधा अफसरशाही है. यह मेरा अनुभव है. ऊंचे पदों पर बैठे अफसरों की सोच है कि मैं पहले हूं. उनका मानना है कि जनता ने जिसे चुना है, उनके पास जानकारी का अभाव है. सांसद, एमएलए, एमएलसी को वह कुछ कह नहीं सकते. बाकी लोगों को भुगतना पड़ता है. पंचायत समिति में प्रमुख का पद संवैधानिक होता है. बीडीओ सीइओ की भूमिका निभाता है. प्रमुख बैठक में जो योजना विकास के लिए तय करता है. उस पर काम करना बीडीओ की जिम्मेदारी होती है, लेकिन हकीकत बिल्कुल उलट होती है. वह प्रमुख के द्वारा चुनी गयी योजनाओं पर अमल न कर के उन योजनाओं पर काम करता है, जिसमें उसका स्वार्थ निहित रहता है. बाधा तो इस स्तर पर ही दिखने लगता है. जबकि कार्यपालिका और विधायिका दोनों को साथ मिल कर काम करना चाहिए. और भी कई कारण हैं. पंचायत प्रतिनिधि के पास फंड की कमी होती है. साल 2012-14 वित्तीय वर्ष में मुङो 10 लाख रुपये मिले. इसमें कितना काम होगा? साधारण 100 फीट लंबाई वाली पीसीसी सड़क की लागत पांच लाख रुपये की होती है. इतनी अल्प राशि में कितना विकास का कार्य होगा?
कोई भी सरकार ग्राम-पंचायत के जरिये सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं करना चाहती है. इसका तो यही मतलब निकलता है?
इसमें कई तरह की बातें हैं. सरकार चाहती है कि विकेंद्रीकरण हो, लेकिन पावर का नहीं. संवैधानिक सत्ता का विकेंद्रीकरण न होने से सबको हानि है. अगर यही काम हो गया रहता तो आज नक्सलवाद इतना व्यापक नहीं होता. कुछ नेता नहीं चाहते की इस तरह की पहल हो. नतीजा ग्रामीण क्षेत्रों को भुगतना पड़ता है. सही मायने में सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए.
राजीव गांधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान का मुख्य उद्देश्य पंचायत में लोकतांत्रिक तरीके से निर्णय लेने और ग्रामीण जनता को जवाबदेह बनाना है. इसका फायदा मिला?
इसका लाभ एक निश्चित सीमा तक है. यह ब्यूरोक्रेसी के ऊपर निर्भर है. त्रि-स्तरीय पंचायत व्यवस्था में हम लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. जबकि यह हमारे लिए ही है. सन 1977 में जनता पार्टी सरकार ने यह महसूस किया कि सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए. अशोक मेहता के नेतृत्व में इस विषय पर कमेटी बनी. इसके अलावा वीकेवी राव समिति, एलएम सिंघानिया समिति भी बनी. सारी समितियों ने अलग-अलग रिपोर्ट प्रस्तुत किया. किसी में द्वि-स्तरीय, किसी में त्रि-स्तरीय पंचायत व्यवस्था की बात कही गयी. सभी रिपोर्ट देखने के बाद यह आम राय बनी कि त्रि-स्तरीय व्यवस्था बेहतर है. इसका मूल यही था कि कोई भी हिस्सा अछूता ना रहे. इसमें सबकी सहभागिता हो. जहां तक राजीव गांधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान की बात है. इसके बारे में हम लोगों को भी पूरी जानकारी नहीं दी गयी है. हमारा क्या रोल है? विकास में क्या सहभागिता है? कुछ नहीं बताया गया. अंधेरे में रखा जात है. केंद्र, राज्य सरकार से जो पैसा आता है. उसे बांट लिया जाता है. सरकारी अधिकारियों का असहयोग आम बात है. जानबूझ कर पंगु बना के रखा जाता है.
त्रि-स्तरीय पंचायत की परिकल्पना है : सशक्त, समावेशी, उत्तरदायी और पारदर्शी पंचायती राज संस्था. यह अबतक किस हद तक सच हो पाया है?
विकास की प्रक्रिया बहुत धीमी है. सिस्टम को दुरुस्त करना होगा. अफसरशाही पर लगाम लगानी होगी. हर विभाग में पैसा आता है, लेकिन वित्त वर्ष खत्म होने के बाद लौट जाता है. विकास का काम पूरा नहीं होता. संबंधित विभाग की जिम्मेदारी को निश्चित करने की जरूरत है. काम पूरा न होन पर दंड देने का प्रावधान हो. काम कितना हुआ, ससमय इसकी जांच करनी होगी. फर्क दिखने लगेगा. पंचायती राज सिस्टम के कार्यो में इन चारों शब्दों का अंश है. हम अभी आरंभिक दौर में हैं. इन परिकल्पनाओं को पूरा करने के लिए आम नागरिक से लेकर, हर विभाग, अफसर, मंत्री सबको साथ मिल कर काम करना होगा. किसी एक के ऊपर जिम्मेदारी नहीं छोड़ी जा सकती है. ईमानदारी से सब काम करें. सब साथ चलें तो बात बनने लगेगी.
राजीव कुमार
रिसर्च स्कॉलर, सेंटर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज, स्कूल ऑफ इंटरनेशलन स्टडीज, जेएनयू