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कलेक्टर राज में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया संभव नहीं

पंचायती राज लोकतंत्र की बुनियादी इकाई है. सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत करने के लिए गांवों में कई योजनाओं को शुरू किया है. बावजूद इसके पंचायती राज व्यवस्था और केंद्र व राज्य की सरकारें पंचायतों में कामकाज और उनके अधिकार को लेकर आमने-सामने खड़ी दिखती हैं. ग्रामीण विकास मंत्रलय में सचिव जैसे महत्वपूर्ण […]

पंचायती राज लोकतंत्र की बुनियादी इकाई है. सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत करने के लिए गांवों में कई योजनाओं को शुरू किया है. बावजूद इसके पंचायती राज व्यवस्था और केंद्र व राज्य की सरकारें पंचायतों में कामकाज और उनके अधिकार को लेकर आमने-सामने खड़ी दिखती हैं. ग्रामीण विकास मंत्रलय में सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे पंचायती राज विशेषज्ञ टीआर रघुनंदन पंचायतों को अधिकार दिये जाने के सवाल पर न सिर्फ राजनेताओं की मंशा को संदेह के दायरे में खड़ा करते हैं, बल्कि अधिकारियों की मंशा पर भी सवाल खड़ा करत हैं. प्रस्तुत है विभिन्न पंचायती राज से जुड़ी योजनाओं और इनके कामकाज में आ रही बुनियादी परेशानियों पर टीआर रघुनंदन से पंचायतनामा के लिए संतोष कुमार सिंह की विशेष बातचीत :

गांव की खुशहाली पर देश की खुशहाली निर्भर है? सरकार ने सामाजिक क्षेत्र के विकास के लिए कई योजनाएं बनायी हैं? गांवों की खुशहाली को ध्यान में रखकर बनायी गयी इन योजनाओं का कितना लाभ गांवों को हुआ है?

यह बात बिल्कुल सही है कि गांवों में काफी पैसे पहुंच रहे हैं. सामाजिक क्षेत्र की कई योजनाए हैं, जिनके दायरे को गांव तक ले जाया गया है. नरेगा, आइसीडीएस, सर्वशिक्षा अभियान, मिड डे मिल आदि कई ऐसी योजनाएं है, जिनका लाभ गांवों तक पहुंचना है. सैद्धांतिक रूप से देखें तो ऐसी योजनाओं को लेकर कोई विवाद नहीं है. लेकिन मुख्य सवाल है कि क्या ये योजनाएं या योजना मद में आवंटित किया गया धन गावों में पहुंच रहा है. और अगर पहुंचा भी है तो क्या गांव या ग्राम सभा या पंचायत इस धन को अपनी मर्जी से खर्च करती है. ऐसा नहीं है. न तो यह पैसा डायरेक्टली गांव तक पहुंचता है और न ही इसको पहुंचाने की मंशा सरकार की दिखती है. अधिकारों के विभाजन के सवाल पर राजनीतिक दल भी चुप्पी साधे हुए हैं और अधिकारी भी. इतना जरूर होता है कि यदि मुख्यमंत्री अच्छा रहा तो पंचायतों में कामकाज ठीक चलता है, यदि मुख्यमंत्री ने अधिकार न सौंपने की मंशा बनायी तो पंचायत ठप. यदि बिहार का ही उदाहरण लें तो नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल में इस दिशा में काम किया, लेकिन आगे चल कर ठप पड़ा दिखता है. इसी तरह झारखंड में पंचायतें अपने अधिकार के लिए संघर्ष रत हैं.

लेकिन पंचायती राज संगठन को मजबूत करने और अधिकार दिये जाने की बात ही इस संकल्पना के साथ की गयी थी कि इनकी मजबूती से ही विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को बल मिलेगा?

किसी चीज के लिए लक्ष्य निर्धारित करना और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सही तरीके से काम करना दोनों दो चीजे हैं. हमारा लक्ष्य था कि हम गांव को मजबूत करेंगे, लेकिन मजबूती तो तभी मिलती है जब विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को अमल में लाया जाये. विकेंद्रीकरण कहां हो पाया है. कम से कम 30 से 40 फीसदी फंड को अनटायड फंड के तहत गावों को देंगे तभी विकेंद्रीकरण होगा. इस पैसे को गांव, ग्राम सभा और ग्राम पंचायत जैसे चाहे इस्तेमाल करे. सर्वशिक्षा अभियान का पैसा ब्लॉक में जाता है, और ब्लॉक इसे पंचायतों को न देकर स्कूल मैनेजमेंट क मेटी को सौंपती है. इसी तरह अगर नलकूप का पैसा हो, स्वच्छता का पैसा हो, या अन्य फंड से आया पैसा हो, डायरेक्टली पंचायतों को न पहुंच कर प्रत्येक डिपार्टमेंट के अंदर बनायी गयी समितियों के पास पहुंचता है. अर्थात हमने सरकार-विभाग और उसकी समिति के अंदर पूरी विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को उलझा दिया है. अगर गौर करें तो पता चलता है कि कलक्टर ने बीडीओ को और बीडीओ ने विभिन्न समितियों के हाथों में अधिकार देकर विकेंद्रीकरण की पूरी प्रक्रिया को अपने तरह से अधिकारी तंत्र के चंगुल में दिया है. जबकि केंद्र सरकार ने ऐसे कामों को जिला ग्रामीण विकास समिति को सौंपने का प्रावधान किया है. लेकिन इस दिशा में किसी का ध्यान नहीं है, और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की पूरी प्रक्रिया तितर-बितर होती जा रही है. केंद्र सरकार ने एक कमेटी गठित की और उस कमेटी ने यह सिफारिश की कि डीआरडीए को जिला परिषद में मर्ज किया जाये. लेकिन सरकार के सिफारिश के प्रति किसी भी मंत्री ने दिलचस्पी नहीं ली. इन सब बातों के चलते पंचायत सरकार की अवधारणा को जमीनी हकीकत में नहीं बदलने दिया गया है.

ऐसे में सवाल उठता है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?

देखिए इसमें दो बाते हैं. पहला यह है कि 5-6 हाई पावर्ड कमेटी ने यह सिफारिश की कि विकेंरदीकरण की प्रक्रिया को बढावा दिया जाए.

टीआर रघुनंदन

पंचायती राज विशेषज्ञ

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