-कन्हैया झा-
दुनियाभर में प्रति वर्ष 24 मार्च को ‘विश्व टीबी दिवस’ का आयोजन किया जाता है. यह मौका एक बार फिर दुनिया का ध्यान एक ऐसी बीमारी की ओर ले जाने का है, जिससे मरनेवाले 95 फीसदी लोग विकासशील देशों से हैं. इस बीमारी से ग्रसित लोगों तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच नहीं होने के चलते अभी भी सालाना तीस लाख से ज्यादा लोगों को बचा पाना एक चुनौती बनी हुई है. क्या है इस बीमारी की चुनौतियां, तथ्य और इससे निबटने की वैश्विक तैयारियां, इसे बता रहा है आज का नॉलेज..
नयी दिल्लीः आ ज भले ही टीबी यानी तपेदिक का इलाज मुमकिन हो, लेकिन दुनियाभर में इलाज के तमाम साधनों और जागरुकता के बावजूद 90 लाख लोग प्रत्येक वर्ष इसकी चपेट में आने से बच नहीं पाते. इनमें से तकरीबन एक-तिहाई (30 लाख) लोग तो दुनियाभर में स्वास्थ्य सुविधाओं से ही ‘महरूम’ हैं. प्रवासी मजदूर, शरणार्थी, आतंरिक रूप से विस्थापित व्यक्ति, कैदी, देशी मूल के निवासी समेत जातीय अल्पसंख्यक और ड्रग्स का इस्तेमाल करनेवाले लोग इसकी चपेट में सबसे ज्यादा आते हैं. खासकर दुनिया के गरीब देशों और हाशिये पर जीवन-यापन करनेवाले समुदायों में यह बीमारी भयानक स्तर पर देखी गयी है.
रीच द 3 मिलियन
पूरी दुनिया में इस बीमारी के प्रति जागरुकता फैलाने के मकसद से वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) ने ‘वर्ल्ड टीबी डे’ के आयोजन को प्रोत्साहित किया है. डब्लयूएचओ ने इस वर्ष इसका स्लोगन दिया गया है- ‘रीच द थ्री मिलियन’ यानी दुनियाभर में जो 30 लाख लोग प्रत्येक वर्ष इस बीमारी से बच नहीं पाते, उन तक पहुंचना और उन लोगों को बचाना. इसके साथ ही, ‘मिस्ड द थ्री मिलियन’ का भी जिक्र किया गया है. इसमें ‘मिस्ड’ का मतलब एक वर्ष में टीबी से बीमार होनेवाले लोगों की अनुमानित संख्या और नेशनल टीबी प्रोग्राम्स के तहत सामने आयी इस बीमारी के पीड़ितों की संख्या में ‘फर्क’ से है.
दिवस आयोजन का मकसद
‘वर्ल्ड टीबी डे’ का आयोजन दुनियाभर में इस बीमारी से प्रभावित लोगों और समुदायों को सरकारी सिविल सोसाइटी संगठनों, स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करानेवालों और अंतरराष्ट्रीय साङोदारों से मदद मुहैया कराने के मकसद से किया जाता है. ये सभी साङोदार नवोन्मेषी नजरिया अपनाते हुए टीबी से प्रभावित लोगों की मदद कर सकते हैं, जिससे इन लोगों तक पहुंच आसान हो सकती है. साथ ही, इस बीमारी के निदान और रोकथाम में मदद मिल सकती है. डब्ल्यूएचओ, द स्टॉप टीबी पार्टनरशिप और ग्लोबल फंड टू फाइट एड्स, टीबी एंड मलेरिया ने मिलकर इस बीमारी से जुड़ी समस्याओं को फोकस किया है.
बीमारी का बोझ
दुनियाभर में ‘टीबी’ की भयावहता और इसकी रोकथाम और नियंत्रण के लिए किये जा रहे उपायों के बारे में जागरुकता फैलाने के एक अवसर के तौर पर ‘वर्ल्ड टीबी डे’ को समझा जाता है. साथ ही, यह दिवस इस बीमारी के उन्मूलन के बारे में राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबद्धता को व्यक्त करने का भी एक मौका है. पिछले कुछ दशकों के दौरान इस बीमारी को लेकर वैश्विक जागरुकता में बढ़ोतरी हुई है और टीबी की बीमारी के नये मामलों में कमी आयी है. 1990 से दुनियाभर में इस बीमारी में 45 फीसदी से ज्यादा कमी आयी है और इसमें लगातार कमी आ रही है. इलाज और रोगनिदान के नये तरीकों के इजाद ने इस बीमारी की भयावहता को कम करने में व्यापक भूमिका निभायी है. लेकिन इस बीमारी का वैश्विक खतरा पूरी तरह से खत्म हो गया है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है.
युवा महिलाओं की मौत का तीसरा बड़ा कारण
वर्ष 2012 में टीबी के तकरीबन 86 लाख नये मामले सामने आये थे और 13 लाख लोग इस बीमारी से मौत की चपेट में आये थे. टीबी से होनेवाली मौतों के मामले में तकरीबन 95 फीसदी से ज्यादा मामले विकासशील देशों में पाये गये. गरीब समुदायों और वंचित तबकों को यह सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, लेकिन हवा के माध्यम से फैलनेवाली इस बीमारी का जोखिम सभी लोगों में हो सकता है. 15 से 44 वर्ष की महिलाओं की मौत के कारणों में टीबी की बीमारी तीसरा सबसे बड़ा कारण है. एक अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2012 में बच्चों में इसके पांच लाख मामले पाये गये, जिनमें 74 हजार की मौत हो गयी.
चुनौतियां
मौजूदा समय में तकरीबन 30 लाख लोग (टीबी से ग्रसित प्रत्येक तीन में से एक व्यक्ति) स्वास्थ्य प्रणाली से ‘महरूम’ हैं. यानी उन तक स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं पहुंच पायी हैं. इस बीमारी से निबटने के लिए मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट टीबी (एमडीआर-टीबी) की प्रोग्रेस कम रही है. टीबी के नये प्रकार और बढ़ते मामलों को लेकर जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, टीबी की घातक किस्म एमडीआर-टीबी के मामलों में भारत दक्षिण-पूर्वी एशिया में पहले स्थान पर पहुंच गया है. एमडीआर-टीबी का एक ऐसा प्रकार है, जिससे प्रभावित होने पर टीबी की ज्यादातर दवाएं मरीज पर बेअसर हो जाती हैं. एमडीआर-टीबी के चार में से तीन मामले अभी भी लाइलाज हैं, जिनका निदान नहीं हो पा रहा है. डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2012 में एमडीआर-टीबी के तकरीबन 12,000 मामले पाये गये थे.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में जहां टीबी के नये मरीजों में एमडीआर-टीबी दो से तीन फीसदी की दर से बढ़ रहा है, वहीं टीबी के मौजूदा मरीजों में यह दर 12 से 17 फीसदी है. ‘ट्यूबरकुलोसिस कंट्रोल इन द साउथ इस्ट एशिया रीजन’ नामक एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2010 में दक्षिण-पूर्वी एशिया में टीबी के लगभग 50 लाख संभावित मामले सामने आये. ‘डॉट्स’ अभियान के चलते टीबी से मरनेवालों की संख्या भले ही कम हुई हो, लेकिन अब भी हर साल इस क्षेत्र में लगभग पांच लाख लोग मौत का शिकार हो रहे हैं.
किसमें ज्यादा जोखिम
ट्यूबरकुलोसिस ज्यादातर युवाओं को अपनी चपेट में लेता है और उनके महत्वपूर्ण उत्पादक वर्षो को यह प्रभावित करता है. हालांकि, सभी उम्र समूहों में इसका जोखिम है. फिर भी इसके ज्यादातर मामले गरीब और पिछड़े देशों में देखे जा रहे हैं. एचआइवी और टीबी से ग्रसित लोगों में टीबी से बीमार होने की आशंका 21 से 34 गुणा ज्यादा तक बढ़ जाती है. वर्ष 2012 के आंकड़ों पर गौर करें, तो 14 वर्ष से कम उम्र के दस लाख बच्चों में टीबी से बीमार होने के मामले पाये गये और 74,000 एचआइवी-निगेटिव बच्चे इस वर्ष काल के गाल में समा गये. तंबाकू का ज्यादा सेवन टीबी की बीमारी और इससे होनेवाली मौत की जोखिम को बढ़ा देता है. दुनियाभर में टीबी से होनेवाली मौत के मामले में 20 फीसदी से ज्यादा की वजह धूम्रपान का सेवन माना जाता है.
टीबी का वैश्विक दुष्प्रभाव
दुनिया के तकरीबन सभी हिस्से में यह बीमारी देखी जा सकती है. वर्ष 2012 में, टीबी के सबसे ज्यादा नये मामले एशिया में पाये गये, जिसे वैश्विक तौर पर 60 फीसदी के करीब आकलन किया गया है.
हालांकि, आबादी के अनुपात के हिसाब से सबसे ज्यादा नये मामले अफ्रीका के सब-सहारा क्षेत्र में पाये गये हैं, जहां वर्ष 2012 में प्रत्येक एक लाख की आबादी में टीबी के 255 से भी ज्यादा मामले पाये गये.
वर्ष 2012 में टीबी के तकरीबन 80 फीसदी मामले 22 देशों में पाये गये. हालांकि, कुछ देशों में इसके मामले जरूर कम हुए हैं, लेकिन इनके कम होने की दर बहुत धीमी है. इन 22 देशों में ब्राजील और चीन का उदाहरण इस मामले में उल्लेखनीय माना जा सकता है, जहां पिछले 20 वर्षो में टीबी के मामले बहुत हद तक कम हुए हैं. साथ ही, कंबोडिया में भी पिछले एक दशक में इस बीमारी में 45 फीसदी कमी आयी है. उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में इसमें और कमी आयेगी.
(स्रोत: वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन)
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उठाये गये कदम
दुनियाभर में टीबी की बीमारी का उन्मूलन करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन निम्नलिखित प्रमुख कार्यक्रमों का संचालन करता है.
1. टीबी से संबंधित गंभीर मसलों पर वैश्विक नेतृत्व प्रदान करना.
2. साक्ष्य-आधारित नीतियों और रणनीतियों को विकसित करना, टीबी की रोकथाम के लिए मानकों को निर्धारित करना. साथ ही, दुनियाभर में इस बीमारी के उन्मूलन की निगरानी करना.
3. इस बीमारी से मुक्ति पाने के लिए सदस्य देशों को तकनीकी सहयोग मुहैया कराना और इस संबंध में सतत क्षमता को बनाना.
4. टीबी के वैश्विक हालात की निगरानी करना और इस बीमारी की रोकथाम की प्रगति को मापने के साथ ही इसे नियंत्रित करना और इसके लिए वित्त मुहैया कराना.
5. टीबी रिसर्च से संबंधित एजेंडा को तय करना और दुनियाभर में इसकी दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करना.
6. टीबी उन्मूलन के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करते हुए उसमें सहभागिता निभाना.
त्वरित नियंत्रण के लिए प्राथमिक कार्रवाई
-दुनियाभर में इस बीमारी के इलाज से वंचितों तक पहुंच कायम करना. टीबी के मामलों को शीघ्रता से पता लगाते हुए उन्हें दूर करने के लिए त्वरित कार्रवाई करते हुए उन्हें समुचित इलाज मुहैया कराना.
-टीबी की चपेट में आये देशों में इसके रोगियों तक प्रभावी इलाज और रोकथाम के उपायों को मुहैया कराना. साथ ही, उच्च एमडीआर-टीबी वाले देशों में इसके निदान के लिए गुणवत्तायुक्त दवाएं मुहैया कराना.
-टीबी की रोकथाम के लिए दायरा बढ़ाते हुए शत-प्रतिशत प्रभावित इलाकों तक पहुंच कायम करना और इसके मामलों में तेजी से कमी लाना.
-संसाधनों की कमी से निबटने के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराना. एक अनुमान के मुताबिक, 2014 और 2015 में निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों में टीबी से निबटने के लिए सात से आठ अरब डॉलर की जरूरत है (टीबी के निदान के लिए नयी दवाओं और वैक्सिन के अनुसंधान व विकास के खर्चो को छोड़कर). वर्ष 2013 में इसके लिए तकरीबन छह अरब डॉलर की मदद मुहैया करायी गयी. शेष दो अरब डॉलर की मदद की जरूरत को पाटने के लिए अपनी ओर से पूरा प्रयास करना.
डब्ल्यूएचओ ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट- 2013
वर्ष 2012 में टीबी के अधिसूचित मरीजों में से 46 फीसदी में एचआइवी की पुष्टि भी की गयी थी. खासकर, अफ्रीकी क्षेत्र में टीबी/ एचआइवी की जोखिम सबसे ज्यादा पायी गयी, जहां प्रत्येक चार में से तीन टीबी के मरीजों में एचआइवी पाया गया.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट 2013 के मुताबिक, दुनियाभर में टीबी के मरीजों में तकरीबन 57 फीसदी एचआइवी के साथ जिंदा हैं, जिनमें एंटीरिट्रोवाइरल थिरेपी यानी एआरटी शुरू की गयी थी.
वर्ष 2011 और 2012 के बीच एमडीआर-टीबी का इससे पिछले वर्ष के मुकाबले दोगुना लोगों का इलाज किया गया. महज एक वर्ष में इससे होनेवाली मौत को अनुमानित 1,70,000 से कम करते हुए वैश्विक तौर पर इसे 94,000 तक लाने में सफलता मिली है.
एमडीआर-टीबी पीड़ित 77,000 लोगों का वर्ष 2012 में सेकेंड-लाइन इलाज शुरू किया गया था, जिसमें तकरीबन 16,000 चिह्न्ति मरीज इलाज के दायरे से छूट गये थे. कुछ देशों में इलाज के दायरे से छूट गये मरीजों की संख्या ज्यादा है. खासकर अफ्रीकी देशों समेत पाकिस्तान में इनकी संख्या ज्यादा बतायी गयी है.
अनुसंधान और विकास
टीबी के निदान के विकास में 50 से ज्यादा कंपनियां शामिल हैं. क्लीनिकल डेवलपमेंट के आखिरी चरण में तकरीबन दस नयी एंटी-टीबी औषधियों को विकसित किया गया है. वर्ष 2012 में ‘बीडाक्विलीन’ पहली ऐसी पुख्ता औषधि बनी, जिसे 40 वर्षो के बाद मंजूरी दी गयी.
जून, 2013 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एमडीआर-टीबी के इलाज में इस्तेमाल किये जाने के लिए अंतरिम दिशा-निर्देश जारी किये हैं. टीबी की रोकथाम के लिए फिलहाल दस वैक्सिन्स और दो इम्यूनोथेरेप्यूटिक वैक्सिन्स पर शोधकार्य जारी है.
वर्ष 2015 के लक्ष्य
दुनियाभर में पिछले एक दशक में टीबी के नये मामलों में कमी जरूर आयी है और ‘एमडीजी ग्लोबल टारगेट’ को हासिल करने में मदद मिल रही है. डब्ल्यूएचओ के निर्धारित छह इलाकों में इसमें गिरावट आयी है, लेकिन इसमें कमी आने की दर (2 फीसदी प्रतिवर्ष) अभी धीमी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दो क्षेत्रों (अमेरिकी और पश्चिमी पेसिफिक क्षेत्र) में 2015 के लक्ष्यों को हासिल किया है. इन क्षेत्रों में इसके नये मामलों, प्रसार और मृत्यु दर में लक्ष्य के अनुकूल कमी आयी है.
इसके प्रसार वाले समुदाय में सक्रिय टीबी बीमारी के स्तर में 1990 के मुकाबले वर्ष 2012 तक 37 फीसदी की वैश्विक कमी आयी है. डब्ल्यूएचओ का मकसद वर्ष 2015 तक इसे 50 फीसदी तक लाना है.