राज्य सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए. एक समय मालदा शहर में बड़े पैमाने पर शोला का काम होता था. पूजा के मौसम में यहां के शोला कारीगर अच्छी कमाई करते थे. लेकिन अब चाइनीज डेकोरेशन का इस्तेमाल होने से इन कारीगरों का काम मंदा हो गया है. कारीगरों का कहना है कि महंगाई बढ़ने के साथ शोला का काम भी महंगा हुआ है. ऐसे में बहुत से लोग शोला साज की जगह रेडीमेड साज (चाइना साज) खरीद लेते हैं. प्रतिमा बनानेवाले कारीगर हमारे हाथ के बने काम की जगह मशीन से बने चाइना साज को ज्यादा पसंद कर रहे हैं. इसके चलते शोला कारीगर अपना यह पुश्तैनी पेशा छोड़ रहे हैं. मालदा शहर के कुतुरपुर, कालीतला, मालंचपल्ली, कोतवाली इलाके में अभी 10-15 शोला कारीगर हैं. एक दशक पहले यह संख्या 100 से 150 थी. कुछ लोग अपने पुरखों की विरासत को जिंदा रखने के लिए यह काम अब भी कर रहे हैं. पूजा के मौसम आते ही इन कारीगरों का पूरा काम शोला के गहने तैयार करने में जुट जाता है.
गले की माला से लेकर कान के कुंडल, मुकुट आदि बनाये जाते हैं. कोतवाली इलाके के शोला कारीगर हीरक दास ने बताया कि अब पहले की तरह शोला के पेड़ नहीं मिलते हैं. इसलिए बहुत से कारीगर शोला के विकल्प के रूप में थर्मोकोल का इस्तेमाल करने लगे हैं. थर्मोकोल से देवी के विभिन्न गहने तैयार किये जाते हैं.
शोला का जो बंडल पहले 400 रुपये में मिलता था, अब वह 600 रुपये में मिल रहा है. इसी तरह पिछले साल जारी का दाम 500 रुपये किलो था, अब यह बढ़कर 700-800 रुपये किलो हो गया है. शोला गहनों में इस्तेमाल होनेवाला अन्य कच्चा माल भी इसी तरह काफी महंगा हो गया है. मालदा शहर के कुतुरपुर इलाके के एक शोला कारीगर रोहिनी मालाकार ने बताया कि दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, कार्तिक, सरस्वती, असुर और अन्य प्रतिमाओं के गहने तैयार करने में एक सोला कारीगर को पांच से सात दिन लगते हैं. रोज छह से आठ घंटे काम के बदले में महीने में साढ़े सात से आठ हजार रुपये देने होते हैं. इस पर भी अच्छे कारीगर नहीं मिलने की वजह से शोला का बढ़िया काम नहीं हो पाता है. अंत में सारे खर्च जोड़ने पर कुछ लाभ नहीं हो पाता है. पता नहीं हम लोग यह काम और कितने दिन कर पायेंगे. उन्होंने मांग की कि इस पुरानी कला को बचाने के लिए सरकार को प्रयास करना चाहिए.