कोलकाता: कोलकाता पुलिस के इतिहास में 2 मई 2014 का दिन भी काले अक्षरों में लिखा जायेगा. साहित्य की भाषा में इसे चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसी घटना कहना मुनासिब होगा.
कोलकाता पुलिस का एक ईमानदार और जांबाज पूर्व अफसर अगर सरेराह लूट लिया जाये तो और कहा भी क्या जा सकता है? नजरूल इसलाम का नाम कोलकाता पुलिस के इतिहास में एक ऐसे अधिकारी के रूप में दर्ज है, जिसने न केवल कोलकाता को सट्टेबाजों से मुक्त कराने के लिए कई बार अपनी नौकरी भी दावं पर लगा दी, बल्कि जान चली जाने की धमकियों की भी परवाह नहीं की. कुख्यात अपराधियों और सत्ताधारी दल के बाहुबली नेताओं से साहसपूर्वक जूझने के उनके कई किस्से बंगाल और कोलकाता पुलिस के इतिहास में दर्ज हैं.
नजरूल के बाद में कोलकाता पुलिस के खुफिया विभाग में डीसी (डीडी-2) के पद पर आनेवाले सुरजीत कर पुरकायस्थ इन दिनों कोलकाता के पुलिस कमिश्नर हैं और नजरूल के सभी कार्यो के बारे में उन्हें भलीभांति जानकारी है. जिस कोलकाता पुलिस की तुलना कभी स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस से की जाती थी, उसमें अस्सी के दशक की एक घटना ने ऐसी हीन भावना भर दी थी कि पुलिस के अधिकारी और कर्मचारी अपराध जगत के लोगों से खौफ खाने लगे थे. वह घटना थी 1984 में तत्कालीन डीसी (पोर्ट) विनोद मेहता की हत्या. पोर्ट इलाके में आपराधिक तत्वों की नकेल कसने को आतुर इस जांबाज 35 वर्षीय आइपीएस अधिकारी की सरेआम इस प्रकार हत्या की गयी कि कोलकाता पुलिस के अच्छे-अच्छे अधिकारियों की हिम्मत पस्त हो गयी. इसके बाद न केवल पोर्ट इलाके में बल्कि पूरे कोलकाता में आपराधिक तत्वों का जबरदस्त बोल बाला हो चला था. कुछ बड़े अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण भी मिला हुआ था.
लगभग एक दशक तक हताशा की बीमारी से जूझ रहे कोलकाता पुलिस के अधिकारियों को 1993 में डीसी (डीडी) स्पेशल के तौर पर नजरूल जैसा एक ऐसा अधिकारी मिला जो इस पद पर आने से पहले भी कई जिलों में अपराधियों से जूझ चुका था. अपनी ईमानदारी के बल पर सत्ताधारी नेताओं के ‘मंसूबों’ पर पानी फेर चुका था. इस अधिकारी ने एक बार फिर से कोलकाता के अपराधियों के साम्राज्य में अपने आगमन से ही भय पैदा कर दिया तथा कुछ ही महीनों में कोलकाता महानगर को सट्टेबाजी के जाल से मुक्त करा दिया. यह भी सच है कि अपनी जांबाजी और ईमानदारी के बलबूते समाज को नया रूप देने की चाहत रखने वाले इस अधिकारी को न तो पहले की सरकार ने और ना ही परिवर्तन के बाद में आने वाली सरकार ने उचित सम्मान दिया. उन्होंने पुलिस विभाग को जिस मुकाम पर ले जाने का सपना देखा था वो भी अधूरा ही रह गया. दु:ख तो इस बात का है कि उस दौर में भ्रष्ट लोगों का साथ देने वाले कुछ अधिकारी न केवल अच्छे पदों से नवाजे गये, बल्कि वो आज भी करोड़ों में खेल रहे हैं और ईमानदारी की राह चलने वाले नजरूल को रिटायर होने के बाद मिनीबस में सफर करना पड़ता है. आज के आम आदमी की तरह जेबकतरों और उचक्कों से लुटना भी पड़ता है. क्या कोलकाता पुलिस में उच्च पदों पर बैठे आज के अधिकारियों ने इस घटना से कोई सबक लेने की सोची है? अगर अपराधियों के हौसले इसी तरह बढ़ते रहे तो एक बार फिर से कोलकाता के हालात अस्सी के दशक जैसे हो सकते हैं!