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रांची से कराची तक रमजान

कराची से हुसैन कच्छी पंद्रह रमजान के आसपास रांची से कराची की नीयत करके निकला. अपने बच्चों के साथ कुछ रोजे गुजारने और ईद मनाने के लिए. इस सफर में यह ख्याल भी रहा कि एक साथ दिल्ली, अमृतसर, लाहौर और कराची यानी हिंदुस्तान पाकिस्तान के अहम शहरों में रमजान की बहारें देखने का बड़ा […]

कराची से हुसैन कच्छी
पंद्रह रमजान के आसपास रांची से कराची की नीयत करके निकला. अपने बच्चों के साथ कुछ रोजे गुजारने और ईद मनाने के लिए. इस सफर में यह ख्याल भी रहा कि एक साथ दिल्ली, अमृतसर, लाहौर और कराची यानी हिंदुस्तान पाकिस्तान के अहम शहरों में रमजान की बहारें देखने का बड़ा सुनहरा मौका हाथ आया है. हुआ भी यही. दिल्ली में वीजा हासिल करने में चार पांच दिन लग गये. शंकर आजाद दिल्ली आ गये, फिर क्या था, वह मिला तो और भी दोस्तों की महफिल रही.
जामा मसजिद और दरगाह हजरत निजामुद्दीन में इफ्तार के बड़े चर्चे सुन रखे थे. वह देखने और उसका लुत्फ उठाने का तजुर्बा हमेशा याद रहेगा. एक इफ्तार जामा मसजिद के सेहन में और एक इफ्तार महबूबे इलाही के आस्ताने पर. सैकड़ों नहीं, हजारों की तादाद में खानदानों के लोग छोटी छोटी टोलियों में दस्तरख्वान बिछाये दुनिया भर की नेमतें सजाये मगरिब का इंतजार कर रहे हैं.
वक्त हुआ तो रिवायत के मुताबिक पहले तोप दागे गये जो इस बात का एलान है कि इफ्तार का वक्त हो गया है. अब रोजा खोल लें. ऐसा रूहपरवर मंजर जिसमें नसलों, घरानों का फर्क न था. यहां तक कि मजहबों का भी फर्क न था. हजरत निजामुद्दीन की दरगाह सबके लिए खुली है. सवाली हर तबके से मौजूद है और सब रमजान के एहतराम में इफ्तार की खुशियां शेयर कर रहे हैं. सैकड़ों गज लंबी दस्तरख्वान है. हर इंसान जिसका कोई भी नाम हो वह खुदा का मेहमान है और बरकतों का हकदार.
दिल्ली में अखबार में खबर पढ़ी कि इस साल पहली बार आरएसएस के सदर दफ्तर झंडेवालान में इफ्तार की दावत हुई. अमेरिका के व्हाइट हाउस में भी इधर कुछ सालों से इफ्तार पार्टी होती है. यह कितना सियासी है कितना रूहानी अल्लाह ही जाने. खैर, वीजा लगने के बाद फैसला किया कि दोनों तरफ के पंजाब के रोजे देख कर कराची जाना है. सो अमृतसर के लिए गोल्डन टेंपल मेल में रिजर्वेशन करा कर रात भर का सफर करके सुबह अमृतसर पहुंच गया.
अखबार खरीदा और एक बड़ी खूबसूरत खबर और तसवीर पर नजर पड़ी कि कनाडा में सिख भाइयों ने गुरुद्वारे में इफ्तार पार्टी दी, जिसमें अच्छी तादाद में मुसलमानों ने शिरकत की. कनाडा की इफ्तार पार्टी में हिंदुस्तानी पाकिस्तानी मुसलमान शामिल थे. शहर की मशहूर मिठाई की दुकान शर्मा मिठाईवाले से पाकिस्तान ले जाने के लिए काजू की बर्फी लेने गया, वहां के मालिक से पूछा कि मैं यहां रमजान और इफ्तार का माहौल देखना चाहता हूं. उन्होंने बताया कि वैसे अमृतसर में ज्यादा मुसलमान नहीं रह गये, मगर पुराने मुहल्ले में मसजिद है, जहां शाम को लोग जमा होते हैं.
कश्मीर से आने जानेवाले, थोड़े टूरिस्ट और कुछ लोकल लोग और हमलोग अमृतसरवाले रमजान का पूरा एहतराम करते हैं. वैसे आप पंजाब में रमजान की बहार देखना चाहते हैं तो मलेरकोटला जरूर जाकर देखें, वहां के रोजे, ईद, बकरीद और दूसरे मुसलमान त्योहारों का जवाब ही नहीं.
हिंदू, सिख, मुसलमान ऐसे रहते हैं जैसे मलेरकोटला शहर नहीं एक ही कुंबे का आंगन हो. सैकड़ों बरस पहले मलेरकोटला के राजा ने जो करार किया था उसकी पासदारी मलेरकोटला वाले आज तक उसी मुहब्बत और आपसी एहतराम से करते हैं. इस सुलगती, धधकती धरती पर दो हिस्सा में बंटे पंजाब में मलेरकोटला एक गुलदस्ते की तरह और पूरी ताजी के साथ मौजूद है — ‘देखो इसे जो दीदा-ए-इबरत निगाह हो.’
आधा दिन अमृतसर में गुजार कर लाहौर की तरफ बढ़ निकलने का फैसला करते हुए एक ऑटो रिक्शावाले से बात तय कर ली और सामान रिक्शा पर रखवा लिया. आधे पौन घंटे के सफर के बाद हम बॉर्डर पर थे. कुछ घंटे बाद लाहौर पहुंच गया.
सोचा था कि बाबा बुल्लेशाह, वारिक शाह और दातागंज बख्श की दरगाहों के इफ्तार में शरीक होऊंगा, लेकिन वक्त की कमी की वजह से सिर्फ दाता दरबार और औरंगजेब की बनायी बादशाही मसजिद की इफ्तार में जा सका. बादशाही मसजिद में दिल्ली की जामा मसजिद वाली रौनक नहीं थी हालांकि लाहौर वाली मसजिद का सेहन दुनिया में सबसे बड़ा सेहन कहा जाता है, लेकिन इसके आसपास की आबादी में तब्दीली कम रौनक की वजह हो सकती है.
दाता दरबार का मंजर कुछ और था. ऐसी चहल-पहल, ऐसी सजावट और लोगों की तरफ से ऐसा लंगर मैंने नहीं देखा. यहां से वहां तक, फलों, मेवों, मिठाइयों के अंबार, दुनिया भर के शरबत और आइसक्रीमों के ढेर. किसने भेजे, किसकी तरफ से है इसका पता न दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया के आस्ताने में मिला, न लाहौर के दाता दरबार में. अल्लाह के हुक्म से फकीरों के दरबार में अमीर सर झुकाये जमीन पर मिसकीन सूरत बैठा है.
लाहौर में ही था कि रमजान का तीसरा अशरा शुरू हुआ तो मसजिदों में एतकाफ में बैठने वाले आने लगे.एक मसजिद को शहरे एतकाफ का नाम दिया गया जहां सैकड़ों मोतकिफ दिन रात इबादत से मशूगल हो गये. यहां पाकिस्तान में एतकाफ में बैठने के लिए नौजवानों में बड़ी दिलचस्पी दिखाई पड़ी. साल छह महीने पहले रजिस्ट्रेशन करायें तब जाकर नसीबवाले को जगह मिलती है. कमेटियों की इजाजत के बगैर जगह नहीं मिलेगी. औरतें अपने अपने घरों में एतकाफ करती हैं. यकीनन इसका चलन बढ़ा है.
लाहौर या कराची में रमजान ईद बाजार की क्या चर्चा करूं. बाजार तो बाजार है, हर चीज पर हावी, रमजान पर भी हावी, क्या हिंदुस्तान क्या पाकिस्तान और क्या पूरी दुनिया. कनाडा में एक दोस्त ने कल फोन पर बताया वह ईद पर सपरिवार न्यूयॉर्क घूमने जा रहा है. मैंने कहा यार, तुम्हारे रिश्तेदार इंडिया में हैं उन्हें मिल कर जाओ तो वह इधर-उधर की बात करने लगा.
लाहौर से कराची की फ्लाइट अच्छी थी. जहाज जब आधे रास्ते में था तो मुसाफिरों को नाश्ता खाना परोसा गया, सबकी सीटों के सामने लगे टेबुल पर लंच बॉक्स रखे गये. जो रोजे से नहीं थे उन्होंने खाना शुरू कर दिया. जहाज कराची के नजदीक पहुंचा तो केबिन क्रू की आवाज आयी की कराची में इफ्तार का वक्त हो गया है आप रोजा खोल लें. वह एलान और उसके बाद का मंजर खूबसूरत था.
लोग रोजा खोल रहे थे और पीआइए का स्टाफ शरबत और पानी की बोतलें लिये एक-एक सीट पर पहुंच रहा था. बेरोजेदार और रोजेदार एक दूसरे को दुआओं भरी निगाहों से देख रहे थे. जहाज नीचे उतरा. अपना सामान लेने से पहले लोग टर्मिनल पर बने नमाजगाहों की तरफ जा रहे थे.
चलते-चलते एक सवाल सामने लाना चाहता हूं. रमजान के पूरे रोजे में रोजेदारों ने इफ्तार में जो खाया-पीया उससे अच्छा खाना-पीना भी कोई होता है क्या? यह तो सबसे बेहतरीन खाना है, जो मुसलमान हर किसी के साथ बैठ कर खुशी खुशी खोलता है. घर दुकान का नौकर मालिक के साथ, नौकरानी अपनी मालकिन के साथ. कहते हैं रमजान ट्रेनिंग देता है, फिर इस ट्रेनिंग का क्या अंजाम होता है.
रमजान खत्म तो दस्तरख्वान पर मालिक नौकर, मालिक नौकरानी, अमीर-गरीब, अदना आला की तमीज शुरू हो जाती है. हमारा हिसाब क्या सिर्फ एक महीने का लिया जायेगा. बाकी के ग्यारह महीने क्या होंगे?

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