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कृषि पर पूरी तरह निर्भर ग्रामीण कम खुशहाल

रांची: गांव में आज तुलनात्मक रूप से खुश व समृद्ध कौन है? वैसे लोग, जिनके पास अपनी जमीन तो है, लेकिन जो उस पर पूरी तरह निर्भर नहीं हैं. यानी जो दुकान या किसी अन्य व्यवसाय से जुड़े हों. मैंने अपने अध्ययन में पाया है कि खेती पर पूरी तरह निर्भर ग्रामीण खुश नहीं हैं. […]

रांची: गांव में आज तुलनात्मक रूप से खुश व समृद्ध कौन है? वैसे लोग, जिनके पास अपनी जमीन तो है, लेकिन जो उस पर पूरी तरह निर्भर नहीं हैं. यानी जो दुकान या किसी अन्य व्यवसाय से जुड़े हों. मैंने अपने अध्ययन में पाया है कि खेती पर पूरी तरह निर्भर ग्रामीण खुश नहीं हैं. ऐसा बढ़ती मजदूरी लागत व श्रमिकों की कमी से हो रहा है.

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के इमिरेट्स प्रोफेसर व प्रख्यात समाजशास्त्री प्रो योगेंद्र सिंह ने यह बातें कही. वह तीसरे जेआरडी टाटा मेमोरियल लेक्चर कार्यक्रम में व्याख्यान दे रहे थे. गांव व उससे आगे : भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास का द्वंद्व विषय पर यह लेर एक्सआइएसएस सभागार में आयोजित था.

पहला चरण 1930-47 तक
प्रो सिंह ने तीन चरणों में गांव व ग्रामीण समाज में हुए व हो रहे बदलाव की विस्तार से चर्चा की. पहला चरण 1930-47 तक का था. इस दौरान गांवों के पारंपरिक सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक चरित्र ने बाहरी व भीतरी चुनौतियों का सामना किया.

दूसरा चरण 1950-70
दूसरा चरण (1950-70) कृषि संबंधी समस्याओं व इस क्षेत्र के बदलाव से जुड़ा था. वर्ष 1970 से 80 का तीसरा चरण गांवों में कृषि व गैर कृषि कार्य से जुड़े क्षेत्र में नये प्रभाव का था. वहीं 1980 के बाद से अब तक का समय गांव के सामाजिक-आर्थिक विकास व इसकी चुनौतियों से जुड़े संदर्भ व नीतियों का है. ये निष्कर्ष वर्ष 1956 व इसके बाद उत्तरप्रदेश के एक गांव चानुखेड़ा के अध्ययन पर आधारित हैं.

पूर्वी उत्तर प्रदेश (अब सिद्धार्थ नगर जिला) में मुख्य सड़क पर स्थित इस गांव का चयन इसकी गरीबी, जातिगत व्यवस्था व नेपाल से इसकी नजदीकी (इस नाते बाहरी संपर्क) के कारण किया गया था. प्रो सिंह ने अपने शोध अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कि गांव व ग्रामीण समाज में बड़े परिवर्तन हुए हैं. 1940 तक गांवों में जाति का प्रभाव हावी था. जमींदार या किसी जाति विशेष के लोग ग्रामीणों का शोषण करते थे. आर्थिक-सामाजिक विकास सक्षम लोगों की ही बात थी. हालांकि, इसके बाद भी गांव में न्याय सुनिश्चित होता था. इसलिए क्योंकि जमींदारों को श्रमिकों की आवश्यकता थी. अन्य जातियों की पेशेगत सुविधाएं व सेवाएं लेनी भी मजबूरी थी. इससे गांव में एक किस्म की हार्मोनी (तालमेल) थी. भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान जमींदारी प्रथा के खिलाफ भी हवा बनी. अंगरेजों व जमींदारों के खिलाफ इस आंदोलन ने भूमिहीनों-गरीबों में एक आशा जगायी.

कास्ट क्लास में बदला
स्वतंत्रता के बाद 1960 तक कास्ट (जाति) क्लास (वर्ग) में बदलने लगा. जमींदारों से जमीन लेकर भूमिहीनों के बीच बांटी गयी. जमींदार व अगड़ी जाति से अलग एक नया वर्ग बनने लगा व 80 के दशक तक यह प्रकिया तेज हो गयी.

फिर मंडल कमीशन
फिर मंडल कमीशन ने इस बैकवर्ड क्लास को आवाज दी. विभिन्न राजनीतिक दलों के समर्थन व सहयोग से इनकी ताकत बढ़ने लगी. शिक्षा व कौशल विकास ने ग्रामीणों को मत्स्य पालन व अन्य गैर कृषि आधारित आय वृद्धि गतिविधियों से जोड़ा. गांव अपेक्षाकृत खुशहाल व समृद्ध होने लगे. इसके बाद अब का समय नयी आर्थिक व राजनीतिक महत्वाकांक्षा का है. गांव की युवा पीढ़ी कंप्यूटर व सूचना-तकनीक से जुड़ रही है. नया युवा नेतृत्व उभर रहा है. अब गांव बेहतर जीवन शैली की ओर अग्रसर है. प्रो योगेंद्र सिंह के व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब सत्र भी हुआ.

इससे पहले एक्सआइएसएस में जेआरडी टाटा चेयर प्रो अनिरुद्ध प्रसाद ने चेयर के कार्य व उद्देश्य के बारे में बताया. संस्थान के निदेशक फादर एलेक्स एक्का के स्वागत भाषण के बाद सहायक निदेशक फादर रंजीत टोप्पो ने एक्सआइएसएस के बारे में जानकारी दी. टाटा स्टील में ग्रामीण सेवा के प्रमुख देवदूत मोहंती ने टाटा ग्रुप व सीएसआर के बारे में बताया. कार्यक्रम की अध्यक्षता आइआइसीएम के पूर्व कार्यकारी निदेशक प्रो सुदीप घोष ने की. संचालन डॉ राजश्री वर्मा ने व धन्यवाद ज्ञापन डॉ केके भगत ने किया. इस अवसर पर पूर्व मुख्य सचिव एके सिंह, पूर्व डीजीपी आरआर प्रसाद, रिम्स के निदेशक डॉ तुलसी महतो, वाइएमसीए के महासचिव इमानुएल सांगा, एक्सआइएसएस के फैकल्टी व विद्यार्थी उपस्थित थे.

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