प्रभात खबर की ओर से आयोजित मीडिया कॉन्क्लेव में सोमवार को मौजूदा दौर की पत्रकारिता पर चर्चा हुई. आज के दौर में मीडिया के समक्ष चुनौतियों पर वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी बातें रखी़ं पूंजी, बाजार और सत्ता के दबाव पर खुल कर चर्चा की़ कॉन्क्लेव में इन दबावों से मीडिया को बाहर निकालने और जनपक्षीय पत्रकारिता को आगे बढ़ाने पर जोर दिया गया. कॉन्क्लेव में यह बात सामने आयी कि सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के बीच खबरों की विश्वसनीयता ही मीडिया की साख बचायेगी़ फील गुड वाली खबरें नहीं, बल्कि सच्ची, अच्छी और तह तक जाने वाली पत्रकारिता की जरूरत है़ मीडिया कॉन्क्लेव में पायोनियर के प्रधान संपादक चंदन मित्रा, वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडेय, द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन, सियासत के प्रबंध संपादक जहीरुद्दीन अली खान, वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव और टेलीग्राफ के रोमिंग संपादक संकर्षण ठाकुर ने अपनी बातें रखी़ं प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी और एमडी केके गोयनका ने अतिथियों का स्वागत किया़.
चंदन मित्रा
प्रधान संपादक, पायोनियर
सोशल मीडिया से पत्रकारिता को चुनौती
सोशल मीडिया की वजह से पत्रकारिता के समक्ष काफी चुनौतियां उत्पन्न हो गयी हैं. इससे सारे बांध टूट गये हैं. प्रिंट मीडिया को ऐसे में एक फिल्टर की तरह सभी घटनाओं को परख कर टिप्पणी और रिपोर्ट प्रकाशित करनी चाहिए. इससे विश्वसनीयता बनी रहेगी. सोशल मीडिया में खबरें सत्यता को पुष्ट किये बिना चलायी जाती है. इन सनसनीखेज समाचारों और विचारों पर गंभीरता से विचार कर आगे बढ़ना चाहिए. सोशल मीडिया के आने से सभी पत्रकार, फोटोग्राफर बन गये हैं.
मृणाल पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार
संपादकाें व मैनेजरों की दोस्ती ठीक नहीं
आज की पत्रकारिता और चुनौतियों के लिए कई बातें कहना चाहूंगी. आज के युवा ताजातरीन खबरें चाहते हैं. उन्हें शार्प, फोकस व चुटिली खबरें चाहिए. इसके लिए बेहतर भाषा जरूरी है. भाषायी अशुद्धियां इन दिनों बढ़ रही हैं. हाशिये पर रह रहे वर्ग के लिए ग्रामीण, श्रम व कृषि क्षेत्र पर बेहतर रिपोर्ट नहीं होती. मीडिया हाउस को भी अपनी पुरानी स्मृतियों का संरक्षण करना चाहिए. संपादकों और मैनेजरों की दोस्ती अच्छी नहीं होती. मीडिया हाउस में कम से कम 40 वर्ष के अपने अनुभव से मैं यह कह सकती हूं.
संकर्षण ठाकुर
रोमिंग एडिटर, टेलीग्राफ
खबरों का कल्चर सत्ता ओरिएंटेड हो गया है
आज खबरों का कल्चर सत्ता अोरिएंटेड हो गया है. पहले फील गुड एड होता था, पर अब फील गुड न्यूज बन गया है. पत्रकारों को दिमाग की बत्ती जला कर रखनी चाहिए. यहां मीडिया पहले से ही एंटी सिपेटरी अोबेडिएंट बन जाता है. सूूचना व प्रसारण मंत्रालय और पीआरडी से जो भी न्यूज आती है, क्या हमें उनके तथ्यों की जांच नहीं करनी चाहिए? आज मीडिया चीयर लीडर्स बन गयी है. हमारा काम किसी चीज की सराहना करना नहीं है. पत्रकारों को सरकार से नहीं, बल्कि अपने संस्थान से मान्यता मिलनी चाहिए.
राहुल देव
वरिष्ठ पत्रकार
पत्रकारिता की भी दो धारा हो गयी है
अभी पत्रकारिता की भी दो धारा हो गयी है. इस पेशे के कई लोगों को आज सरकार के खिलाफ की खबरें भी अच्छी नहीं लगती है. अभी के निजाम के खिलाफ सुनाना भी नहीं चाहते हैं. सरकार कितनी भी ताकतवर क्यों नहीं हो, वह अस्थायी होती है. एक अच्छे अखबार और चैनल की उम्र इससे कहीं ज्यादा होती है. पाठक और दर्शक का दबाव सरकारी दबाव से अधिक होता है. यही कारण है कि इस पेशे में वही संस्था या लोग टिक पा रहे हैं, जिनकी जड़ें पुरानी, गहरी और मजबूत हैं.
जहीरुद्दीन अली खान
प्रबंध संपादक, सियासत
अवाम के मुद्दे लेकर आगे बढ़े मीडिया
विज्ञापन से मीडिया नहीं चलती. 80 के दशक में भी मीडिया को एड बैन था. आज भी यही स्थिति है. जब अाप अवाम के मुद्दे को लेकर आगे बढ़ते हैं, तो आपको कोई रोक नहीं सकता. आज हर अखबार किसी न किसी घराने या राजनीतिक पार्टी से जुड़ा है. मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में जा रही है. उनका एजेंडा पैसे कमाना है. देश और अवाम से कोई लेना-देना नहीं है. भारत को सांप्रदायिकता और जातिवाद से लड़ने की जरूरत है. यहां के 125 करोड़ लोग यहां की संपत्ति हैं. हम चीन और अमेरिका दोनों को चैलेंज कर सकते हैं.
सिद्धार्थ वरदराजन
संपादक, द वायर
घातक साबित होगा फेक न्यूज का इस्तेमाल
फेक न्यूज बड़ी चुनौती बन गयी है. कोई संपादक अपने अखबार में छपनेवाले कंटेंट पर नजर रख सकता है. लेकिन, किसी के व्हाट्सएप या अन्य साइट्स पर क्या आता है, उसके बस में नहीं है. फेक न्यूज की फैक्टरियां हिंदू-मुसलिम को लड़ा रही हैं. किसी नेता को बड़ा दिखा रही हैं, तो किसी को नीचा दिखाने में लगी हैं. सत्ता में बैठे लोग यदि फेक न्यूज का सहारा लेने लगे हैं, तो यह बहुत घातक होगा. जब तक अखबारों के लिए वाजिब मूल्य लोगों की चुकाने की आदत नहीं पड़ेगी, पेड न्यूज का दौर चलता रहेगा.