10.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

साहत्यि का ध्येय सत्य का संधान है : डॉ संजय पंकज (संजय पंकज के नाम से है)

साहित्य का ध्येय सत्य का संधान है : डॉ संजय पंकज (संजय पंकज के नाम से है)डॉ संजय पंकज वर्तमान हिंदी साहित्य जगत के लिए आदरणीय नाम है. कविताओं की रचना के संदर्भ में हो या गद्य के. वैचारिक स्तर पर समीक्षा के उच्च प्रतिमानों के संदर्भ में डॉ संजय पंकज का नाम आदर के […]

साहित्य का ध्येय सत्य का संधान है : डॉ संजय पंकज (संजय पंकज के नाम से है)डॉ संजय पंकज वर्तमान हिंदी साहित्य जगत के लिए आदरणीय नाम है. कविताओं की रचना के संदर्भ में हो या गद्य के. वैचारिक स्तर पर समीक्षा के उच्च प्रतिमानों के संदर्भ में डॉ संजय पंकज का नाम आदर के साथ लिया जाता है. प्रखर वक्ता, डॉ पंकज कई पुस्तकों के रचयिता हैं, जिनमें ‘यवनिका उठने तक’, ‘माहे शब्दातीत’, ‘मंजर-मंजर आग लगी है’, ‘यहां तो सब बंजारे’, ‘सोच सकते हो’, ‘शब्द नहीं मां, चेतना’, ‘समय बोलता है’ जैसी पुस्तकें शामिल हैं. वहीं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की ओर से आरंभ की गयी पत्रिका का संपादन सहित आचार्य शास्त्री की रचनाओं की संचयिता के प्रकाशन का भार भी संभाल रहे हैं. प्रस्तुत है सांप्रत साहित्य पर पैनी नजर रखने वाले डॉ पंकज से विभिन्न बिंदुओं पर प्रभात खबर की लंबी बातचीत के मुख्य अंश.प्रश्न – कविताओं में छंद आज के कवि जरूरी नहीं मानते, उनकी नजर में कविता का उद्देश्य भाव संप्रेषण है, जो छंदों का मोहताजन नहीं, कविता गद्यात्मक भी हो सकती है. डॉ संजय – छंद कविता को सहज ग्राह्य एवं आकर्षक बनाते हैं, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. प्राचीन कवियों की रचनाएं इसका प्रमाण हैं. आधुनिक युग तक आते-आते वैचारिकता को प्रमुखता देने के लिए छंदों का बंधन छोड़ने की हिमायत की गयी, किन्तु उस तरह लिखी गयी कविताओं में भी कविता के तत्व रहे और विचारों के साथ उनका वह कवितापन, उनका वह काव्य-तत्व उनकी लोकप्रियता का कारण भी बना. निराला जैसे कवियों की छंदमुक्त कविताएं इसकी गवाह हैं. छंद ही वास्तव में कविता के अंदर का वह स्पंदन हैं, जो पाठक को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करते हैं. वर्तमान दौर के अधिकांश कवि अपनी सुविधा के लिए छंदों से बचने के लिए ये दलीलें देते हैं. कविता में छंद वैसे ही जरूरी हैं, जैसे शरीर के लिए प्राण. प्रश्न – समकालीन कविताएं प्रभाव खोती जा रही हैं, ऐसा क्यों.डॉ संजय – कविता ही नहीं, साहित्य मात्र के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है, लेकिन जो कुछ लिख दिया जाय वह साहित्य नहीं हो सकता. साहित्यकारों में दायित्व बोध खत्म होता जा रहा है, उनमें अपने मूल्यों के प्रति सजगता समाप्त होती जा रही है. काव्य में जब तक सर्वजनी अनुभूतियों का समावेश न हो, तब तक उसे साहित्य नहीं कहा जा सकता. प्रश्न – इस स्थिति के लिए आलोचना कितनी जिम्मेवार है?डॉ संजय – हिंदी साहित्य में आलोचना दोष पूर्ण रही है. वह या तो दुर्भावना अथवा पूर्वाग्रह से ग्रस्त रही अथवा पक्षपात पूर्ण. आलोचना ने वास्तव में साहित्य का बड़ा अहित किया है. किसी विद्वान ने सही कहा था, ‘साहित्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है आलोचना’. प्रश्न – बिना आलोचना के साहित्यकार के स्वच्छंद हो जाने का भी तो खतरा है?डॉ संजय – स्वच्छंदता कोई बुरी चीज नहीं, बशर्ते विचारशीलता बनी रहे. कविता में बंधनों को नकारा जा सकता है, किन्तु विचार युक्त रचना छंदोबद्ध भी हो तो उसकी महत्ता बढ़ जाती है. कबीर, सूर, तुलसी जैसे प्राचीन कवियों ने ऐसा किया है. लेकिन इसके लिए साधना करनी पड़ती है. प्रश्न – आज साहित्यकारों की बाढ़ सी आ गयी है…?डॉ संजय – साहित्य के नाम पर आज बहुत कुछ लिखा जा रहा है, पर जो कुछ लिख दिया जाय वह साहित्य हो ही, यह जरूरी नहीं. बाजार में अच्छी-बुरी दोनों प्रकार की चीजें मौजूद हैं, ग्राहक को अच्छी चीजों का चयन करना होगा. प्रश्न – हिंदी साहित्य की दिशा और दशा क्या है?डॉ संजय – हिंदी का साहित्य विश्व साहित्य से तनिक भी घट कर नहीं है और उसमें विश्व मानवता का समावेश है. हिंदी अब विश्व भाषा है और इसके साधक रचनाकारों में विभिन्न विधाओं मे जैसा सृजन किया है, उसमें उनकी क्षमता एवं सरोकार भी बोलता है.प्रश्न – साहित्य संगठनों में मतभेद की स्थिति क्यों है ?डॉ संजय – विचारधाराओं के मतभेद को मेटते हुए साहित्यकारों को यह तय करना होगा कि उनकी प्रतिबद्धता क्या है, उनके सरोकार क्या हैं. अंततः सब कुछ जीवन और सौंदर्य के लिए है, कविता मनुष्य, मूल्य और प्रेम को छोड़ कर नहीं चल सकती. इसी में हमारी विरासत, संस्कृति, राष्ट्र और विश्व भी है. प्रश्न – साहित्यकारों में हाल के दिनों में असहिष्णुता की काफी चर्चा रही है?डॉ संजय – साहित्य में भी राजनीति का प्रवेश हो गया है. सुख-सुविधा की चकाचौंध में साहित्यकार भी फंसता जा रहा है. राजनीति का ध्येय है सत्ता, लेकिन साहित्य का ध्येय हर हाल में सत्य का संधान ही होता है. अब सत्य क्या है, इसकी पड़ताल साधना से ही संभव है. जहां तक असहिष्णुता को लेकर उपजे विवाद की बात है, तो वह दूसरी व्यवस्था आने पर पहली व्यवस्था में लाभ उठा रहे लोगों की छटपटाहट मात्र है. पुरस्कार लौटानी की प्रक्रिया किसी भी तरह प्रशंसा के योग्य नहीं. ऐसा करने वाले स्वयं को ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. साहित्यकार को विरोध अवश्य करना चाहिए, लेकिन उसकी लड़ाई का साधन साहित्य ही हो सकता है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें