राजा-महाराजाओं के समय से चला आ रहा छऊ आज वक्त की तेज रफ्तार में दम तोड़ता दिख रहा है. दिलीप आचार्या बताते हैं कि अगर वे पूजा-पाठ के लिए देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाना बंद कर दें, तो उनका परिवार भूखों मरेगा. छऊ के मुखौटे उन्हें मान तो दे सकते हैं, पर उनका और उनके परिवार का पेट नहीं भर पा रहे. वे बताते हैं कि वे छऊ के मुखौटे विभिन्न अकादमी या संस्थाओं को 150 रुपये में बेचते हैं. यही मुखौटे दिल्ली या देश के अन्य बाजारों में 1000 से 1500 रुपये में बेचे जाते हैं. पर हमें इसकी सही कीमत कभी भी नहीं मिल पाती. दिलीप आचार्या ना सिर्फ छऊ के मुखौटे बनाते हैं बल्कि बच्चों को छऊ नृत्य भी सिखाते हैं. उस क्षेत्र के कई गांवाें की छऊ टीम दिलीप आचार्या ने तैयार की है. पर गौरवशाली अतीत की कहानी अब धुंधली पड़ती दिखती है. दिलीप बताते हैं कि अब साल में एक बार सिर्फ इन गांवों में छऊ खेला जाता है. अब छऊ कलाकार नहीं मिलते, वे मजदूरी करने बाहर चले गये हैं.
यह पूछे जाने पर की क्या छऊ की कला आपके परिवार में आपकी पीढ़ी तक ही दम तोड़ देगी, दिलीप अपने बेटे दीपक को आवाज देते हैं. दिलीप का गला रुंधा हुआ है, कुछ बोल नहीं पाते. दीपक जो सरायकेला के केसी साहू काॅलेज में अंग्रेजी ऑनर्स कर रहा है, कहता है मेरे पिता ने बचपन से मुझे इस कला से दूर रखा. वे नहीं चाहते कि जो फांकाकशी की जिंदगी उन्होंने या अब तक हमारे परिवार ने जी है, वह आगे भी बनी रहे. तमाम तकलीफ के बावजूद वह मुझे पढ़ाने में लगे हैं, ताकि कुछ ढंग का काम मिल जाये. इस कला में सम्मान तो है, पर कोई इसके बारे में नहीं सोचता. चंद लोग इस कला के नाम पर फायदा उठा रहे हैं, और इसके असली किरदार किसी तरह अपना गुजारा चला रहे.
दिलीप आचार्या की हिम्मत लौटती है. वे बताते हैं कि सरकार ने छऊ के लिए काफी कुछ किया है. छऊ के कई कलाकारों को पद्मभूषण, पद्मश्री समेत तमाम अवार्ड मिले हैं, लेकिन मुखौटे को तैयार करने वाले उनके जैसे कलाकार की कोई पूछ नहीं है, जिसके बगैर छऊ नृत्य ही पूर्ण नहीं हो
उनका मानना है, सरकार इस ओर कोई पहल करे तो बात बने. कोल्हान विश्वविद्यालय में छऊ की पढ़ाई की बात सुनने में आयी थी, लेकिन इस पर भी अब तक कुछ नहीं हुआ. एक कला की मौत एक युग की मौत के समान होता है, सरकार चाहे तो इस असामयिक मौत को रोक सकती है.