जमशेदपुर: कभी राजस्थानी समाज की सांस्कृतिक पहचान रहे लहरिया वस्त्र आधुनिकता की चकाचौंध में गुम होते जा रहे हैं. राजस्थान के निवासियों, खास कर महिलाओं में श्रवण के महीने में लहरिया साड़ी पहनना सौभाग्य का प्रतीक माना जाता था तथा महिलाएं ये साड़ियां खरीदने के लिए पति से मनुहार किया करती थीं. व्यापारी पहले से ही लहरिया साड़ी व सूट का स्टॉक मंगा कर रखते थे, लेकिन इन वस्त्रों की पूछ-परख खत्म होती जा रही है.
जुगसलाई के एक बड़े वस्त्र व्यवसायी (स्वयं राजस्थानी) बड़ी मायूसी से कहते हैं,‘अब कहां लहरिया, अब तो महिलाएं दुकान में आते ही यही पूछती हैं, नया क्या है? ऐसे ग्राहकों को लहरिया से क्या मतलब.’ नगर के एक अन्य व्यवसायी पुराने दिनों को याद करते हैं, जब महीनों पहले से लहरिया साड़ियों का स्टॉक जमा कर रखते थे. तीज के के अवसर पर ही कुछ लोग परंपरागत रूप से अपनी बहू-बेटियों के लिए लहरिया कपड़े खरीदने आते हैं.
क्यों-कब से प्रचलन में है लहरिया
सावन-भादों में भी सूखे रह जाने वाले राजस्थान में, जहां कल-कल बहती नदियां-झरने नाम मात्र के ही हैं, खुद को प्रकृति के अनुरूप ढाल लेने वाला राजस्थानियों ने अपने सतरंगे वस्त्रों को ही लहरदार रंगों में रंग कर उसकी कमी को पूरा करने का प्रयास किया. राजस्थानी संस्कृति में लहरिया का उल्लेख मीरा बाई के पदों में भी मिलते हैं. राजस्थानी परिवारों में तीज के पहले मनाये जाने वाले सिंधारे के दिन नव विवाहिताओं के लिए ससुराल से अन्य श्रृंगार सामग्रियों के साथ लहरिया भी जरूर भेंट किया जाता था. सावन में युवतियों का मन लहरिया के लिए मचलने लगता था. इसका प्रमाण राजस्थानी लोक गीतों में भी मिलता है :
‘इण लहेरिये रा नौ सौ रुपया रोकड़ा सा
म्हाने ल्याइदो नी, बादिला ढोला लहेरियो सा
म्हाने ल्याइदो नी बाईसा रा बीरा लहेरियो सा
म्हाने ल्याइदो ल्याइदो ल्याइदो ढोला लहेरियो सा..।’