आदित्य झा, जमशेदपुर
हर शाम तीन बजे शिखा मांडी के ‘जोहार’ बोलते ही लाखों लोग उन्हें सुनने के लिए एफएम ट्यून कर लेते हैं या फिर ऑनलाइन उनसे जुड़ जाते हैं. शिखा कोई आम लड़की नहीं, बल्कि वह संताली भाषा की देश की पहली रेडियो जॉकी हैं. पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मेदिनीपुर के बेलपहाड़ी की रहने वाली शिखा मांडी संताल समाज के युवाओं के लिए आज रोल मॉडल बन गयी हैं.
शिखा का बचपन आम आदिवासी बच्चों की तरह ही अभाव में बीता है. आदिवासी बहुल बेलपहाड़ी गांव में अच्छे स्कूल नहीं होने के कारण उनके मां-बाबा ने पढ़ाई के लिए कोलकाता उनके चाचा के पास भेज दिया. पढ़ाई पूरी करने के बाद वह दिसंबर, 2017 से अपनी मिट्टी से जुड़कर अपनी मधुर आवाज के जरिये संताली भाषा में रेडियो प्रोग्राम प्रस्तुत कर रही हैं.
सांवले रंग के कारण झेलना पड़ा भेदभाव : पुराने दिनों को याद करते हुए शिखा कहती हैं कि अपने सांवले रंग व आदिवासी होने के कारण स्कूल (कोलकाता) में काफी भेदभाव झेलना पड़ा. क्लास में कोई भी उनसे बात करना पसंद नहीं करता था.
बच्चे आदिवासी होने के कारण ‘जंगल की रहनेवाली’ और ‘टूंपा’ कह कर चिढ़ाते थे. उनका व्यवहार देखकर बुरा लगता था और खुद पर गुस्सा आता था कि हम लोगों का रंग-रूप अन्य लड़कियों की तरह क्यों नहीं. उस समय लगता कि किसी बंगाली परिवार में क्यों नहीं जन्मी? यदि ऐसा होता, तो यह उपेक्षा नहीं झेलनी पड़ती. मगर आज वही क्लासमेट्स प्रोग्राम सुन कर बधाई देते हैं.
नौसेना में अप्रेंटिस की ट्रेनिंग छोड़ी : शिखा बताती हैं कि उन्होंने स्कूल की पढ़ाई करने के बाद पॉलिटेक्निक की. घर के लोग चाहते थे कि मैं भी सरकारी नौकरी करूं और परिवार के लिए कुछ करूं. इसी बीच मेरा भारतीय नौसेना में अप्रेटिंस के लिए चयन भी हो गया, लेकिन इसी दौरान झारग्राम में मिलन 90.4 कम्युनिटी रेडियो लांच हुआ और वहां आरजे की वैकेंसी निकली, जिसमें सेलेक्शन हो गया. रेडियो की ओर झुकाव स्कूल के समय से ही था.
घर में सभी लोग ऑल इंडिया रेडियो पर संताली भाषा में प्रसारित होने वाले प्रोग्राम को नियमित सुनते थे और मैं उनके जैसे ही बोलने का प्रयास करती थी. मिलन रेडियो ने मेरे सपनों को उड़ान दिया. महीनों ट्रेनिंग के बाद संताली भाषा में प्रोग्राम प्रेजेंट करने का अवसर मिला. संताली भाषा में पहला प्रोग्राम होने के कारण लोगों ने भी उसे काफी सराहा. कार्यक्रम को एक घंटे से बढ़ा कर तीन घंटे तक कर दिया गया.
आदिवासी समाज के लिए करना चाहती हैं काम : शिखा कहती हैं कि शुरू में प्रोग्राम रिकॉर्ड करने में काफी डर लगता था. कोलकाता में बचपन बीतने के कारण संताली बोल तो आता था, लेकिन लिखना नहीं आता था.
बाद में ओलचिकि लिपि सीखी. इस दौरान कई संताली लेखकों की रचनाओं को भी पढ़ने-समझने का मौका मिला. इससे आत्मविश्वास बढ़ा. उनका मानना है कि हर बच्चे को उसकी भाषा में पढ़ाई का अवसर मिलना चाहिए, वरना एक दिन ऐसा आयेगा कि संताली बोलने वाला कोई नहीं होगा. वह आदिवासी समाज की संस्कृति व लोगों की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहती हैं, जिससे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल सके.
शिखा आगे कहती हैं कि सामाजिक बदलाव के लिए जरूरी नहीं कि हम सरकारी नौकरी ही करें. प्राइवेट नौकरी व बिजनेस करके भी हम समाज को मजबूत कर सकते हैं.