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गर्भस्थ शिशुओं ने जन्म लेने से मना कर दिया है

गर्भस्थ शिशुओं ने जन्म लेने से मना कर दिया हैदिल्ली के पर्यावरण संकट का रचनात्मक पाठसामाजिक कार्यकर्ता अनिल पांडेय की काव्यात्मक प्रस्तुति धनबाद. those who prepare green warswar with gas, war with fire victory with no survivorउक्त पंक्तियां चिली के राष्ट्रीय कवि पाब्लो नेरुदा की कविता ‘कीपिंग क्वाइट’ की हैं. औद्योगिक विकास के लिए हरियाली […]

गर्भस्थ शिशुओं ने जन्म लेने से मना कर दिया हैदिल्ली के पर्यावरण संकट का रचनात्मक पाठसामाजिक कार्यकर्ता अनिल पांडेय की काव्यात्मक प्रस्तुति धनबाद. those who prepare green warswar with gas, war with fire victory with no survivorउक्त पंक्तियां चिली के राष्ट्रीय कवि पाब्लो नेरुदा की कविता ‘कीपिंग क्वाइट’ की हैं. औद्योगिक विकास के लिए हरियाली के खिलाफ छेड़ी गयी जंग को गैस व आग की जंग बताते हुए पाब्लो नेरुदा कहते हैं कि इस जंग की जीत का कोई वारिस नहीं होता. पर्यावरणीय चिंता की अनदेखी करते हुए किया जा रहा विकास अंतत: ऐसे ही मनुष्य विरोध का ही उपक्रम बन जाता है. इन्हीं चिंताओं और सवालों के आसपास दिल्ली के पर्यावरणीय संकट पर केंद्रित है कोयलांचल के सामाजिक कार्यकर्ता अनिल पांडेय की कविता पुस्तिका ‘ बेहद उदास है दिल्ली’. ये कविताएं दिल्ली के बहाने एक सामाजिक कार्यकर्ता की पर्यावरणीय चिंता और जीवन सरोकारों का जीवंत दस्तावेज हैं. मानवीय सरोकार का व्यापक विस्तार : कोयलांचल में पले-बढ़े कवि की कविता ‘ दिल्ली का कर्ज ‘ में दर्ज दिल्ली चिंता मानवीय सरोकार का व्यापक विस्तार है. इसे वह में स्पष्ट करते हुए औचित्य सिद्ध करते हैं : ‘ दिल्ली का कर्ज है, दिल्ली के लिए दर्द है. ‘ ‘उफ्फ’ में वह ‘पार्कों में बतियाती लड़कियां’ व ‘सितारों से जगमगताता आसमान’ पर प्रदूषण के आतंक का साया तना हुआ दिखा कर निर्दोष मुस्कान को स्याह होता पाते हैं. मानवीय सरोकारों को लेकर हमारी उदासीनता मिट्टी, हवा, पानी और अपने आसपास की आबोहवा को संकटग्रस्त होने के लिए छोड़ देती है. यह धरती आनेवाली संततियों के रहने लायक नहीं बचती. गर्भ में पल रहा शिशु इसका जिम्मेवार अपनी होनेवाली मां को भी ठहराता है और जन्म लेने से इनकार कर जाता है. उसका मानना है कि उसकी मां ने इस जीवन को जीने लायक बनाने में हाथ नहीं बंटाया है. ‘वह जन्म नहीं लेगा, गर्भ में ही रहेगा’ शीर्षक कविता में भावी शिशु बेहद कारुणिक सच व कड़वे सवालों से घेरता है मांओं को : तुमने भी इस शहर को /मेरे जीने लायक नहीं बनाया/गर्भ में सहेजा पूरे नौ माह/ मगर, नौ पौधा भी नहीं लगाया. पर्यावरण के साथ हमारे संबंधों के मानवीय धागे टूटते हैं तो जीवन कितना भयावह होता है, इससे जाना जा सकता है. क्लाइमेट चेंज यूं ही बड़ा मुद्दा बन गया है.

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