रांची: बालू को लेकर सरकार कभी ठोस निर्णय नहीं ले पायी है. इस वजह से आज भी ऊहा-पोह की स्थिति बनी हुई है. सरकारें बदलती रही, इसके साथ ही नियम-कानून भी बदलते रहे. कभी बालू को फ्री किया गया, तो कभी इसकी बंदोबस्ती का फैसला लिया गया. यह प्रक्रिया वर्ष 2001 से ही चल रही है.
कब क्या हुआ
वर्ष 2001 में पेसा एक्ट का हवाला देते हुए तत्कालीन बाबूलाल मरांडी की सरकार ने बालू घाटों से बालू के उठाव की जिम्मेवारी ग्राम सभा को दे दी. तब से अब तक यही व्यवस्था चल रही थी. यानी ग्राम सभा की अनुमति से ग्रामीण ही बालू का उठाव करते थे और इसे बेचते रहे हैं.
2004 में बनी नियमावली
वर्ष 2004 में तत्कालीन अजरुन मुंडा की सरकार ने झारखंड लघु खनिज समनुदान नियमावली 2004 बनवायी.इस नियमावली में बालू घाटों की बंदोबस्ती नीलामी प्रक्रिया द्वारा नहीं होने की बात कही गयी. इसमें लिखा गया है कि बालू घाट जिस ग्राम सीमा के अंतर्गत हो, उसका सीमांकन कर उससे संबंधित ग्राम सभा को जिला खनन पदाधिकारी द्वारा सुपुर्द कर दिया जायेगा. ग्राम सभा के जरिये ही बालू घाट का संचालक होगा अथवा अपने स्तर से संविदा स्थानीय स्तर होगा. राजस्व को ग्राम सभा अपने कोष में जमा करेगी और ग्राम विकास के लिए खर्च करेगी.
वर्ष 2011 में हुआ नीलामी का आदेश
25 अप्रैल 2011 को तत्कालीन अजरुन मुंडा की सरकार ने लघु खनिज समनुदान नियमावली 2004 में संशोधन कराया. इसमें बालू घाटों की बंदोबस्ती सरकारी नीलामी द्वारा कराने का प्रावधान किया गया. इससे होनेवाली आय का 80 फीसदी हिस्सा ग्राम सभा को दिया जायेगा और 20 फीसदी खान विभाग को मिलेगा. इसे झारखंड लघु खनिज समनुदान (संशोधन) नियमावली 2010 का नाम दिया गया. इसके बाद 27.6.2011 को तत्कालीन खान आयुक्त एके सरकार ने बालू घाटों की नीलामी का आदेश दिया. इसके बाद धनबाद, जामताड़ा आदि जिलों में नीलामी हुई. पर सरकार को यह शिकायत मिली कि इसमें दबंग व बड़े पैसे वाले ही घाटों की ऊंची बोली लगाकर बंदोबस्ती अपने पक्ष में करा रहे हैं. खूंटी में जब नीलामी हो रही थी, तब इसका काफी विरोध भी हुआ. मामला सरकार तक आयी. तब सरकार ने 26.8.2011 को नीलामी प्रक्रिया स्थगित करने का आदेश दिया. साथ ही पूर्व की व्यवस्था बहाल करने का निर्देश दिया गया.
25.6.2012 को खान विभाग के उपसचिव एसके सोरेंग ने सभी उपायुक्तों को पत्र भेज कर ग्राम सभा के माध्यम से ही बालू घाटों का संचालन कराने का निर्देश दिया. इसी बीच फरवरी 2012 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये आदेश में पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्र खनन क्षेत्रों के लिए पर्यावरण स्वीकृति लेने का आदेश दिया गया.
राष्ट्रपति शासन में नीलामी का आदेश
राष्ट्रपति शासन के दौरान 29 अप्रैल 2013 को तत्कालीन खान सचिव सुनील कुमार वर्णवाल ने खान विभाग पुराने आदेश को विलोपित करते हुए बालू घाटों की बंदोबस्ती नीलामी से कराये जाने का आदेश दिया. इसी आदेश के तहत नीलामी की प्रक्रिया चल रही थी. इसी बीच पांच अगस्त 2013 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा बिना पर्यावरण स्वीकृति के बालू घाटों से बालू के उठाव पर रोक लगा दी गयी. इसी आदेश की वजह से पूरे राज्य में प्रशासन बालू ट्रकों को धर-पकड़ कर रहे हैं. इधर, लगभग 10 जिलों में बालू घाटों की बंदोबस्ती हो चुकी है. पर पर्यावरण स्वीकृति किसी घाट को नहीं मिली है.
दूसरे राज्यों में जारी है बालू का उठाव
छत्तीसगढ़ भी पांचवी अनुसूची वाला राज्य है. वहां अभी बालू को लेकर कोई नये नियम नहीं बने हैं. बालू पर पंचायतों को ही अधिकार दिया गया है. पंचायतों द्वारा ही बालू का उठाव किया जा रहा है. फिलहाल बालू का उठाव यहां पूर्ववत जारी है. बिहार में बालू के लिए वर्ष 2010 में तीन वर्षो तक की बंदोबस्ती की गयी थी, जिसकी अवधि मार्च 2013 में समाप्त हो गयी. सरकार बालू को लेकर नयी नियमावली बना चुकी है, जिसे लागू नहीं किया जा सका है. जिसकी वजह से इस बंदोबस्ती को दिसंबर 2013 तक अवधि विस्तार दे दिया गया है. इसी बीच सुप्रीम कोर्ट द्वारा पर्यावरण स्वीकृति लेने के आदेश पर बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. फिलहाल बालू का उठाव पूर्ववत जारी है. राज्य सरकार ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में बालू की नीति की जानकारी मांगी थी. वहां कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद असमंजस की स्थिति है. फिलहाल पुरानी व्यवस्था से ही बालू का उठाव हो रहा है, नयी नियमावली बन रही है.
झारखंडी को मिले प्राथमिकता : स्पीकर
झारखंड में बालू उठाव के ठेका को लेकर हो रहे विवाद पर झारखंड विधानसभा के अध्यक्ष शशांक शेखर भोक्ता ने अपनी राय देते हुए कहा कि इसमें झारखंडी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए. अपने भतीजे के शादी समारोह में शिरकत करने आये श्री भोक्ता ने कहा कि यह सरकार का निर्णय है.
सरकार की मंशा है कि अधिक से अधिक राजस्व की प्राप्ति हो, लेकिन इस तरह से बाहरी कंपनी को ठेका देने से अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है. बाहरी कंपनी अधिक दाम पर ठेका लेकर मनमाने तरीके से बालू की बिक्री करेगी. इससे भवन निर्माण की लागत भी बढ़ जायेगी. इस संबंध में पूछे गये सवाल पर उन्होंने कहा कि वह इस मुद्दे पर ज्यादा नहीं बोल सकते हैं. हालांकि उन्होंने कहा कि लोकल बॉडी को भी ठेका देकर राजस्व की प्राप्ति की जा सकती है. यदि ग्राम पंचायत में ही ठेका रहे तो इससे पंचायत की भी आमदनी बढ़ेगी और सरकार को राजस्व भी मिलेगा.