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बिहार-झारखंड : ब्यूरोक्रेसी की बंधक पंचायतें

-दिल्ली से लौट कर आनंद मोहन- ग्रास रूट पर लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हैं. पंचायतें अपनी मूल भावना से अलग काम कर रही हैं. विकास और लोक कल्याणकारी योजनाओं को चलाने की जिम्मेवारी पंचायती संस्थाओं पर है. वह इससे इतर एक गंठजोड़ के तहत काम कर रही हैं. बिहार-झारखंड में स्वशासन का लक्ष्य पूरा नहीं हो […]

-दिल्ली से लौट कर आनंद मोहन-

ग्रास रूट पर लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हैं. पंचायतें अपनी मूल भावना से अलग काम कर रही हैं. विकास और लोक कल्याणकारी योजनाओं को चलाने की जिम्मेवारी पंचायती संस्थाओं पर है. वह इससे इतर एक गंठजोड़ के तहत काम कर रही हैं. बिहार-झारखंड में स्वशासन का लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा है. ब्यूरोक्रेसी ने पंचायतों को बंधक बना लिया है.

जनप्रतिनिधि ब्यूरोक्रेसी के लिए ही काम करते नजर आ रहे हैं. ग्रास रूट पर जन सहभागिता बढ़ाने, विकास का आधार तैयार करने की जगह पंचायतें ब्यूरोक्रेसी का औजार भर बन कर रह गयी हैं. बिहार-झारखंड में चल रहे नक्सल संघर्ष और गवर्नेस को लेकर किये गये शोध में ये बातें सामने आयी हैं. शोध कार्य में सरकार की कार्य संस्कृति और संघर्ष के विभिन्न पहलुओं को समझने-परखने का काम हुआ.

जेएनयू और प्रिया की शोध टीम ने इन इलाकों में गवर्नेस की स्थिति का विश्लेषणकिया. पिछले दिनों 11-12 नवंबर को दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में भारत और यूरोप के विभिन्न इलाकों में चल रहे संघर्ष और गवर्नेस पर तैयार शोध रिपोर्ट पर मंथन हुआ. इस बात पर चिंता जतायी गयी कि संघर्ष के क्षेत्र में विवादों के समाधान पर पंचायतों की भूमिका नकारी जाती है.

पंचायतों के निर्णय को स्थानीय स्तर पर पुलिस भी स्वीकार्य नहीं करती. नक्सल समस्या के निदान के लिए विकास कार्यक्रमों को बेहतर तरीके से चलाने की जगह पुलिस आधुनिकीकरण पर जोर दिया जाता है. पंचायतों की सक्रियता बढ़ाने के बदले पुलिस को आधुनिक हथियार देकर परिस्थितियों से लड़ने का माइंडसेट बनाया जा रहा है. जमीनी स्तर पर बेहतर पुलिसिंग भी नहीं हो रही है. जेएनयू के प्रोफेसर अमित प्रकाश ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में बताया कि विकास कार्यो में जवाबदेही तय नहीं हो रही है. पंचायतें सामूहिक निर्णय आधारित न्याय व्यवस्था पर नहीं चल रही हैं. कई इलाकों में ग्रामसभा और नक्सली का गंठजोड़ चल रहा है.

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