कांग्रेस की मौन या मूक सहमति ने झारखंड विधायकों की साख को दावं पर लगा दिया है. राज्यसभा प्रत्याशियों के चयन मामले में कांग्रेस की स्थिति क्यों अस्पष्ट है? कांग्रेस क्या चाहती है कि विधायकों की बोली लगे? कांग्रेस चाहती तो यूपीए का एक अधिकृत उम्मीदवार मैदान में होता. पर मौन भूमिका या विधायकों को बाजार में खड़ा करने की कीमत तो पूरे देश में कांग्रेस को ही चुकानी है. कांग्रेस भूले नहीं, जून 1963 में कांग्रेस-झारखंड पार्टी में विलय हुआ.
जयपाल सिंह मुंडा कांग्रेस में गये, तबसे झारखंडी कहते हैं, कांग्रेस झारखंड की पहचान और मान-सम्मान मिटाना चाहती है. याद करिए वह नारा जो जयपाल सिंह के कांग्रेस में जाने पर लगा. जयपाल, बोदरा, बागे मुर्गा ले कर भागे. फिर इंदिरा कांग्रेस-शिबू सोरेन तालमेल हुआ और झामुमो पर फिसलने के गंभीर आरोप लगे. इसके बाद 90 के दशक में नरसिंह राव ने ‘सांसद रिश्वत प्रकरण’ में झारखंड की टोपी ही पूरे देश में उछाल दी. इस बार भी यूपीए का एक अधिकृत प्रत्याशी नहीं बना, तो मान लीजिए, राज्यसभा चुनावों में धन-बल ही निर्णायक होगा और खलनायक होगी कांग्रेस.
आज भी आम झारखंडी यही मानते हैं कि जयपाल सिंह, गुरुजी शिबू सोरेन या झारखंडी नेता कम दोषी हैं, असल दोष तो कांग्रेस का है. इस बार भी झारखंड राज्यसभा चुनावों में पैसे का जोर चला, तो यह धारणा और पुष्ट होगी कि इस खेल की सूत्रधार तो कांग्रेस है. गली-गली लोग पूछेंगे कि जब झारखंडी राजनीति में मोलभाव चल रहा था, देश में झारखंड की राजनीतिक इज्जत नीलाम हो रही थी, तब आप कांग्रेसी केंद्र में भी सत्ता में थे और झारखंड में भी आपकी सरकार थी, आपने क्या किया? खरबूजा चाकू पर या चाकू खरबूजा पर. कटना तो खरबूजा को ही है. यह तो कांग्रेस जानती ही है. कांग्रेस प्रभारी अजय माकन ने तो राज्य के अंदर भ्रष्टाचार मिटाओ का सपना दिखाया था. पर अब?
झारखंड की राजनीति का मोलभाव, देश की राजनीति में हो रहा है और देश में राज करनेवाली कांग्रेस, इस खरीद-बेच संस्कृति को बढ़ावा देती नजर आ रही है. यूपीए या खासतौर से झामुमो या राजद के एक गुट द्वारा तीन प्रत्याशी मैदान में उतारे गये हैं. एक भाजपाई विधायक भी इसमें शामिल है. यूपीए की ओर से तीन हैं, परिमल नाथवाणी, आरके आनंद और किशोर लाल. अब इन तीनों में से ही किसी एक को चुनना, यूपीए की विवशता है. वह जिसे चाहे चुन ले.
परिमल नाथवाणी के प्रति यूपीए विधायकों का झुकाव है, तो यूपीए को खुला समर्थन घोषित करना चाहिए. एक समय में स्वतंत्र पार्टी थी. वह उद्यमियों-उद्योगपतियों को ही चुनाव मैदान में उतारती थी. उस पार्टी का ‘राजनीतिक दर्शन’ स्पष्ट था. उद्योग या पूंजी मॉडल से ही विकास या कायाकल्प संभव है. यह राजनीतिक लुका-छिपी या पाखंड क्यों? अगर परिमल नाथवाणी पर यूपीए सहमत नहीं है, तो आरके आनंद या किशोर लाल हैं. आरके आनंद, एक बार झारखंड से राज्यसभा सांसद रह चुके हैं, वह कौन सा चमत्कार करेंगे?
फिर भी यूपीए विधायकों को लगता है कि वही ‘आनंद’ के स्रोत हो सकते हैं, तो उन्हें बेहिचक प्रत्याशी बना लें. अगर दोनों पर सहमति नहीं है, तो अचानक अवतरित किशोर लाल हैं, ही. लेकिन यूपीए साफ-साफ जान ले, इन तीनों में से किसी एक का भी वरण राजनीतिक नफा-नुकसान की दृष्टि से यूपीए के लिए घाटे का सौदा है. लेकिन अब पछताये का होत, जब चिड़िया चुग गयी खेत. चुनावपूर्व स्थिति स्पष्ट न करना और विधायकों को बाजार में ठेल देने की कीमत तो दिवालिया बनना है. अब यूपीए तय करे कि न्यूनतम घाटे का सौदा लाभदायक है या दिवालिया होने की सौगात? उसके पास तीसरा विकल्प नहीं है.