!! बलभद्र!!
1996 में प्रभात खबर जब पटना से निकलना शुरू हुआ, लगभग तभी से मैं इस अखबार को जानता हूं. बिहार में रहते हुए प्रभात खबर पढ़ता भी रहा. मेरे और मेरे छोटे भाई के मित्र के अलावा कुछ परिचित भी इससे जुड़े हुए थे और अधिकतर आज भी जुड़े हुए हैं. उनकी वजह से भी इस अखबार से मेरा स्वाभाविक जुड़ाव बना. मेरे अधिकतर मित्र लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर हैं और उनकी यह पक्षधरता भी मुङो इस अखबार के करीब लायी. मुङो बिहार से बाहर लंबे समय तक रहना पड़ा. शोधकार्य के लिए बनारस जाने पर प्रभात खबर से थोड़ा दूर हुआ, लेकिन गांव और आरा जाने पर पुन: इसको पढ़ता और कुछ सामग्रियां काट कर रख लेता. लेकिन अब झारखंड में होने के कारण यह अखबार सहज रूप से उपलब्ध है और इसे लगातार पढ़ पाता हूं और आज भी कई चीजें सहेज कर रखता हूं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जाल-जंजाल वाले इस दौर में भी यह अखबार अपना महत्व और उपयोगिता बनाये हुए है.
साहित्य, राजनीति, समाज, खेल, प्रकृति और पर्यावरण, फिल्म, मनोरंजन से संबंधित विषयों पर कॉलम प्रकाशित होते रहते हैं. समसामायिक मुद्दों पर भी आधारित सामग्रियां प्रस्तुत की जाती हैं. ये सामग्रियां पठनीय, सारगर्भित, विषेणात्मक एवं तथ्यपरक होती हैं. इनके लेखक अनेक क्षेत्रों, विषयों, संस्थानों, मंचों एवं विचारों के होते हैं. किसी एक ही क्षेत्र, विषय, संस्थान, मंच एवं विचार को प्राथमिकता देने की बजाय यह अखबार अपने विभिन्न स्तंभों में अनेक को जगह देता है और एक लोकतांत्रिक माहौल एवं बहस तथा विचार-विमर्श के लिए स्पेस तैयार करता है.कुछ अखबार ऐसे हैं जो पुराने सामंती मूल्यों एवं एक ही तरह की वैचारिकी वाले लेखकों को ज्यादा स्पेस देते हैं और पुराने मूल्यों को आधुनिकता का जामा पहनाते हुए वे किसी खुली बहस की बजाय बहसों के निषेध की तरफदारी करते हैं. सामंती संस्कृति एवं बाजारवादी मूल्यों का रसायन तैयार करते हैं. ऐसे में प्रभात खबर के स्तंभों का अपना विशेष महत्व है.
ये स्तंभ कट्टरता, सांप्रदायिक सोच एवं जन विरोधी नीतियों एवं कार्य शैलियों की आलोचना प्रस्तुत करते हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों की तरफदारी करते हैं. ‘प्रभात खबर’ के स्तंभ- लेखकों में वे भी हैं जो समाजवादी हैं, वामपंथी हैं, पर्यावरणविद् हैं, खेल के जानकार हैं, फिल्मों के समीक्षक हैं, वे भी छपते हैं जो विभिन्न मुद्दों को लेकर आंदोलनरत हैं. वे भी छपते हैं जो अपनी सांप्रदायिक सोच के लिए जाने जाते हैं. गंभीर आर्थिक मुद्दों पर लेख होते हैं. विभिन्न क्षेत्रों, विषयों आदि से जुड़े व्यक्तियों के साक्षात्कार आदि भी होते हैं.इस तरह यह अखबार अपनी एक लोक तांत्रिक छवि बनाता है. इसके स्तंभ लेखकों में एक हैं रविभूषण जी, वे एक प्रख्यात आलोचक हैं और हिंदी के प्राध्यापक भी रह चुके हैं. लेकिन झारखंड और बिहार के बहुतेरे लोग जो ‘प्रभात खबर’ को पढ़ते-पलटते हैं, वे रविभूषण जी को अखबार के स्तंभकार के रूप में ज्यादा जानते हैं.
ये केवल साहित्य संबंधी संदर्भो एवं प्रश्नों को ही नहीं उठाते, बल्कि राजनीति, प्रकृति, समाज, संस्कृति एवं अर्थ से जुड़े मुद्दों पर भी टिप्पणियां करते हैं. मेरे अनेक मित्र इन स्तंभों को पढ़ते हैं और मिलने पर या फिर फोन के जरिये अपनी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं. लोकसभा चुनाव- 2014 के समय प्रकाशित उनका स्तंभ खूब पढ़ा गया, जिसमें उन्होंने मोदी और उनकी राजनीति पर टिप्पणी की है.
इसी तरह हिंदी की स्थिति को लेकर भी उनके विचार स्तंभों में दिखते हैं. बीच के पत्र पर यदा-कदा लंबे-लंबे ऐतिहासिक संदर्भो को समेटे आलेख भी प्रकाशित होते रहते हैं. ‘प्रभात खबर’ की साहित्य दृष्टि भी सराहनीय है. हिंदी, उर्दू, बंगला के साथ-साथ अन्य भारतीय एवं विदेशी भाषाओं की रचनाओं एवं रचनाकारों को भी इसमें जगह मिलती रहती है. कुछ साल पहले प्रभात खबर का दीपावली विशेषांक प्रख्यात आलोचक राम विलास शर्मा पर केंद्रित था. उसमें प्रकाशित चीजें काफी महत्व की थीं. रविभूषण जी ने उसका संपादन किया था.प्रभात खबर का विशेष वार्षिक आयोजन -दीपावली विशेषांक काफी महत्वपूर्ण होता है. अब तक इसके अनेक संग्रहणीय अंक आ चुके हैं. ‘प्रभात खबर’ को मूलत: झारखंड का अखबार माना जाता है. इसने अपने को झारखंड का होने को पूरी समझ के साथ सिद्ध किया है. इसने यह भी सिद्ध किया है कि झारखंड भारत का एक राज्य है और इसका संबंध देश-दुनिया के अन्य अनेक हिस्सों, क्षेत्रों, विषयों, संस्कृतियों एवं लोगों से भी है.
इसमें झारखंड की प्रकृति, संस्कृति एवं संघर्षशीलता को भी जगह मिलती है. उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा पर भी इसमें गंभीर विश्षणात्मक सामग्री प्रकाशित हुई थी. आम तौर पर माना जाता है कि अखबार तुरंत समाप्त हो जाते हैं, लेकिन उसकी कुछ सामग्रियां जब सहेज कर रखी जाने लायक हों तो बेशक वह अपनी एकदिनी होने की आम समझ को तोड़ता भी है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरह अखबार भी अब विज्ञापनों से भरे पड़े होने लगे हैं.प्रभात खबर थोड़ा इस तरफ ध्यान दे, नहीं तो अखबार में खबर है कि विज्ञापन है, कहना मुश्किल हो जायेगा. विज्ञापन आजकल खबरों से भी बढ़ कर रोचक होने लगे है. समझना मुश्किल होता जा रहा है कि खबरों में विज्ञापन है या विज्ञापन में खबर. अखबार आज भी आम आदमी की चीज है.गांव-गिरांव तक, चौक-चौपालों तक, हर जगह यह पहुंच रहा है. प्रभात खबर आम आदमी को लोकतांत्रिक एवं संघर्षशील बनाने की दिशा में काम करता रहे- यही मेरी कामना है.
(लेखक साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी व गिरिडीह महाविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक हैं.)