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स्कूल के मैदान से दूर होते जा रहे पारंपरिक खेल

छपरा(नगर) : आधुनिक दौर में देशी पारंपरिक खेलों के प्रति बच्चों का इंट्रेस्ट कम होते जा रहा है. एक समय था जब स्कूल के मैदानों में या गली-मोहल्ले के आसपास बच्चों की धमाचौकड़ी के बीच भारतीय पारंपरिक खेलों की झलक प्रायः देखने को मिल जाती थी. कभी लुकाछिपी, तो कभी डेंगपानी खेल कर बच्चे खूब […]

छपरा(नगर) : आधुनिक दौर में देशी पारंपरिक खेलों के प्रति बच्चों का इंट्रेस्ट कम होते जा रहा है. एक समय था जब स्कूल के मैदानों में या गली-मोहल्ले के आसपास बच्चों की धमाचौकड़ी के बीच भारतीय पारंपरिक खेलों की झलक प्रायः देखने को मिल जाती थी. कभी लुकाछिपी, तो कभी डेंगपानी खेल कर बच्चे खूब मस्ती किया करते थे.

वहीं स्कूल के मैदानों में ‘पटना से चिट्ठी आयी कभी देखा है’ और चोर सिपाही जैसे खेल भी शारीरिक व मानसिक विकास में अहम भूमिका निभाते थे. आज के दौर में क्रिकेट जैसे खेल का दबदबा काफी बढ़ गया है. मैदानों में भी अब देशी खेलों की जगह महंगे और आकर्षक खेलों का चलन बढ़ने लगा है. ऐसे में सारण के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में खेले जानेवाले कबड्डी, कुश्ती तथा खोखो जैसे सस्ते और लोकप्रिय खेलों का महत्व धीरे-धीरे कम होने लगा है.

शारीरिक व बौद्धिक क्षमता के विकास में पारंपरिक खेलों का अहम योगदान : खेल हम सभी के लिए न सिर्फ मनोरंजन का साधन है, बल्कि शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास के लिए भी खेल की अहमियत है. भारतीय परंपरा में दर्जनों ऐसे खेल हैं, जिनका सीधा संबंध शारीरिक व मानसिक विकास से है. इन खेलों में से कुछ ऐसे भी हैं,
जो सारण जिले में सैकड़ो वर्षों से लोकप्रिय रहे हैं. कबड्डी, खोखो, कुश्ती तथा गुल्ली-डंडा शारीरिक क्षमता के विकास में अहम हैं. वहीं बौद्धिक व मानसिक क्षमता के विकास के लिए महापुरुषों की लड़ी, लूडो, अंत्याक्षरी, वाक्य पहेली जैसे खेल महत्वपूर्ण रहे हैं. हालांकि आज के परिवेश में स्कूल के मैदान हों या घर का आंगन, हर जगह से यह खेल धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं. हाल के दिनों में कबड्डी के उत्थान और इसकी लोकप्रियता बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ स्थानीय खेल संघों द्वारा प्रयास जरूर किया गया है पर भारतीय संस्कृति से जुड़े अन्य खेलों के प्रति अधिकतर बच्चों में इंट्रेस्ट नहीं दिखता. आठ से दस वर्ष के बच्चों को तो पता ही नहीं की पारंपरिक खेल क्या होते हैं और पूर्व के दशकों में इसकी कितनी लोकप्रियता थी.
मैदानों का अभाव भी है एक कारण
बच्चों में पारंपरिक खेलों के प्रति इंट्रेस्ट कम होने के पीछे खेल मैदान का अभाव होना भी एक प्रमुख कारण हैं. ग्रामीण से लेकर शहरी क्षेत्रों में काफी तेजी से विकास होने लगा है. सड़कें, पुल-पुलिया, दुकानें और बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण गत पांच से दस वर्षों में बढ़ा है. ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में खेलने के लिए कुछ खाली जमीन मिल भी जाती है, पर शहरी क्षेत्र के मुहल्लों में ऐसी जगहों का अभाव है. बात अगर छपरा शहर की करें, तो दो चार को छोड़ अधिकतर स्कूलों के मैदान सिमटते जा रहे हैं.
प्रारंभिक विद्यालय हो या इंटर कॉलेज हर जगह खेल मैदान मेंटेनेंस के अभाव में बर्बाद हो रहे हैं. गर्ल्स हाइस्कूल, बी सेमिनरी, जिला स्कूल, राजपूत स्कूल, आर्य समाज स्कूल कुछ ऐसे प्रमुख नाम हैं, जहां के मैदानों का दायरा समय के साथ कम हो गया है. ऐसे में सवाल है कि स्कूल आनेवाले बच्चे अल्पाहार या खेल की घंटियों में खेले तो कहां खेले.
क्या कहते हैं प्रशिक्षक
बच्चों को क्रिकेट और बैडमिंटन के अलावा पारंपरिक खेलों के बारे में भी बताया जाता है. हालांकि इंटरनेट के इस दौर में शारीरिक विकास वाले खेलों के प्रति बच्चों का रुझान कुछ कम हुआ है, फिर भी हमारा प्रयास जारी है.
यशपाल सिंह, खेल प्रशिक्षक
घर का आंगन हो या स्कूल का मैदान सबके दायरे सिमट गये हैं. बच्चों को खुलकर खेलने में परेशानी होती है. हालांकि स्कूल स्तर पर खोखो और कबड्डी की प्रतिस्पर्धा आयोजित करायी जाती है. पारंपरिक खेल के प्रति छात्रों का रुझान बढ़ाना होगा.
पंकज चौहान , खेल प्रशिक्षक

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