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गांधी की राह हमारी जरूरत है, आज ही नहीं, कल के लिए भी
कुमार शुभमूर्ति गांधीवादी लेखक महात्मा गांधी कह गये कि मैं नहीं चाहता कि मेरे नाम पर कोई वाद खड़ा किया जाये. मैं तो एक रास्ते पर चल रहा हूं जो सत्य की राह है. यही मेरा रास्ता है. आज हमारा देश कई प्रकार के तनावों से गुजर रहा है. जाना माना हर बुद्धिजीवी यह कहता […]
कुमार शुभमूर्ति
गांधीवादी लेखक
महात्मा गांधी कह गये कि मैं नहीं चाहता कि मेरे नाम पर कोई वाद खड़ा किया जाये. मैं तो एक रास्ते पर चल रहा हूं जो सत्य की राह है. यही मेरा रास्ता है. आज हमारा देश कई प्रकार के तनावों से गुजर रहा है. जाना माना हर बुद्धिजीवी यह कहता पाया जाता है कि सच कहने में डर लगता है. सच कहने वाले प्रसिद्ध लोगों को सोशल मीडिया पर न जाने कैसी-कैसी गालियों की बौछार सहनी पड़ती है. यदि नौकरी में हैं तो नौकरी कब चली जायेगी, इसका डर बना रहता है. मुसलमान डरने लगे हैं. गाय पालना भी छोड़ने लगे हैं.
कई पीटे हैं, कुछ की हत्याएं हो चुकी है. कानून हतप्रभ है. रामजन्म भूमि और तीन तलाक की कुप्रथा जैसे सांस्कृतिक मुद्दों को इस तरह उभारा जा रहा है जैसे वे ही देश की असली समस्याएं हैं. मीडिया की साख कम होती जा रही है. बोलने में डर और खाने में भय का यह काला सांस्कृतिक पक्ष नया ही उभर कर आया है. लेकिन क्या इन समस्याओं का हल मात्र सत्ता परिवर्तन में छिपा है? क्या नीतियों को बदले बिना कुछ किया जा सकता है? देश की समस्याओं का हल खोजने के लिए आज जरूरी है कि हम मिलकर गांधी के रास्ते को पढ़ें, समझें और अपनाएं.
जब देश के विभाजन की आवाज उठनी शुरू हुई थी तब 1944 में जेल से छूटते ही गांधीजी ने विभाजन आंदोलन के नेता मोहम्मद अली जिन्ना से स्वयं जाकर वार्ता की थी. मुसलिम तुष्टीकरण का आरोप लगा था, जिन्ना का महत्व बढ़ जायेगा, लोगों ने यह डर भी दिखाया.
लेकिन विरोधी से सीधे संवाद की अहिंसक प्रक्रिया को उन्होंने आगे बढ़ाया. बंटवारे की मांग का समर्थन ब्रिटिश सत्ता ने यदि मजबूती के साथ न किया होता तो बंटवारा संभव नहीं था. यह बात सही है कि धर्म के नाम पर देश का बंटवारा रोकने में महात्मा गांधी सफल नहीं रहे. परंतु यह भी सच है कि उनके कारण ही बंटवारे के बावजूद स्वेच्छा से पलायन कर पाकिस्तान चले जाने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत कम रही.
आज सेकुलर लोग और संगठन ही नहीं स्वयं प्रधानमंत्री भी यह घोषणा गर्व के साथ करते हैं कि भारत में मुसलमानों की संख्या पाकिस्तान से भी ज्यादा है. पाकिस्तान के हालात देख भारतीय मुसलमान भी अपने को भाग्यशाली ही मान रहे हैं. क्या विरोधी से सीधे संवाद की नीति हम कश्मीर पर लागू नहीं कर सकते? वार्ता की शुरुआत उच्च स्तरीय प्रशासकों के माध्यम से नहीं, जैसा कि प्रचलन है, बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री और सत्ता तथा विपक्ष के मूर्धन्य नेताओं की तरफ से की जानी चाहिए. जाहिर है कि यह संवाद दिखावे के लिए नहीं तहे दिल से किया जाये. ईमानदार संवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका परिणाम एक बेहतर स्थित ही होती है.
इस संवाद में भी गांधी हमारे काम आयेंगे. गांधी के कारण जब मुसलमान पाकिस्तान बनने के बावजूद भारत में ही रह गये तो आज इसलाम के नाम पर भारत से अलग होने का तर्क ही समाप्त हो गया है.
लोकनायक जयप्रकाश के बिहार आंदोलन का एक लोकप्रिय नारा था सच कहना अगर बगावत है तो, समझो हम भी बागी हैं. इस नारे में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की आत्मा झलकती है. जिस दिन, सच कहने में जिन्हें डर लगता है अपने को बागी घोषित कर सच कहने लगेंगे, उस दिन यह डर तो भाग ही जायेगा. सरकार को भी डराने की हिम्मत नहीं होगी. अभी भी समय है कहीं बहुत देर न हो जाये आज की अन्य ज्वलंत समस्याएं हैं, भ्रष्टाचार, भ्रष्ट शिक्षा, भ्रष्ट राजनीति आदि. वास्तव में ये सब आज के विकास की गलत नीति पर आधारित हैं.
समानता और सहकार के मूल्यों से कटा हुआ कोई भी विकास आज के विज्ञान युग में समस्याएं ही पैदा करेगा. माओ के देश में माओवाद अपनी तार्किक परिणति, क्रोनी पूंजीवाद तक पहुंच गया है. भारत का माओवाद मूर्खतापूर्ण विकासनीति का मूर्खतापूर्ण विरोध मात्र है. कम-से-कम उन आदिवासी इलाकों के लिए सरकार यदि गांधी जी के ग्राम-गणराज्यों की परिकल्पना को स्वीकार कर ले, जिसमें उन गांव की स्वायत्तता अनिवार्यतः शामिल है, तो आज भी आदिवासियों और उनकी संस्कृति में इतना दम और बुद्धि है कि वे बाहरी दुनिया के साथ तालमेल बैठा कर अपना बेहतरीन विकास कर सकते हैं. यह दूसरों के लिए भी अनुकरणीय होगा.
हमें इस बात को समझना ही होगा कि सच्चाई की राह पर चलने वाले गांधी ने हमारे लिए जो रास्ते बनाये हैं वे हमारी जरूरत हैं, कल के लिए नहीं आज ही तत्काल जरूरी हैं.
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