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19वीं सदी में ब्लू गोल्ड माना जाता था हिंदुस्तानी नील
पुष्यमित्र वैसे तो चंपारण के आंदोलन में गांधी से लेकर राजकुमार शुक्ल तक कई किरदार हैं, मगर सबसे महत्वपूर्ण किरदार है नील. वह व्यापारिक फसल जिसे 19वीं सदी में ब्लू गोल्ड की उपमा दी गयी थी, जिसकी वजह से इस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने आराम भरी नौकरी छोड़कर नील की खेती शुरू कर दी. […]
पुष्यमित्र
वैसे तो चंपारण के आंदोलन में गांधी से लेकर राजकुमार शुक्ल तक कई किरदार हैं, मगर सबसे महत्वपूर्ण किरदार है नील. वह व्यापारिक फसल जिसे 19वीं सदी में ब्लू गोल्ड की उपमा दी गयी थी, जिसकी वजह से इस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने आराम भरी नौकरी छोड़कर नील की खेती शुरू कर दी. भारत ने दुनिया को जो कुछ बेशकीमती तोहफे दिये हैं, उनमें से एक प्राकृतिक नीला रंग नील भी है.
आपको यह जानकर हैरत होगी कि 16वीं शताब्दी से पहले तक जब तक यूरोपियन भारत नहीं आये थे, बाहरी दुनिया के लोगों को नीला रंग तैयार करना नहीं आता था. जब ब्रिटिश पहली दफा सूरत के बंदरगाह पर उतरे, तो उन्होंने दो महीने के अंदर नील की कई पेटियां यूरोप भेजी. जबकि, भारतवासी सदियों पहले से इस रंग को बनाने की विधि जानते थे. उन्हें नील के पौधे की पहचान थी और उसे परिशोधित करने का तरीका भी आता था.
16वीं सदी के बाद ब्रिटिशरों, पुर्तगालियों और फ्रांसीसियों ने भारत से भारी मात्रा में नील यूरोप भेजना शुरू किया. नील वहां इतना फेमस हो गया कि इसे इंडिया के नाम इंडिगो का नाम दे दिया गया. मगर इन व्यापारियों ने काफी वक़्त तक यह जाहिर नहीं होने दिया कि नील बनता कैसे है. हालात ये हो गये थे कि जर्मनों को यह लगने लगा कि नील एक खनिज पदार्थ है और वहां की सरकार ने नील की खुदाई भी की.
बहरहाल बाद के दिनों में यूरोप के कई मुल्कों में नील उगाने की कोशिशें हुईं. 1896 में जब जर्मनों ने कृत्रिम नील तैयार कर लिया, तो प्राकृतिक नील की मांग भी घटने लगी थी. फिर प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ. जर्मनी से कृत्रिम नील आना बंद हो गया. भारतीय नील की कीमत फिर से आसमान छूने लगी. मगर यह कुछ ही सालों की बात थी. उधर युद्ध बंद हुआ इधर गांधी चंपारण पहुंचे.
अंततः नील की खेती और प्राकृतिक नीला रंग बनाने का भारतीय तरीका इतिहास बन गया. हालांकि, आज जब इस बात को 100 साल पूरे होनेवाले हैं, एक बार फिर से प्राकृतिक नीले रंग और नेचुरल डेनिम की मांग बढ़ने लगी है. वहीं, जर्मनी जिसने आर्टिफिशियल इंडिगो बना कर दुनिया को रासायनिक रंगों का आदी बनाया था, उसने अपने देश में रासायनिक रंगों को बैन कर दिया. दूसरे यूरोपीय मुल्क भी उसी नक्शे कदम पर हैं. ऐसे में इंडिगो की मांग फिर से बढ़ने लगी है. इस रंग की मांग हेयर डाय मार्केट में भी हैं.
वहां भी अब केमिकल रंगों को पसंद नहीं किया जा रहा. दक्षिण भारत के कई इलाकों में नील की खेती फिर से होने लगी है. कुछ साल पहले बिहार के मुजफ्फरपुर के एक सज्जन ने भी यहां नील उगाने और प्राकृतिक नीला रंग तैयार करने की कोशिश की थी. मगर उन्हें सफलता नहीं मिली. मगर हो सकता है कोई और सफलहो जाये.
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