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सारण-वैशाली में एक नया ”नोएडा” बनने की संभावना

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक पटना महानगर के लिए मास्टर प्लान को मंजूरी मिल रही है. पर पास के सारण-वैशाली जिलों की सुध नहीं ली जा रही है, जबकि गंगा पार के इन इलाकों में एक नया ‘नोएडा’ बनने की संभावनाएं हैं. अभी से ही सारण जिले के कुछ इलाकों में निजी प्रयासों से विकास के […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
पटना महानगर के लिए मास्टर प्लान को मंजूरी मिल रही है. पर पास के सारण-वैशाली जिलों की सुध नहीं ली जा रही है, जबकि गंगा पार के इन इलाकों में एक नया ‘नोएडा’ बनने की संभावनाएं हैं. अभी से ही सारण जिले के कुछ इलाकों में निजी प्रयासों से विकास के काम शुरू भी हो चुके हैं.
पर वह बेतरतीब विकास ही है. राज्य सरकार यदि शीघ्र व्यवस्थित विकास के काम शुरू नहीं कर देगी तो गंगा पार के लिए देर हो जायेगी. जरा उन दिनों की कल्पना कीजिये जब दीघा-पहलेजा पुल पर सड़क मार्ग भी चालू हो जायेगा. जब गांधी सेतु के जीर्णोद्धार का काम पूरा हो जायेगा. निर्माणाधीन बबुरा-डोरी गंज पुल और प्रस्तावित बख्तियार पुर-बिदु पुर पुल भी पटना से बहुत दूर नहीं होंगे. पटना की चारों ओर रिंग रोड का भी प्रस्ताव है. प्रस्तावित रिंग रोड सारण और वैशाली जिलों के कुछ इलाकों को भी समेटेगा. गंगा पर बड़े पुलों के बन जाने के बाद अनेक लोग बिहटा की जगह पहलेजा घाट के आसपास बसना चाहेंगे. हाजीपुर पटना के उपमहानगर का स्वरूप धारण कर सकता है.
सोनपुर अंचल और आसपास के इलाकों का तेज विकास होगा. वहां जमीन की उपलब्धतता अपेक्षाकृत अधिक है. यदि कानून-व्यवस्था ठीक रही तो गंगा पार औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित हो सकता है. इन बातों और संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए पहलेजा-सोनपुर-हाजीपुर इलाकों के सुनियोजित विकास के बारे में भी राज्य सरकार को अभी से सोचना चाहिए. यदि सरकार सुव्यवस्थित विकास नहीं करेगी तो निजी प्रयासों से अव्यवस्थित विकास ही होंगे. जैसा पटना और उसके आसपास के इलाकों में हो रहे हैं. विकास को विवाद का मुद्दा न बनायें. सारण और वैशाली जिले में प्रस्तावित छह रोड ओवरब्रिज राजनीतिक विवाद का मुद्दा बने हुए हैं. संभव है कि सत्ताधारी दल के कुछ प्रमुख नेताओं के चुनाव क्षेत्र होने के कारण सरकार इसके शीघ्र निर्माण पर जोर दे रही है.
पर, यह कोई नयी या अनोखी बात भी नहीं है. पर इन प्रस्तावित ऊपरी पथों का शीघ्र निर्माण अन्य कारणों से भी जरूरी है. फतुहा से लेकर बिहटा तक का भू-भाग पटना महानगर का हिस्सा बन रहा है. इसके लिए तैयार मास्टर प्लान को अंतिम रूप दिया जा रहा है. गंगा किनारे बसे पटना महानगर के ठीक उस पार वाले सारे उत्तरी इलाके का देर-सवेर विकास होना ही है. ऊपरी पथ विकास का ही एक जरूरी हिस्सा है. यह सिर्फ चुनावी राजनीति का ही हिस्सा नहीं है. उधर, बबुरा-डोरी गंज पुल तथा दीघा-पहलेजा रोड ब्रिज तैयार होने को है. इन दोनों पुलों को छपरा-सोनपुर एनएच जोड़ती है.
उस एनएच पर स्थित रेलवे क्रासिंग पर ओवरब्रिज बनाना वर्षों से बहुत जरूरी माना जाता रहा है. वैसे भी सारण आर्थिक रूप से पिछड़ा जिला है. अविभाजित सारण जिला मनीऑर्डर इकोनॉमी वाला जिला माना जाता रहा. उस जिले में आवागमन के साधन बढ़ेंगे तो उस इलाके को विकसित करने में सुविधा होगी. वैसे भी सारण और हाजीपुर के सांसद राजग के ही तो हैं. विकास का श्रेय वे भी ले ही सकते हैं.
कभी बनना था बेरोजगारमुक्त जिला: सन 1990 में जब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने थे तो उनके दल जनता दल को विधानसभा में बहुमत हासिल नहीं था. लालू सरकार भाजपा के समर्थन से चल रही थी जिस तरह केंद्र की वीपी सरकार को भाजपा का समर्थन हासिल था.
1990 में ही लालू प्रसाद ने सारण जिले को बेरोजगारमुक्त जिला बनाने के अपने निर्णय की घोषणा की. बेरोजगारों से आवेदन पत्र मांगे गये. इस बीच मंडल आरक्षण विवाद शुरू हो गया और लालू सरकार की प्राथमिकता बदल गयी. सारण जिला तब भी लालू प्रसाद का राजनीतिक क्षेत्र था. पर भाजपा ने बेरोजगार मुक्त जिला बनाने के निर्णय का तब विरोध नहीं किया था. क्योंकि तब भाजपा भी उस जिले के पिछड़ापन से परिचित थी. फिर ओवरब्रिज बनाने का अब विरोध क्यों?
दलों में मारकाट घाटे का सौदा : पश्चिम बंगाल के एक विधानसभा और दो लोकसभा क्षेत्रों में 19 नवंबर को उपचुनाव होने वाले हैं. कांग्रेस और सीपीएम ने विधानसभा का गत आम चुनाव मिलकर लड़ा था. पर इन दलों को इसका कोई खास लाभ नहीं मिला था. इसका सबसे बड़ा कारण तृणमूल स्तर पर इन दोनों दलों में आपसी तालमेल की भारी कमी रही. बल्कि वर्षों से दोनों के बीच शत्रुता का भाव ही रहा.
नतीजतन एक दल के समर्थकों ने दूसरे दल के उम्मीदवार की पूरे मन से मदद नहीं की. याद रहे कि पिछले दशकों में कांग्रेस और सीपीएम के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें होती रही थी. उस कारण आपसी कटुता अब भी है. आने वाले उपचुनावों के लिए सीपीएम और कांग्रेस के बीच कोई तालमेल नहीं होने वाला है. इसका लाभ तृणमूल कांग्रेस को मिल जा सकता है. पश्चिम बंगाल की इस घटना से देश के दूसरे हिस्से के राजनीतिक दलों को भी शिक्षा लेनी चाहिए. वे आपस में मारकाट तो नहीं करें. अन्यथा, कभी मिलकर चुनाव लड़ने की नौबत आ गयी तो उससे भी उन्हें कोई चुनावी लाभ नहीं मिल सकेगा. बसपा और सपा तथा द्रमुक और अद्रमुक ऐसे ही आपसी शत्रुता के भाव वाले दल हैं.
अमर का प्रयास अधूरा : अपने भाई जैसा बताते हुए मुलायम सिंह यादव ने गत सोमवार को कहा कि ‘यदि अमर सिंह यहां नहीं होते तो मैं जेल में होता. उन्होंने मेरी बहुत मदद की. अखिलेश तुम अमर सिंह को गाली देते हो?’ अमर सिंह ने सचमुच मुलायम की मदद की थी. कहते हैं कि उन्होंने मनमोहन सरकार से कह कर सीबीआइ को मुलायम के प्रति नरम करवा दिया था. विश्वनाथ चतुर्वेदी की लोकहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने मुलायम परिवार के खिलाफ जायज आय से अधिक संपत्ति रखने के आरोप की प्रारंभिक जांच करने का आदेश दिया था. मई, 2007 में सीबीआइ ने अदालत से कहा कि पहली नजर में केस बनता है.
पर अमर सिंह की करामात के बाद सीबीआइ ने सितंबर, 2013 में कोर्ट से कह दिया कि सबूत के अभाव में वह केस बंद कर रहा है. याद रहे कि उन दिनों सीबीआइ को केंद्र सरकार का तोता कहा जाता था. पर ताजा खबर यह है कि सीबीआइ ने उस केस को आज तक बंद नहीं किया.
न ही इसकी कोई सूचना जांच एजेंसी ने कोर्ट को दी. यानी अमर सिंह का प्रयास तब अधूरा ही रहा. क्या केंद्र की मौजूदा सरकार भी सीबीआइ का इस्तेमाल अपने तोते के रूप में ही करना चाहती है? वैसे यह जान लेना दिलचस्प होगा कि सीबीआइ के 2007 के रुख में 2013 में आकर बदलाव क्यों आ गया? दरअसल इस बीच 2008 में वाम दलों ने भारत-अमेरिका परमाणु सौदे के विरोध में मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया. तब 39 सांसदों वाले मुलायम सिंह मनमोहन सरकार के काम आये. अमर सिंह ने उसी समय अपनी भूमिका निभायी. तोते का बोल उसी कारण बदल गया. पर जब तक सीबीआइ केस में क्लोजर रिपोर्ट अदालत में नहीं लगाती है, तब तक मुलायम और उनके परिवार के कुछ सदस्यों पर तलवार लटकती रहेगी.
और अंत में : इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टॉक शो में जब तीन या चार अतिथि एक साथ जोर-जोर से बोलने लगते हैं और उनमें से कोई वाचाल एंकर की बात नहीं मानता तो कई दर्शक उदास मन से चैनल बदल देते हैं. क्योंकि दर्शकों को कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता. क्या दर्शकों की इस पीड़ा की खबर एंकर को रहती है? यदि रहती है कि एंकर ऐसे बकवादी अतिथियों की माइक डाउन क्यों नहीं करते? जो चैनल ऐसा करने लगेगा, उसका टीआरपी बढ़ सकता है.

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