7.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

87.22 करोड़ का पुल, 150.96 करोड़ मरम्मत पर खर्च अब सुपर स्ट्रक्चर बदलने के लिए लगेंगे 1388 करोड़

34 सालों के सफर में ही थक गया उत्तर बिहार को शेष बिहार से जोड़नेवाला महात्मा गांधी सेतु अनुपम कुमार वर्ष 1969 में गांधी सेतु के निर्माण की योजना बनी और तीन साल बाद इसका निर्माण शुरू हुआ. पुल के निर्माण के लिए कैंटलीवर तकनीक का इस्तेमाल किया गया, क्योंकि उसमें इस्पात की कम जरूरत […]

34 सालों के सफर में ही थक गया उत्तर बिहार को शेष बिहार से जोड़नेवाला महात्मा गांधी सेतु

अनुपम कुमार

वर्ष 1969 में गांधी सेतु के निर्माण की योजना बनी और तीन साल बाद इसका निर्माण शुरू हुआ. पुल के निर्माण के लिए कैंटलीवर तकनीक का इस्तेमाल किया गया, क्योंकि उसमें इस्पात की कम जरूरत पड़ती थी. इसके कारण 87.22 करोड़ में पूरा पुल बन गया और इस्पात के कम खपत ही वजह से कुछ करोड़ रुपये बच गये. लेकिन पुल बनने के बाद कुछ वर्षों के भीतर ही स्पष्ट हो गया कि नई तकनीक परंपरागत तकनीक की तरह टिकाऊ नहीं है.

100 वर्ष की आयु वाले पुल में 20 वर्षों के भीतर ही दरारें अौर टूट-फूट दिखने लगे. उसके बाद छिटपुट मरम्मत का दौर शुरू हुआ, जो अब तक चल रहा है. 2001 से 2016 तक इस पर 150.96 करोड़ खर्च हो चुके हैं. यह भी स्पष्ट हो चुका है कि छिटपुट मरम्मत कार्य से पुल को अधिक दिनों तक आवागमन के लायक नहीं रखा जा सकता है. पूरे पुल के सुपर स्ट्रक्चर को बदलना ही एकमात्र उपाय है, जिस पर 1388 करोड़ खर्च करने होंगे. इस प्रकार कुछ करोड़ का स्टील बचाने के लिये अपनायी गयी तकनीक के कारण आज मरम्मत पर कई साै करोड़ खर्च करने पड़ रहे हैं.

तने धनुष जैसा बना सुपर स्ट्रक्चर

गांधी सेतु बैलेंस कैंटलीवर तकनीक से बना पुल है. इसका निर्माण प्री स्ट्रेस स्टील केबल्स से हुआ है. इसमें दो पिलर के बीच में कई केबल्स लगे होते हैं, जिन्हें पूरी तरह तान दिया जाता है. उनके ऊपर स्पैन का पूरा लोड रहता है. पुल में लगे सारे केबल इनटर्नल हैं, जो कंक्रीट के भीतर से गुजरने के कारण दिखाई नहीं देते हैं. हर डेक में सामान्यत: एक मोटा और नौ पतला केबल होता है. डेक के वजन के अनुसार इनकी संख्या घट बढ़ भी सकती है.

तने केबल्स पर स्थित होने के कारण पूरा सुपर स्ट्रक्चर तने धनुष पर स्थित प्रतीत होता है. पतले केबल्स के अधिक इस्तेमाल के कारण इस तकनीक में इस्पात की कम खपत होती है. इस वजह से अन्य तकनीक की तुलना में यह सस्ती है. वाइब्रेशन में सक्षम होने के कारण वाहनों का दबाव भी इस तकनीक में निर्मित पुल अधिक सह सकती है. इसमें लंबे लंबे स्पैन बनाना भी आसानी से संभव है. लेकिन इन खूबियों के साथ साथ कई ऐसी बड़ी कमियां भी इस तकनीक में थी, जिसके कारण वह असफल हो गयी.

एक दिन में 55000 वाहन

जिस समय गांधी सेतु का निर्माण किया गया, सड़क पर चलने वाले वाहनों की संख्या सीमित थी. अगले तीस चालीस वर्षों में जिस रफ्तार से इसमें वृद्धि का अनुमान लगाया गया, उससे कई गुणा अधिक तेजी से वाहनों की संख्या में वृद्धि हुई है. यही कारण है कि जितने वाहनों का अनुमान सौ साल में इस पुल से गुजरने का लगाया गया उससे अधिक वाहन बीस वर्षों से भी कम समय में इससे पार कर गये. इन दिनों हर दिन इससे होकर 55 हजार वाहन गुजरते हैं. इसमें 14 हजार ट्रक और भारी मालवाहक वाहन होते हैं.

ओवरलोडिंग खा गयी

वाहनों की अधिक संख्या के साथ साथ ओवरलोडिंग से भी गांधी सेतु को बहुत नुकसान पहुंचा है. सबसे अधिक ओवरलोडिंग बालू के ट्रक और ट्रैक्टर पर होती है. हर दिन गांधी सेतु से ऐसे हजारों ट्रक और ट्रैक्टर गुजरते हैं, जिन पर क्षमता से अधिक बालू लदा होता है. कोयला ओवरलोडिंग वाले ट्रक भी सैकड़ों होते हैं. पिछले कुछ दिनों से छह चक्के से अधिक बड़े वाहनों के पुल से होकर गुजरने पर रोक लगा है. उससे पहले तक गांधी सेतु से गुजरने वाले वाहनों में 10 चक्का या उससे अधिक वाले भारी ट्रकों की बहुलता होती थी. कोई भी पुल या सड़क एक खास भार वहन क्षमता को ध्यान में रखकर बनायी जाती है. उससे अधिक भारी वाहन के गुजरने पर उनको नुकसान पहुंचना स्वाभाविक है.

जाम से बढ़ा डेड लोड

गांधी सेतु में समय से पहले टूट-फूट के लिए उसपर बार बार होनेवाले जाम भी जिम्मेवार है. जब पुल पर वाहन चलती हुई स्थिति में होता है तो उसका वजन (लाइव लोड) पुल के एक बड़े हिस्से में एकरूपता से बंट जाता है. इससे किसी एक हिस्से को अधिक दबाव नहीं झेलना पड़ता, लेकिन जाम की स्थिति में वाहन पुल पर रुक जाते हैं. इसके कारण उनका पूरा वजन (डेड लोड) एक छोटे क्षेत्र पर एकीकृत होकर पड़ने लगता है, जिससे संबंधित हिस्से की अधिक घिसावट होती है. कई बार तो ऐसे जाम घंटों झेलने पड़ते हैं, जिससे दबाव बहुत अधिक बढ़ जाता है.

केबल से नहीं संभाला

क्षमता से इतने अधिक संख्या में वाहनों के गुजरने, ओवरलोडिंग और बार बार होनेवाले जाम की वजह से गांधी सेतु का लोड अनुमानित लोड से बहुत अधिक बढ़ गया. उसे इस्पात केबल्स अधिक दिनों तक नहीं संभाल पाये. समस्या तब सामने आयी, जब उनका प्री स्ट्रेस घटने लगा. धीरे धीरे वह इतना घट गया कि

केबल्स जगह जगह से टूटने और ढीले पड़ने लगे. इसके कारण उन पर टिका डेक भी जगह से हिलने लगा और उसमें दरारें दिखने लगीं. पुल का स्पैन ज्वाइंट (जोड़) भी कई जगह टूट कर लटक गया और हिंज बेयरिंग्स की खराबी ने पुल में कहीं-कहीं दो-ढाई फुट तक की दरारें पैदा कर दीं.

असफल रही तकनीक

कैंटलीवर तकनीक पर भारत में कम पुलों का ही निर्माण हुआ है, लेकिन यह तकनीक कहीं भी सफल नहीं रही है. ज्यादातर पुल नष्ट हो चुके हैं. मात्र दो

पुल बचे हैं. इसमें एक पटना में जबकि दूसरी गोवा में है. गांधी सेतु इस तकनीक से निर्मित एकमात्र पुल है, जाे इन

दिनों भी भारी वाहनों के आवागमन में इस्तेमाल की जाती है. गोवा का पुल काफी पहले ही भारी वाहनों के लिए बंद किया जा चुका है.

नहीं अलग ट्रैफिक थाना

कुछ महीने पहले राज्य सरकार ने गांधी सेतु नाम से नया ट्रैफिक थाना बनाने का फैसला लिया था. गांधी सेतु थाना में 300 जवानों की तैनाती होनी थी जो फतुहा से लेकर संपतचक और सोनपुर-महुआ के बीच वाहनों को नियंत्रित कर चलाने का काम करते. वैशाली छोर की तरफ पुल से थोड़ी दूर पर उनके लिए बैरक बनना था, लेकिन अब तक ये निर्णय व्यवहार में नहीं आये हैं.

गांधी सेतु पर ट्रैफिक रेगुलेशन का काम जीरो माइल थाना कर रही है. वहां 300 पुलिसकर्मियों की बजाय 130 पुलिसकर्मी ही हैं, जिनमें 60 पुलिसकर्मी थाना के ओर 70 पुलिसकर्मी बीएमपी के हैं. उनके लिए योजना अनुसार बैरक भी नहीं बने हैं. सेतु पर तीन जगहों पर अस्थायी पोस्ट बनना था और वहां 24 घंटे पुलिस अफसर की तैनाती होनी थी. पुल पर तैनात पुलिसकर्मियों को वायरलेस सेट से लैस करना था.

पुल पर जाम लगने की एक बड़ी वजह भारी वाहनों का खराब होना या ट्रकों का गुल्लक टूटना है. इनको तुरंत हटाने के लिए एक अलग क्रेन की व्यवस्था की जानी थी. मरम्मत वाले भाग में वाहनों के सिंगल लेन में चलाने को लेकर डिवाइडर लगाने का निर्णय लिया गया था ताकि वाहनों को एक लेन में रख कर सुरक्षित परिचालन किया जा सके. मगर इन सब निर्णय को अभी तक पूरी तरह अमल में नहीं लाया जा सका है.

पुल पर रोशनी नहीं

गांधी सेतु पर पिछले कई वर्षों से अंधेरा छाया रहता है. ऐसा नहीं कि इस पर स्ट्रीट लैंप नहीं लगे हैं या वे जलने की स्थिति में नहीं हैं, बल्कि इसकी वजह बिजली बिल का भुगतान नहीं होना है.

कुछ वर्ष पहले तक एक प्रचार कंपनी को पुल के बिजली के खंभे पर अपनी होर्डिंग और डिसप्ले बोर्ड लगाने का अधिकार दिया गया था. इसके एवज में वह लाइटिंग व्यवस्था का रखरखाव और बिजली बिल का भुगतान करती थी. जब तक उस कंपनी का अनुबंध था, पुल पर लाइट जलती थी. लेकिन अनुबंध समाप्त होने के बाद दुबारा नहीं जली. पिछले वर्ष जल्द ही सेतु पर प्रकाश की व्यवस्था करने की बात की जा रही है, लेकिन अभी तक इस दिशा में कुछ नहीं हुआ है. पूरा पुल अंधेरा में डूबा रहता है. इसपर तैनात पुलिसकर्मियों को भी वाहनों की लाइट और टार्च की रोशनी के भरोसे काम चलाना पड़ता है.

मीडियन प्वाइंट खाली

सेतु पर जाम से निबटने के लिए मीडियन प्वाइंट चिह्नित किया जाना था. खासकर ऐसे प्वाइंट पर, जहां ट्रैफिक वन वे होती है. चिह्नित मीडियन प्वाइंट पर प्रत्येक पाली में एक पदाधिकारी व दो जवानों की तैनाती होनी थी और उन्हें मोटरसाइकिल व वायरलेस सेट दोनों उपलब्ध कराया जाना था. ट्रैफिक जाम की स्थिति में इससे पुलिसकर्मियों को यातायात नियंत्रण में सुविधा होती. लेकिन इन निर्देशों का भी ठीक से पालन नहीं हुआ है. कई मीडियन प्वाइंट अभी भी खाली दिख रहे हैं.

ट्रैफिक वेय अधूरा

जाम की स्थिति में सेतु पर ट्रैफिक के लोड को कम करने के लिए दीदारगंज पुलिस चेक पोस्ट के पास ट्रैफिक वेय बनाया जाना था और वहां पीक आवर में भारी मालवाहक वाहनों के पार्किंग की व्यवस्था होनी थी. अनिसाबाद मोड़ से पटना जीरो माइल के बीच भी ट्रैफिक वेय बनाया जाना था, ताकि जरूरत पड़ने पर दानापुर, खगौल, फुलवारीशरीफ और पटना शहर की तरफ से अनिसाबाद बाइपास मोड़ होते हुए जीरो माइल की ओर आने वाले भारी मालवाहक वाहनों को पार्क किया जा सके.

इसी तरह हाजीपुर की ओर आने वाले वाहनों के पीक आवर में परिचालन को रोकने के लिए सोनपुर गंडक पुल के पहले, मुजफ्फरपुर की तरफ से आने वाले वाहनों के लिए वैशाली पुलिस लाइन से पहले, महुआ की ओर आने वाले वाहनों के लिए महुआ रोड में, जंदाहा की ओर से आने वालों के लिए रामाशीष चौक से जंदाहा की ओर जाने वाले सड़क के किनारे अलग-अगल ट्रैफिक वेय बनाया जाना था, लेकिन अबतक इन सब कार्यों को पूरा नहीं किया जा सका है.

सड़क पर ही पार्किंग

बीच सड़क पर गाड़ी रोक कर यात्रियों को उतारने व चढ़ाने से लगने वाले जाम से गांधी सेतु को बचाने के लिए इसके दोनों तरफ पार्किंग क्षेत्र चिह्नित करना था, जिसका यात्रियों को उतारने व चढ़ाने के लिए उपयोग होना था. चिह्नित पार्किंग क्षेत्र के अतिरिक्त कहीं भी वाहन को यात्रियों को चढ़ाने व उतारने के रोकने पर प्रतिबंध लगाने की बात थी, लेकिन इसका पालन होते नहीं दिख रहा. चिह्नित जगह के अलावा भी गाड़ी रुकती हैं और यात्रियों को चढ़ाते-उतारते हैं और उन पर कार्रवाई नहीं होती.

ट्रैफिक दबाव को कम करने की योजना

गांधी सेतु के समानांतर नया पुल

गांधी सेतु के समानांतर नया पुल बनाने को लेकर जून 2012 में ही सैद्धांतिक सहमति मिल चुकी है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तत्कालीन केंद्रीय पथ परिवहन मंत्री सीपी जोशी की मुलाकात में इस निर्णय पर मुहर लगी थी. इस पुल को प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप के तहत पांच से छह साल में तैयार किये जाने पर सहमति हुई थी. लेकिन अब तक मामला बहुत आगे बढ़ नहीं पाया है.

सेतु की दोनों ओर पीपा पुल का निर्माण

गांधी सेतु पर होने वाले जाम को देखते हुए विकल्प के तौर पर राज्य सरकार ने इसके दोनों ओर पीपा पुल बनाने का काम धीमा है. एक ओर के पीपा पुल के दिसंबर में शुरू होने का अनुमान है. इस पुल के बनने पर हल्के वाहनों को नदी पार कराने में मदद मिलेगी और सेतु पर वाहनों का दबाव कम होगा.

कार्गो शिप के सहारे बालू की ढुलाई

सेतु से बालू ढुलाई करने वाले कई वाहन आते-जाते हैं, जो जाम की बड़ी वजह हैं. इससे निबटने की पहल के तौर पर प्राइवेट कार्गो शिप की चर्चा शुरू हुई थी. राजनंदनी प्रोजेक्ट प्राइवेट लिमिटेड ने पहल करते हुए कोलकाता से भाड़े पर जाकिर हुसैन नामक विशाल कार्गो शिप मंगवाया था. इस शिप की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह कम पानी में भी चल सकती है. इससे एक साथ बालू लदे 16 ट्रकों को गंगा पार कराया जा सकता था. इसके लिए गायघाट व हाजीपुर में गंगा तट पर जेटी का निर्माण शुरू हुआ, लेकिन इसको भी अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी है.

2001 से ही शुरू हो गयी खराबी

2001 आते आते स्थिति इतनी खराब हो गयी कि गांधी सेतु का मरम्मत अनिवार्य हो गया. उसके बाद से यह काम लगातार जारी है. पिछले 15 वर्षों के दौरान इस पर 150.96 करोड़ खर्च हो चुके हैं. सबसे अधिक केबल के ढीले पड़ने की समस्या सामने आयी है. लिहाजा प्री स्ट्रेसिंग का काम सबसे अधिक हुआ है. पुल की मूल बनावट में इंटर्नल प्री स्ट्रेसिंग किया गया है, जबकि मरम्मत के दौरान इस काम को बाहर से (एक्सटर्नली) किया गया है. स्पैन के एक्सटेंशन ज्वाइंट की मरम्मत और सेंट्रल हिज बेयरिंग को बदलने का काम भी कई बार हुआ है.

पिलर पूरी तरह दुरुस्त

आइआइटी रुड़की के इंजीनियरों ने बिहार सरकार के आग्रह पर पुल का निरीक्षण किया. पुल के पिलर के ताकत का भी उन्होंने परीक्षण किया. कुछ छोटे छोटे परीक्षण अभी भी चल रहे हैं.

हालांकि अब तक हुए बड़े परीक्षणों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पुल के पिलर पूरी तरह मजबूत हैं और अभी लंबे समय तक इस्तेमाल के लायक है. साथ ही परीक्षण में यह भी सामने आया कि जितना भार अभी ये वहन कर रहे हैं, उससे भी अधिक भार वहन कर सकते हैं.

लिहाजा अगले 50-60 साल में गाड़ियों की संख्या में होने वाली वृद्धि का लोड भी ये ले सकते हैं. पुल का सब स्ट्रक्चर भी दुरुस्त है और भारवहन में पूरी तरह सक्षम है. समस्या सिर्फ सुपर स्ट्रक्चर में है. लिहाजा विशेषज्ञ दल ने पूरा सुपर स्ट्रक्चर ही बदल कर स्टील का लगा देने का सुझाव दिया है. कुछ महीने पहले राज्य सरकार के ही आग्रह पर आये जापानी विशेषज्ञ दल की भी यही अनुशंसा थी. इन दोनों अनुसंशाओं को देखते हुए राज्य सरकार ने पूरा सुपर स्ट्रकचर बदल देनेे का निर्णय लिया है.

मोकामा पुल जैसा दिखेगा

गांधी सेतु का पूरा सुपर स्ट्रक्चर तोड़ कर

कंक्रीट की बजाय इस्पात का बनाया जायेगा. इसके लिये अनुबंधित कंपनी अपने वर्कशॉप में पुल का गार्डर फ्रेम तैयार करेगी और उसे ऊपर ले जाकर कस देगी. बनने के बाद पुल बहुत हद तक राजेंद्र

पुल मोकामा की तरह लगेगी, जिसका सुपर स्ट्रक्चर पूरी तरह इस्पात से निर्मित है. गार्डर फ्रेम पर आधारित होने के कारण इसकी मरम्मत भी

अधिक आसान होगी.

बनाने से तोड़ना मुश्किल

गांधी सेतु को बनाने से तोड़ना अधिक मुश्किल है. ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देश के अनुसार गंगाा में इसका थोड़ा भी मलबा नहीं गिरना चाहिए. इसलिए कोई देशी कंपनी अकेले इस निविदा को भरने के लिए आगे नहीं आयी. भारत की मेसर्स एफकाॅन्स इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड और रूसी की मेसर्स ओजेएससी सीबमोस्ट ने संयुक्त रूप से निविदा को भरा है. रूसी कंपनी के पास वह विशिष्ट तकनीक और उपकरण हैं, जो तोड़ने के दौरान हवा में ही मलबा को संग्रहित कर लेंगे. इससे गंगा के पानी व पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने से बचाया जा सकेगा.

पिछले सप्ताह इन दोनों कंपनियों का एनएच के अधिकारियों के साथ समझौता हुआ. अगले महीने दोनों अनुबंधित कंपनियां यहां आकर अपना वर्कशॉप स्थापित करेंगी. दिसंबर में उन्हें वर्क ऑर्डर दिये जायेंगे और जनवरी से काम शुरू हो जायेगा. अनुबंध के अनुसार कंपनी के पास 42 महीने का समय है. तोड़ने में बनाने से अधिक समय लगेगा. एक बार एक लेन पूरी तरह टूट जायेगा, उसके बाद उसको बनाया जायेगा. उसके तैयार होने के बाद दूसरे लेने को पूरी तरह तोड़ कर बनाया जायेगा.

मरम्मत कार्य से ट्रैफिक बाधित

लगातार चल रहे मरम्मत के कारण गांधी सेतु का एक लेन जगह जगह बंद रहता है. इससे ट्रैफिक के परिचालन में बाघा उपस्थिति होती है और यह बहुत धीमी हो जाती है. सिंगल लेन वाले स्थलों पर अक्सर लोडेड ट्रक का गुल्लक टूटने या उनके खराब होकर खड़ी होने की घटनायें होती रहती हैं. इससे ट्रैफिक का गुजरना मुश्किल हो जाता है और बड़ा जाम लग जाता है. जाम से निजात पाने के लिए अब तक कई प्रयास हुए हैं, लेकिन इसमें पूरी सफलता नहीं मिली है.

एसपी तक की प्रतिनियुक्ति

सेतु की जाम की समस्या पर हाइकोर्ट भी अपनी नाराजगी जता चुका है. हाइकोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार ने चार-पांच साल पहले यातायात नियंत्रण को लेकर सेतु पर अधिकारियों की बड़ी फौज उतार चुकी है. इसमें एसपी, डीएसपी, कई थानेदार व सैकड़ों की संख्या में लाठी धारी पुलिसकर्मियों की प्रतिनियुक्ति हुई थी.

इसका सकारात्मक परिणाम दिखा. पुलिसकर्मियों की मौजूदगी से ओवरटेक मामले में कमी आयी, जिससे कुछ राहत मिली. लेकिन, प्रयोग अधिक दिन नहीं चल सका. प्रतिनियुक्त पुलिसकर्मियों के वापस लौटते ही ट्रैफिक पुरानी स्थिति में लौट आया. 2012 में ही राज्य सरकार के आदेश पर जिला प्रशासन ने गांधी सेतु प्रवेश के तीन रास्तों पर सीसीटीवी लगाये थे. मगर इनकी मॉनीटरिंग नहीं होने से पर्याप्त सफलता नहीं मिल पायी. जाम की समस्या अक्सर जीरो माइल, बड़ी पहाड़ी के पास से शुरू होती है. एनएच-30 पर भी प्रभाव होता है. खास कर पूरब में मसौढ़ी मोड़ तक और पश्चिम में दीदारगंज चेक पोस्ट से आगे तक.

इस्पात की खपत कम होने से कैंटलीवर तकनीक सस्ती थी

सवाल: गांधी सेतु के सुपर स्ट्रक्चर को निर्माण के 34 वर्षों के भीतर ही क्यों तोड़कर दुबारा क्यों बनाना पड़ रहा है?

जवाब: पुल का डेक जिन केबल्स पर टिका था, वही अपना टेंशन लूज करने लगा है. लिहाजा मरम्मत से अधिक दिनों तक इसे चलाने की गुंजाइश नहीं रही. पुल का निरीक्षण करनेवाले आइआइटी रुड़की के विशेषज्ञ दल का सुझाव है कि पूरा सुपर स्ट्रक्चर तोड़ कर कंक्रीट से स्टील स्ट्रक्चर में बदल दिया जाये. डेढ़ साल पहले आये जापानी दल ने भी यही सुझाव दिया था.

सवाल: पुल को बनाने में ऐसी तकनीक का इस्तेमाल क्यों किया गया, जो कुछ ही दिनों में कमजोर पड़ गयी?

जवाब: कैंटलीवर तकनीक में बहुत कम इस्पात की खपत हाेती है, जिसके कारण यह तकनीक किफायती है. बजट कम करने के लिए इसका इस्तेमाल होता है.

सवाल: पुल पर जाम से बचने के लिए इन दिनों उस तरह के विशेष प्रबंध दिखाई नहीं देते जैसे कुछ दिनों पहले दिखाई देते थे?

जवाब: मोकामा पुल जब मरम्मत के लिए बंद किया गया, तो ट्रैफिक का लोड बहुत बढ़ जाने के कारण अधिक परेशानी थी. इसलिए उन दिनों अधिक व्यवस्था की गयी थी. अब मोकामा पुल के चालू होने के बाद उतना जाम नहीं लग रहा है. इसलिए पुरानी व्यवस्था में कुछ छूट दी गयी है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें