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जाति का चोला, वंश का खोल

बिहार में चुनावी माहौल के बीच क्या कुछ दिख रहा है? दल व नेता जाति-जाति कर रहे हैं. कई परिवारों में पहली, दूसरी के बाद तीसरी पीढ़ी राजनीति में उतर आयी है. जाति आधारित व वंशवाद की राजनीति बिहार को कहां ले जायेगी? आज से शुरू अभियान की पहली कड़ी में पढ़िए अजय कुमार की […]

बिहार में चुनावी माहौल के बीच क्या कुछ दिख रहा है? दल व नेता जाति-जाति कर रहे हैं. कई परिवारों में पहली, दूसरी के बाद तीसरी पीढ़ी राजनीति में उतर आयी है. जाति आधारित व वंशवाद की राजनीति बिहार को कहां ले जायेगी? आज से शुरू अभियान की पहली कड़ी में पढ़िए अजय कुमार की रिपोर्ट.
तरक्की की जगह बात जाति पर आकर टिक गयी
बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान हर पार्टी के नेताओं के भाषण में जाति मुखर होकर सामने आ रही है. जाति का तत्व राजनीति का मुख्य तत्व बन गया है और ऐसा लगता है कि जाति के बगैर राजनीति चल ही नहीं सकती. कुछ राजनीतिज्ञों को छोड़, सभी जाति की जाप कर रहे हैं. सामाजिक स्तर पर भी बहस का मुद्दा केवल जाति बनी हुई है.
बिहार की तरक्की की जगह बात जाति पर आकर टिक गयी है. कोई स्कूलों की बात नहीं करता. यह नहीं बताता कि स्कूलों की पढ़ाई कैसे ठीक होगी. टीचर और टेबुल-बेंच की कमी कैसे दूर होगी. कोई नहीं बताता कि अस्पतालों में दवाएं कैसे उपलब्ध होंगी. कोई यह ब्लू प्रिंट नहीं देता कि किस तरह यहां से मरीजों को इलाज के लिए दूसरे राज्यों में जाने की नौबत नहीं आयेगी. नौजवानों को रोजगार और खेत को पानी कैसे मिलेगा, यह बहस से गायब है.
चुनाव में जिंदगी से जुड़े असली मुद्दों की जगह छद्म या नकली मुद्दे उठाये जा रहे हैं. जाति की संवेदना को वोट में रूपांतरित किया जा रहा है. राजनीति को विकास की पटरी पर ले जाने के बदले जातिवाद के दलदल में धंसाया जा रहा है. लेकिन, लोग जाति के दायरे से बाहर निकलना चाहते हैं.
एक बड़ी पार्टी के जिम्मेदार नेता ने बताया कि बिहार के 16 फीसदी वोटर जाति की दीवार तोड़कर वोट देने के पक्ष में हैं. यह तथ्य उसी पार्टी के आंतरिक सव्रे में आया है. पर सार्वजनिक मंचों पर इसका जिक्र नहीं किया जाता.
राजनीति में जातिवाद को दूसरे अर्थो में स्थापित करने का श्रेय कांग्रेस को है. उसने वोट के लिहाज से तीन जातियां- ब्राह्मण, दलित और मुसलिमों का एक समुच्चय बनाया. लंबे समय तक इसी समीकरण पर उसकी राजनीति चली. बाद में क्षेत्रीय आकांक्षाएं पनपी, तो इसी पैटर्न पर समीकरण ब्ने. राज्य में हाल का समकीरण माय (यादव-मुसलिम) वाला है. आज की राजनीति जमात नहीं, जाति की बात करती है. कुछ पार्टियां अगड़ों, पिछड़ों और अति पिछड़ों का घोल बना रही हैं.
जातिवाद संस्थाओं को नष्ट करता है. फर्ज करिए कि किसी शैक्षिक संस्थान के प्रमुख पद पर नियुक्ति जाति के आधार पर हो. उस पर बैठने वाला व्यक्ति जाति केआधार पर फैसले करता है. उसके फैसले से शैक्षिक माहौल प्रभावित होता है. एक समय सीमा के बाद संबंधित संस्थान की छवि इतनी खराब हो गयी है कि वहां पढ़ने के प्रति आकर्षण नहीं रह जाता.
किसी जमाने में पटना विश्वविद्यालय की काफी ख्याति थी. यहां पढ़ने का अर्थ बेहतर भविष्य माना जाता था. पर आज की क्या हालत है? यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि बिहार से पढ़ने के लिए छात्रों का पलायन क्यों हो?
प्रत्याशी की जाति बतायी
– सभी प्रमुख दलों ने प्रत्याशियों की जारी सूची में बाजाप्ता जाति व समुदाय का उल्लेख किया
– कई पार्टियां जातियों के वोट के आधार पर चल रहीं
– पार्टी संगठन के प्रमुख पदों पर अपनी बिरादरी को वरीयता
ऐसे-ऐसे बयान प्रचार के दौरान
– एक नेता ने भाषण में यदुवंशियों को ललकारा
– जवाब में कहा गया- हम वो यदुवंशी हैं, जो नाथ देते हैं.
– तीसरे ने कहा- मैं भी यदुवंशी हूं, मुङो अपमानित किया गया.
– दूसरे ने लोगों को ललकारा, ब्राह्मणों के खिलाफ यादवों की एकजुटता का समय है.
– बार-बार एक बात कही जा रही -एक दलित के बेटे को सीएम पद से हटाया जाना दलितों का अपमान.
– एक केंद्रीय मंत्री ने कहा- सीएम सवर्ण जाति से नहीं होगा. फिर बोले- सीएम यादव होगा.
.. ऐसे बयान जारी हैं
कार्यकर्ताओं का टिकट काट भाई-बेटे को मैदान में उतारा
बिहार की राजनीति परिवारवाद की जकड़न में फंस चुकी है. बड़े नेता से लेकर छोटे नेता और कुल मिलाकर सभी पार्टियां परिवारवाद को पोस रही हैं. मौजूदा विधानसभा चुनाव की बात करें, तो 44 ऐसे परिवारों के उम्मीदवार मैदान हैं, जिनके परिवार से कोई न कोई विधायक-सांसद हैं या रह चुके हैं.
लोकतंत्र के नये राजा विधानसभा सीटों को अपनी जागीर, अपनी निजी संपत्ति समझ रहे हैं. कोई राघोपुर सीट को अपना बता रहा है, तो किसी को भागलपुर सीट अपनी संपत्ति लगती है. अलौली से लेकर शाहपुर तक इस मानसिकता की झलक मिल जायेगी.
इन राजनीतिक परिवारों की ओर से बनाये गये उम्मीदवारों की योग्यता सिर्फ इतनी है कि उनके परिवार से कोई राजनीतिज्ञ रहा है और अब वे वंश विरासत संभालने के लिए राजनीति में पहुंच गये हैं. कुछ ऐसे भी परिवारों की दूसरी, तीसरी या चौथी पीढ़ी के सदस्य चुनाव मैदान में हैं जिनके परिजन विधानसभा या लोकसभा में रहे. मगर उनके उम्मीदवार बनने में परिजनों की कोई भूमिका नहीं रही.
परिवारवाद वस्तुत: ऐसा आयरन गेट है, जो नये लोगों की राजनीति में या तो एंट्री नहीं होने देता या उसे हतोत्साहित करता है.
परिवारवाद की राजनीति व्यापक सामाजिक सरोकार के मुद्दों को पृष्ठभूमि में धकेल देती है. उसकी प्रतिबद्धता परिवार के प्रति सीमित होकर रह जाती है. इससे राजनीति में चाटुकारिता की प्रवृति स्थापित होती है. नीति-निर्धारकों के सामने समाज से जुड़े मुद्दों की अहमियत खत्म हो जाती है.
अगर ऐसा नहीं होता तो यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि बिहार में 405 किलोमीटर लंबी गंगा पर 68 साल में तीन ही पुल क्यों? इस पर तो दर्जन भर से ज्यादा पुल होने चाहिए थे. दरअसल, ऐसी राजनीति एक-दूसरे के धतकरम पर परदा डालती है.
परिवार की राजनीति आम जनता के व्यापक हितों की अनेदखी करती है. परिवारवाद का यह कारोबार लोकतंत्र के नाम पर चल रहा है. इससे राजनीति के प्रति अनास्था का भाव भी पैदा होता है. यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. आखिर परिवारवाद की राजनीति राज्य और समाज को कहां ले जा रही है?
व्हाई नेशंस फेल? सोचिए, बिहार के संदर्भ में
वर्ष 2012 में अमेरिकी अर्थशास्त्रियों डोरन ऐसमोगलू व जेम्स राबिंसन की किताब आयी थी – व्हाई नेशंस फेल. इस किताब में सफल और पिछड़े या विफल राष्ट्रों के बीच खास अंतर खोजने की कोशिश की गयी है. दोनों अर्थशास्त्रियों ने अपनी किताब में तर्क दिया है कि सांस्कृतिक, भौगोलिक या सामाजिक कारण की वजह से नहीं, बल्किमजबूत और स्वायत्त संस्थाएं न विकसित कर पाना ही पिछड़ेपन या विफलता का एकमात्र कारण है. यदि इस स्थापना के प्रकाश में अपने देश को देखें तो नीचे से उपर तक की लोकतांत्रिक संस्थाएं ही परिवारवाद की शिकार है.
जब परिवारवाद होगा तो भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए बनी संस्थाएं या नये नागरिक तैयार करने वाली शिक्षा व्यवस्था, विश्वविद्यालय व शोध संस्थान आदि भी सब अपने-अपने उद्देश्यों में विफल ही दिखाई देते हैं. इस किताब में (पेज 76 व 77) कहा गया है कि समावेशी आर्थिक संस्थाएं समावेशी बाजार विकसित करती हैं. समावेशी बाजार न सिर्फ लोगों को अपनी काबिलियत के हिसाब से व्यवसाय चुनने का मौका देता है, बल्किमेधा सिद्ध करने के लिए उनको बराबरी का मौका भी देता है.
आइए, हम विधानसभा चुनाव के माहौल को इस स्थापना पर कसकर देखें कि हम कहां तक इस पर खरे उतरते हैं. चुनाव में कई सीटों पर जो प्रत्याशी खड़े हैं, उनकी योग्यता क्या है? क्या उनके पास अपने शहर या समाज को लेकर कोई आइडिया है या फिर सिर्फ पारिवारिक व जातीय पृष्ठभूमि ही उनकी योग्यता है?

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