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व्रत केंद्रित त्योहार है छठ
प्रेमकुमार मणि प्रसिद्ध लेखक और पूर्व विधान पार्षद हैं छठ एक व्रत है और त्योहार भी. दीपावली, सोहराई ,दशहरा ,होली आदि त्योहार हैं लेकिन व्रत नहीं हैं. छठ मूलतः व्रत है और फिर इसके वृत्त पर त्योहार भी रच दिया गया है – व्रत केंद्रित त्योहार. इसलिए तमाम त्योहारों में यह अजूबा है, कुछ खास […]
प्रेमकुमार मणि
प्रसिद्ध लेखक
और पूर्व विधान पार्षद हैं
छठ एक व्रत है और त्योहार भी. दीपावली, सोहराई ,दशहरा ,होली आदि त्योहार हैं लेकिन व्रत नहीं हैं. छठ मूलतः व्रत है और फिर इसके वृत्त पर त्योहार भी रच दिया गया है – व्रत केंद्रित त्योहार. इसलिए तमाम त्योहारों में यह अजूबा है, कुछ खास और विशिष्ट भी.
बचपन से इसे देखता आ रहा हूं क्योंकि यह हमारे मगध जनपद का खास त्योहार है. कहते हैं ,इसकी जड़ें इसी जनपद में है. इसकी कुछ ऐसी खासियत है जो कि मुझ जैसे अनीश्वरवादी को भी आकर्षित करती है. पहली बात तो यह कि इसमें जनपक्ष इतना प्रबल है कि मुझे हैरत होती है.
आज तक इसके गीतों में खड़ी बोली का प्रवेश संभव नहीं हो सका जबकि मगही ,मैथिली ,भोजपुरी चलेगी. मेरी जानकारी के मुताबिक हिंदी में इसके गीत नहीं हैं. किसी पुरोहिती जुबान का भी इसमें किसी तरह का कोई समावेश नहीं है. हालांकि कहीं -कहीं मूर्तियां भी बनने लगी हैं और जबर्दस्ती कहीं – कहीं पंडितों की घुसपैठ भी कभी -कभार देखने -सुनने को मिलती है . लेकिन ये विकृतियां हैं और अपवाद स्वरुप ही हैं. इनका आम प्रचलन नहीं है.
मैं नहीं जानता कि इसका इतिहास क्या है. जानना भी नहीं चाहता. मेरी स्पष्ट मान्यता रही है कि दुनिया के तमाम समाजों में जितने भी त्योहार हैं उनमे से अधिकांश को जनता ने सृजित किया है.
खास कर किसानों और अन्न उत्पादक तबकों ने इन्हें सृजित किया है. पुरोहिती तत्व उसे अपने चंगुल में लेकर उसमें पौराणिकता जोड़ते हैं. छठ के इस त्योहार में पाखंड के नामोनिशान नहीं हैं. यह इसकी विशिष्टता है. तमाम तरह के कृषि उत्पादों यथा चावल ,गेंहू , गुड़ ,घी ,दूध ,सभी प्रकार की फल -सब्जियां ,ईख आदि से मिल कर अर्घ का सूप सजता है. ऐसा लगता है मानो पूरे समाज का संयोजन हो रहा हो. पवित्रता इसके केंद्र में है.
नदियों -पोखरों और दूसरे प्रकार के जलगाहों पर घाट सजते हैं. तन -मन से लेकर इंच -इंच की सफाई . न केवल उगते ,बल्कि डूबते सूर्य को भी अर्घ.
इसके एक रोज पहले चांद को साक्षी रख कर खरना-प्रसाद बनता है. जो इसके आदिवासी मूल को इंगित करता है. इसमें जाति -पाति का कोई भेद भाव नहीं है. कोई धार्मिक आडंबर नहीं. भले ही कुछ पुरुष भी इसे करते हैं, लेकिन मुख्य रूप से यह स्त्रियों का व्रत है. शायद ही दुनिया का कोई ऐसा व्रत हो जिसमें सब कुछ स्त्रियां करती हैं .
यही एक त्योहार है ,जिसके गीतों में घर में बेटी होने की मन्नत की जाती है . ‘रूनकी -झुनकी बेटी मांगीला…पढ़ल – पंडितवा दमाद ‘ . नारी सशक्तीकरण और अस्मिता पर जोर देने वालों को इसे चिह्नित करना चाहिए . इतने समावेशी तत्वों का संकेन्द्रण इसकी विशिष्टता है. दरअसल यही लोकतत्व की विशिष्टता है. पूरी सृष्टि को बांधो ,चांद और सूरज को बांधो, डूबने और उगने में संगत लाओ. जीवन और प्रकृति के बीच लय सृजित करो. प्रकृति से जीवन को जोड़ो. यही सब तो इस त्योहार के संदेश हैं.
इसीलिए यह मुझे खास लगता है . मैंने सभी जातियों के हिन्दुओं और यहां तक कि मुसलमानों में भी इस त्योहार की पैठ देखी है . छुआछूत और किसी भी तरह के मानवीय विभेद का नाम नहीं . स्त्रियां समग्रता पूर्वक पूरी पवित्रता और निष्ठा से समारोह पर अपना कब्जा बनाये रखती हैं.
पुरुष दउरा ढोने तक सीमित रहते हैं. नारी शक्ति का जो रूप इस त्योहार में दिखता है ,वह इतना अभिराम है कि देखते ही बनता है. बिहार के पास दुनिया को देने के लिए कुछ खास नहीं है. है तो छठ का यह त्योहार और लिट्टी -चोखे का व्यंजन . बिहारियों ने इसे यदि दुनिया भर में फैला दिया है, तो यह उनकी शक्ति का परिचायक है.
मेरी बस यही कामना है कि इस त्योहार के लोक तत्त्व विरुप न हों . यह लोक आस्था का पर्व बना रहे . पर्यावरण की चिंता , लोक -संस्कृति की चिंता और संकल्पित मन -मिजाज के साथ पूरी प्रकृति को आत्मसात करने एवं उससे तादात्म्य स्थापित करने के पवित्र अनुष्ठान का नाम छठ है.
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