मुजफ्फरपुर: मो रियाज साई के लिए बांसुरी केवल वाद्य नहीं, बल्कि इसे वे संस्कार से जुड़ा मानते हैं. यही वजह है, विपरीत परिस्थितियों के बाद भी इन्होंने बांसुरी बनाने व बजाने का काम नहीं नहीं छोड़ा. आर्थिक तंगी के कारण कई बार इस बात की चिंता सताती है, आखिर दो जून की रोटी कैसे मिलेगी, लेकिन तभी रियाज के जेहन में बांसुरी की विरासत भी घूम जाती है, जो इन्हें अपने पिता मो सलीम से मिली है. पिता ने कभी रियाज पर बांसुरी थोपी नहीं.
इन्होंने खुद तय किया था, पिता की तरह मैं भी जिंदगी भर बांसुरी का बन कर रहूंगा. इसी को जीविका का साधन बनाऊंगा. रियाज ने एक बात तय कर लिया तो उससे डिगे नहीं हैं. इनका सफर लगातार जारी है. कहते हैं, मैं तो अपनी पूरी जिंदगी बांसुरी बनाने व बजाने में लगा दूंगा. इसी से जो मिलेगा. उसी से परिवार का गुजारा होगा. बांसुरी बनाने में रियाज का साथ उनका छोटा भाई मो सेराज भी देता है.
यह लोग बांसुरी भले ही मुजफ्फरपुर में बनाते हैं, लेकिन इन्हें यहां इसका बाजार नहीं मिलता. बांसुरी बेचने के लिए छत्तीसगढ़ व उड़ीसा जाना पड़ता है. वहीं पर बांसुरी की खपत है. साल में रियाज दो बार पांच-पांच सौ बांसुरी लेकर इन राज्यों में जाते हैं. वहां दो-तीन महीने रह कर बांसुरी बेचते हैं और फिर वापस आ जाते हैं. रियाज अभी खपड़ैल के घर में रहते हैं. पक्का घर नहीं बन पाया है. कहते हैं, जिनती आमदनी होती है. उसमें ठीक से परिवार को खाने भर का ही नहीं होता है. एक बांसुरी डेढ़ सौ से ज्यादा की नहीं बिकती है. मो रियाज कहते हैं, पिता सलीम ने बांसुरीवादक हरि जी से यह कला सीखी थी. हरि जी बहुत अच्छे बांसुरी वादक थे.
पिता भी उनके साथ बांसुरीवादन किया करते थे. बाद में उन्होंने अपनी साधना इस कला को निखारने में लगायी. उनके सानिध्य में हमने भी बांसुरीवादन सीखा, तभी इस कला में खुद को ढाल पाये. रियाज कहते हैं, सुर व ताल के साथ संगत करने वाला ही बांसुरी बना सकता है. जिसे सरगम की समझ नहीं हो वो यह काम नहीं कर सकता है. वह कहते हैं, बांस की पाइप में कौन सा ग्रुप नंबर होगा. उसमें कितने दूर पर छेद किया जायेगा. पहली, दूसरी, तीसरी व चौथी काल की बांसुरी कैसे बनेगी, इसे सीखने के लिए काफी अभ्यास करना पड़ता है. मो रियाज कहते हैं, पिता जी के जमाने में बांसुरी की कद्र करने वाले लोग अधिक थे, लेकिन अब बहुत कम लोग इसके कद्रदान है. देश भर में मुजफ्फरपुर व सीतामढ़ी की बनी बांसुरी की मांग है, लेकिन यहां ऐसी बांसुरी नहीं बिकती. दस बीस रुपये वाले बच्चों की बांसुरी बिक जाये वही बहुत है. मेले के समय ऐसी बांसुरी की मांग ज्यादा होती है. ऐसी बांसुरी बना कर कोई परिवार भरण पोषण नहीं कर सकता.
शहर में बांसुरीवादन सीखने के लिए भी बहुत कम लोग आते हैं. यहां अब कोई गुरु भी नहीं हैं. बांसुरी असम के ढोलू बांस से बनती है. यदि 50 बांसुरी बनायी जाये तो बनाने में 17 दिन लगेंगे. इसका वज है, सुर मिलाने में अधिक समय लगता है. बाल बराबर भी सुर अलग हुआ तो बांसुरी बेसुरी हो जाती है. इस काम में काफी मेहनत है, लेकिन उस हिसाब से मेहनताना नहीं मिलता. अन्य राज्यों में जो लोग इस विधा से जुड़े हैं. वे ऑर्डर देकर बांसुरी बनवाते हैं. उसकी कोई कीमत नहीं होती. इसके लिए एक हजार से पांच हजार तक मिल जाता है. मो रियाज कहते हैं, हमारे बाद इस कला को बचाये रखना कठिन है, क्योंकि हमारे दोनों बच्चों को बांसुरी में रुचि नहीं है. एक ने मैट्रिक पास करने के बाद साइकिल का व्यवसाय शुरू किया है, जबकि दूसरा इंटर में पढ़ रहा है. जब तक हम जिंदा हैं, तभी तक यह कला महफूज है.