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जिले के सरकारी अस्पतालों में नहीं हैं शिशु रोग विशेषज्ञ

कुमार दीपू मुजफ्फरपुर : जिले के सरकारी अस्पतालों में शिशु रोग विशेषज्ञ न के बराबर है. जिले के सबसे बड़े अस्पताल एसकेएमसीएच में उत्तर बिहार सभी जिलों से लोग इलाज कराने पहुंचते हैं. लेकिन, इस अस्पताल में महज तीन डॉक्टर हैं. इसमें भी एक डॉक्टर छुट्टी पर या ट्रेनिंग में ही रहते हैं. वहीं, सदर […]

कुमार दीपू
मुजफ्फरपुर : जिले के सरकारी अस्पतालों में शिशु रोग विशेषज्ञ न के बराबर है. जिले के सबसे बड़े अस्पताल एसकेएमसीएच में उत्तर बिहार सभी जिलों से लोग इलाज कराने पहुंचते हैं. लेकिन, इस अस्पताल में महज तीन डॉक्टर हैं. इसमें भी एक डॉक्टर छुट्टी पर या ट्रेनिंग में ही रहते हैं.
वहीं, सदर अस्पताल में दो डॉक्टर हैं. इनमें भी एक डॉक्टर पिछले दो माह से ट्रेनिंग में है और दूसरे डॉक्टर छुट्टी पर हैं. इस कारण सदर अस्पताल में पिछले दो माह से बच्चों का इलाज नहीं हो पा रहा है. सदर अस्पताल के अधीक्षक कौशल मिश्र का कहना है कि डॉक्टरों की कमी से बच्चों का इलाज प्रभावित है. इधर, जिले के 16 पीएचसी में से एक भी पीएचसी ऐसा नहीं है, जहां शिशु रोग विशेषज्ञ हो. आलम यह है कि बच्चों का इलाज कराने के लिए लोगों को प्राइवेट अस्पताल का चक्कर लगाना पड़ता है.
जिला का पोषण पुनर्वास केंद्र बंद, एसएनसीयू व एनबीएस नहीं
जिले में एक भी पोषण पुनर्वास केंद्र नहीं है. सरैया में एक पुनर्वास केंद्र खोला गया था, जो पिछले चार सालों से बंद पड़ा है. वर्ष 2017 में इस केंद्र का निरीक्षण किया गया. इसके बाद इसे शहर के सदर अस्पताल में शिफ्ट करने का निर्णय लिया गया. 2018 में सदर अस्पताल में इसे शिफ्ट करने की पहल शुरू की गयी है. सदर अस्पताल में इसे लेकर कार्य चल रहा है. लेकिन, कब तक यह पुनर्वास केंद्र शुरू होगा, इसकी जानकारी सिविल सर्जन डॉ ललिता सिंह के पास भी नहीं है. सदर अस्पताल व एसकेएमसीएच में एसएनसीयू और एनबीएस केंद्र भी नहीं है. अगर किसी बच्चे के जन्म के बाद उसे कोई गंभीर बीमारी हो जाये, तो उसे या तो निजी अस्पताल केजरीवाल या फिर किसी नर्सिंग होम में रेफर कर दिया जाता है.
शिशु वार्ड में लगा रहता है ताला: सदर अस्पताल में बच्चों के लिए शिशु वार्ड तो बनाया गया. लेकिन, इसमें बच्चे को भर्ती नहीं किया जाता है.
शिशु वार्ड के आंकड़े पर अगर नजर डालें, तो पिछले छह माह में इसमें महज दस बच्चे ही भर्ती किये गये हैं. बाकी दिनों में इस वार्ड में ताले लटके रहते हैं. अस्पताल प्रबंधक प्रवीण कुमार की माने तो डॉक्टर अगर भर्ती के लिए लिखेंगे तो ही तो भर्ती किये जायेंगे. डॉक्टर भर्ती के लिए नहीं लिखते हैं, जिससे वार्ड बंद रहता है. एसकेएमसीएच की बात करे, तो वहां एनआयूसीयू वार्ड बच्चों के लिए बनाये गये हैं. उसमें उन्हें बच्चों को भर्ती किया जाता है, जिसमें एइएस या फिर मिजलिस के केस सामने आते हैं. बाकी जो बच्चे हैं, उन्हें सामान्य वार्ड में भर्ती किया जाता है.
जन्म के बाद बच्चों को लेकर चले जाते हैं निजी अस्पताल : सरकारी अस्पताल में जन्म लेने वाले बच्चों को तुरंत बाद उनके परिजन उसे किसी नर्सिंग होम या निजी अस्पताल में लेकर चले जाते हैं. सदर अस्पताल में भर्ती प्रसूता रजिया खतून, सावित्री देवी, अनिता कुमारी का कहना है कि उसका प्रसव शनिवार को हुआ है. प्रसव के बाद उसके बच्चे को तत्काल किसी डॉक्टर ने नहीं देखा. इतना ही नहीं बच्चे को 24 घंटे के अंदर पड़ने वाली सूई भी अब तक नहीं लग पायी है. इस कारण वह उसे लेकर केजरीवाल अस्पताल जा रही है.
अगर शिशु मृत्यु दर पर बात करे, तो स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े के अनुसार हर एक हजार प्रसव पर 38 बच्चे की मौत होती है. वर्ष 2017 में सरकारी अस्पताल में तीन हजार बच्चों की मौत हुई है.

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