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कहां गये रमजान पर जगानेवाले!

मुजफ्फरपुर : उठो रोजेदारों, अल्लाह के प्यारों, वक्ते सहरी हो गया. ऐ सोनेवालों, चादर हटा दो, देखो फलक पे रोशन हैं तारे. या मोमिनो सहरी खा लो, इबादत करो… जैसे नग्मों से कभी रोजेदार नींद से बेदार हुआ करते थे. पुराने समय में रमजान के महीने में सहरी के लिए लोगों की टोलियां रात्रि दो […]

मुजफ्फरपुर : उठो रोजेदारों, अल्लाह के प्यारों, वक्ते सहरी हो गया. ऐ सोनेवालों, चादर हटा दो, देखो फलक पे रोशन हैं तारे. या मोमिनो सहरी खा लो, इबादत करो… जैसे नग्मों से कभी रोजेदार नींद से बेदार हुआ करते थे. पुराने समय में रमजान के महीने में सहरी के लिए लोगों की टोलियां रात्रि दो बजे से ही फजीलत व नग्में पढ़कर लोगों को जगाया करती थीं. रमजान समापन के बाद हर घर से उन्हें जकात भी दिया जाता था. समय के बदलने से लोग हाइटेक होते गये और आज इनकी जगह मोबाइल फोन, घड़ी आदि ने ले ली है.

रमजान के पवित्र महीने में सहरी के वक्त से पहले रोजेदारों की नींद को बेदार करती थी़ गली-मोहल्लों में निकलने वाली काफिलों की टोलियां. पुराने समय में सड़कों पर यह नजारा देखते ही बनता था. रमजान के फजायल के नग्में गाये जाते थे. हम्द व नातें पढ़ी जाती थीं. रमजान के शुरू के 15 दिनों में फजीलत पढ़ी जाती थी, जबकि बाद के 15 दिन विदाई के नगमे पढ़े जाते थे. काफिला के बाद इनकी जगह ढोल-नगाड़ों ने ले ली. धीरे-धीरे अब यह रवायत पूरी तरह से खत्म होती जा रही है.
इस पर भी आधुनिक तकनीक पूरी तरह से हावी हो चुकी है. मोबाइल फोन, टेबलेट व घड़ी के अलार्म लोगों को सहरी के लिए जगाते हैं. या फिर मौलवियों द्वारा मस्जिदों में माइक से ऐलान किया जाता है- जनाब, नींद से बेदार हो जाइए. सहरी का वक्त हो चुका है. सिर्फ 20 मिनट ही बचे हैं. जहां मसजिदें दूर हैं या नहीं हैं, वहां रहनेवाले लोग मोबाइल फोन का सहारा ले रहे हैं. उस पर आनेवाले एसएमएस से पता चलता है कि वक्ते सहरी हो चुका है. सड़कों पर निकलने वाले काफिले की परंपरा अब खत्म हो चुकी है.
फजीलत व नग्में पढ़ कर लोगों को सहरी के लिए जगाती थी टोली
रमजान खत्म होने पर हर घर
से मिलती थी जकात
अजान के लिए रखे जाते थे तेज आवाजवाले लोग
पहले माइक का सिस्टम नहीं था, तो मस्जिदों में तेज आवाज वाले मजबूत लोगों को रखा जाता था. सुबह सहरी के वक्त जब मस्जिद में अजान होती, तो उसकी आवाज दूर तक जाती थी. इसके बाद मस्जिदों में माइक लग गया, तो उसी पर अजान होती है. इसके साथ ही सहरी के लिए लोगों को 10 मिनट पहले जगाया भी जाता है. सहरी से पहले समय खत्म होने की चेतावनी भी दी जाती है.
अब भागदौड़ भरी जीवनचर्या है. युवाओं के पास इतनी फुरसत नहीं कि सामाजिक दायित्वों का भी निर्वाह कर सकें. काम-धंधा या दफ्तर से छूट कर देर रात तक खाली होते हैं. ऐसे में सुबह सहरी के लिए जगाने के लिए टोली बनाना किसी मोहल्ले या गांव में संभव नहीं है. व्यस्तता इतनी बढ़ गयी है कि नमाज पढ़ने का समय भी अक्सर बदल जाता है.
मो इश्तियाक, सामाजिक कार्यकर्ता
पहले शहर व गांवों में सामाजिकता का माहौल था. समय बदला, तो इसका असर पाक माह रमजान पर भी दिखने लगा है. अब किसी को पड़ोस के लोगों से भी मतलब नहीं रहता. पुराने लोग बुजुर्ग हो गये हैं. नये लड़कों को सामाजिक काम के लिए समय नहीं मिल पाता. समय के साथ रमजान माह की परंपराएं भी बदलने लगी हैं.
जाहिद अखर, मिठनपुरा

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