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अब भी मिल जाते हैं ”तीसरी कसम” खाने वाले
रूपेश कुमार मधेपुरा : कालजयी रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु की प्रसिद्ध कहानी ‘तीसरी कसम’ में नौटंकी में नाचने वाली हीराबाई की प्यार में गिरफ्त गाड़ीवान हीरामन कहानी के अंत में थियेटर वाली से दोस्ती नहीं करने की तौबा करते हुए गाड़ी पर न चढ़ाने की कसम खाता है. यह कहानी फारबिसगंज में लगने वाले मेला में […]
रूपेश कुमार
मधेपुरा : कालजयी रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु की प्रसिद्ध कहानी ‘तीसरी कसम’ में नौटंकी में नाचने वाली हीराबाई की प्यार में गिरफ्त गाड़ीवान हीरामन कहानी के अंत में थियेटर वाली से दोस्ती नहीं करने की तौबा करते हुए गाड़ी पर न चढ़ाने की कसम खाता है. यह कहानी फारबिसगंज में लगने वाले मेला में नौटंकी के इर्दगिर्द है. कोसी क्षेत्र में लगने वाले मेले में वर्षों से नौटंकी थियेटर लगते रहे हैं. गंवई जबान में थियेटर को ‘ठेठर’ भी कहा जाता है.
सिंहेश्वर मेला में भी थियेटर की पुरानी परंपरा रही है. करीब पैंतीस वर्ष पहले ‘दि ग्रेट विमला थियेटर फ्राम कानपुर’ का नाम लेते ही पुरानी पीढ़ी के चेहरे पर अब भी मुस्कान तैर जाती है. संभ्रांत कहे जाने वाले घर से छिप कर और ‘आवारा, बदमाश ‘ कहे जाने वाले सरेआम थियेटर में जाते रहे हैं. करीब 1980 के समय थियेटर के एक शौकीन रहे दर्शक बताते हैं कि तब थियेटर में पॉपुलर सिनेमा की पैरोडी और नृत्यांगनाओं की लुभावनी अदाएं परोसी जाती थी. थियेटर देखने के दीवाने पूरे कोसी क्षेत्र के अलावा बंगाल तथा नेपाल से भी आते थे. गहरी सांस लेते हुए कहते हैं कि… सिहेंश्वर से फारबिसगंज और बंगाल … पता नहीं इनके पीछे कहां-कहां भटके…!
यह थियेटर की लोकप्रियता ही थी कि शिवरात्रि मेला लगने से पहले दूर दराज के जमींदार अपने कारवां के साथ चल कर सिंहेश्वर के आसपास ठहरा करते थे. बल्कि कुछ जमींदारों ने तो कई गांव ही खरीद लिये थे. इससे उन्हें आसानी होती. कारिंदों की फौज ले कर चलना नहीं पड़ता और भोजन की समस्या का भी आसानी से समाधान हो जाता था. ऐसे ही कुछ गांव सिंहेश्वर के आसपास अब भी हैं जिन पर अब उनके रिश्तेदार काबिज हैं.
इनमें भवानीपुर और बैरबन्ना गांव का नाम अब भी लोग लेते हैं. जमींदारों ने अपनी बेटियों को शादी में ये रैयत उपहार में दे दिये. अब थियेटर में काम करने वाली लड़कियों के नकली नाम सिनेमा के तारिकओं के नाम पर ही होते हैं. नाम न छापने की शर्त पर सिहेंश्वर के एक युवा व्यवसायी बताते हैं कि सोनम के लिए वह रात-रात भर जाग कर थियेटर देखते थे और दिन में उनके तंबू में जाने की जुगाड़ में रहते थे. अब…न बाबा न..! फिर वही कसम !
मेला के दैरान प्रत्येक रात सिहेंश्वर में बिताने वाले सुपौल के एक युवा कहते हैं कि जानता हूं कि यह फिल्म की तरह मनोरंजक है लेकिन वर्चुअल नहीं…जीवंत है. किसी गीत पर खुश हो कर वह सौ-पचास दे सकते हैं और इसका फीडबैक मिलता है. कभी कभी तो एक भावनात्मक लगाव भी विकसित हो जाता है और मेला खत्म होने पर दुख भी होता है. फिर सोचते हैं कि अगली बार नहीं देखेंगे. थियेटर को लेकर कसमें खाने का यह सिलसिला न जाने कब से चलता आ रहा है. शायद हीरामन गाड़वान से भी पहले से, और आगे चलता ही रहेगा.
क्यों कहे जाते हैं थियेटर
भारत में नाटक को शास्त्रीय स्वरूप में महाकवि कालिदास ने रचा. लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध से मध्य तक नाटक की प्रस्तुति पर पारसी शैली का एकाधिकार रहा. अभिनय में अतिनाटकीयता का पुट लिये किरदार उंची आवाज में अपने डायलॉग की अदायगी करते थे.
बाद के दिनों में मेले में ये पारसी थियेटर अपना प्रदर्शन करने लगे. लैला मजनूं, हीर रांझा आदि जैसे प्रेम कहानियों को नाटक में प्रस्तुत किया जाता था. जब हिंदी सिनेमा का दौर चल पड़ा तो इन फिल्मों की कहानियों को पेश किया जाने लगा. तब से लेकर अब तक इस थियेटर की अंतर्वस्तु में जमीन आसमान का फर्क आ गया है लेकिन इनके नाम में थियेटर अब तक लगा है. वहीं नौटंकी उत्तर भारत में प्रचलित नाट्य कला रही है.
इनमें पुरूष ही स्त्रियों का स्वागं रच कर पौराणिक कथाओं पर संगीत रूपक प्रस्तुत किया करते थे. सिनेमा से पहले यह लोगों के मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन हुआ करता था. गांवों के मेलों में नौटंकी की धूम रहा करती. कालांतर में मेलों में आने वाले नौटंकी और थियेटर आपस में मिल गये.
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