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चारुदत्त के मृत्युदंड का प्रसंग दर्शकों को भाया

मृच्छकटिक नाट्य मंचन के अंतिम दिन दर्शकों की उमड़ी भीड़ आरा : कड़कड़ाती ठंड के बावजूद शुक्रवार को भूमिका के चार दिवसीय आयोजन के आखिरी दिन दर्शकों की भारी भीड़ महाकवि शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिक’ नाटक को देखने के लिए नागरी प्रचारिणी सभागार में उमड़ी. श्रीधर द्वारा निर्देशित यह नाटक बौद्धकाल के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश […]

  • मृच्छकटिक नाट्य मंचन के अंतिम दिन दर्शकों की उमड़ी भीड़
आरा : कड़कड़ाती ठंड के बावजूद शुक्रवार को भूमिका के चार दिवसीय आयोजन के आखिरी दिन दर्शकों की भारी भीड़ महाकवि शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिक’ नाटक को देखने के लिए नागरी प्रचारिणी सभागार में उमड़ी. श्रीधर द्वारा निर्देशित यह नाटक बौद्धकाल के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश को तो दिखाने में तो सफल रहा ही, इसने आज के कई सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रसंगों की ओर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट किया.
जिस दौर में लोककल्याणकारी अर्थनीति और राजनीति खत्म हो रही हो और शासकवर्ग अपने स्वार्थ में हर स्तर पर भेदभाव, विभाजन, उन्माद और हिंसा को बढ़ावा दे रहा हो, तब चारुदत्त जैसे समाज-हितैषी, कला-प्रेमी और अहिंसा को महत्व देने वाले नायक को देखना दर्शकों के लिए बहुत सुकूनदेह रहा. अपूर्व सुंदरी वसंतसेना, जिस पर सामंत और व्यवसायी सब कुछ लुटाने को तैयार हैं, उसका जनहित के कार्यों के कारण निर्धन हो चुके चारुदत्त से प्रेम करना एक ऐसा मूल्य है, जो धन के बजाय व्यक्ति के सामाजिक गुणों को महत्व देता है.
राजा पालक का साला शकार इनके प्रेम का विरोधी है. उसका यौनलिप्सा से ग्रस्त मनोविकृत और हिंसक चरित्र आज के कुछ सांसदों, विधायकों और बाबाओं के चरित्र की भी झलक पेश कर गया. किस तरह ऐसे चरित्र न्यायाधीशों को भी धमकाते हैं और बेगुनाहों को फंसाते हैं, चारुदत्त के मृत्युदंड के प्रसंग ने दर्शकों को भया. शकार जिस तरह इतिहास और मिथकों की घटनाओं और चरित्रों को तोड़-मरोड़कर पेश करता है, वह बरबस मौजूदा दौर के एक शक्तिशाली राजनीतिक चरित्र के बयानों की याद दिलाता है.
नाटय मंचन के पूर्व बुद्धिजीवियों की भूमिका पर हुई परिचर्चा : नाट्य मंचन से पूर्व आज के समय में लेखकों, बुद्धिजीवियों और संस्कृति कर्मियों की भूमिका’ विषय पर परिचर्चा हुई, जिसमें वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन ने कहा कि आज बुद्धिजीवियों का दायित्व यह है कि वे जनता के हित में सोचें, बोलें और लिखें. देश की जनविरोधी व्यवस्था में तब्दीली जरूरी है. कथाकार नीरज सिंह ने कि जाति-संप्रदाय के बजाय वर्ग संघर्ष के एजेंडे को केंद्र में रखना होगा. शासकवर्ग के एजेंडे के पीछे चलना छोड़ना होगा.
कवि-आलोचक जितेंद्र कुमार ने संघर्षशील ताकतों के बीच संवाद पर जोर दिया. आलोचक रवींद्रनाथ राय ने नफरत फैलाकर राज करनेवाली राजनीतिक शक्तियों के विरोध की जरूरत बतायी. संचालन सुधीर सुमन ने किया. वहीं, आज रामनिहाल गुंजन द्वारा संपादित और अनुवादित जार्ज थामसन की पुस्तक मार्क्सवाद और कविता और अंटोनियो ग्राम्शी की रचनाओं के संग्रह साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के पुनप्र्रकाशित संस्करण, परशुराम की पुस्तक आलोचना का सांस्कृतिक आयाम तथा रंजीत बहादुर माथुर की कहानियों का संग्रह दावत अभी बाकी है और भोजपुरी में लिखे गये लेखों और टिप्पणियों के संग्रह लोगवा का कही का विमोचन हुआ.

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