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महंगाई पर कल्पवािसयों की आस्था पड़ रही है भारी

बीहट : समय बदला,मेला का स्वरूप बदला,सुविधाएं बदली तो कल्पवास मेला का व्यवसायीकरण भी हुआ.यूं तो सैकड़ों वर्षों से सिमरिया घाट पर हर कार्तिक मास में कल्पवास मेले की परंपरा है. श्रद्धा और भक्ति के साथ हजारों श्रद्धालु सिमरिया पहुंच गंगा के किनारे पर्णकुटी बनाकर गंगा माता की आराधना में एक महीने तक एक विशेष […]

बीहट : समय बदला,मेला का स्वरूप बदला,सुविधाएं बदली तो कल्पवास मेला का व्यवसायीकरण भी हुआ.यूं तो सैकड़ों वर्षों से सिमरिया घाट पर हर कार्तिक मास में कल्पवास मेले की परंपरा है. श्रद्धा और भक्ति के साथ हजारों श्रद्धालु सिमरिया पहुंच गंगा के किनारे पर्णकुटी बनाकर गंगा माता की आराधना में एक महीने तक एक विशेष दिनचर्या के तहत भक्ति भाव में तल्लीन रहते हैं.

इस दौरान कल्पवासियों के बीच कोई भेदभाव नहीं रहता और न कोई अमीर-गरीब होता है. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इस परंपरा में भी भेदभाव दिखने लगा है.आप के पास पैसे हैं तो सारी सुविधाएं आपको मिलेगी और यदि नहीं तो शायद ही कोई आपकी मदद करने वाला मिले. यूं कहें तो श्रद्धा कहीं न कहीं पीछे छूटती जा रही है और मेला में अर्थ हावी होता जा रहा है.
बाजारवाद हावी है कल्पवास मेला में :मेला में दो तरह के विकल्प कल्पवासियों के सामने उपलब्ध होते हैं. टेंट से बनी पर्णकुटी हवादार,बड़ा और अच्छी सुविधा वाली श्रेणी में आती है.इसमें महंत लोगों की अहम भूमिका होती है.यहां श्रद्धालुओं को तीन से पांच हजार महीना तक किराया के रूप में खर्च करना पड़ता है. जिनके पास टेंट वाली पर्णकुटी का किराया देने की क्षमता नहीं है उन्हें खुद से पॉलीथीन से अपनी पर्णकुटिया बनानी पड़ती है.
सुविधा संपन्न टेंटों में गैस चुल्हा पर खाना पकता है वहीं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की कुटियाओं में मिट्टी के बने चुल्हे और लकड़ी पर खाना बनता है. महंगी दर पर लकड़ियां खरीदना ऐसे लोगों के सामने परेशानी का सबब है.जिला प्रशासन द्वारा इस मद में कोई मदद अथवा सुविधा मुहैय्या नहीं करती जिसके कारण ऐसे लोगों की परेशानी बढ़ जाती है.

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