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पारंपरिक खेलों पर गहरा रहे संकट के बादल

पारंपरिक खेलों पर गहरा रहे संकट के बादल खो-खो व कबड्डी में रुचि नहीं ले रहे खेलप्रेमीबच्चे मैदान के बदले कंप्यूटर पर गेम खेलना करते हैं पसंद (ग्राफिक्स लगा देंगे) औरंगाबाद(सदर) नये दौर में न सिर्फ लोगों का रहन-सहन बदला है बल्कि लोगों के खान-पान, खेल-कूद व मनोरंजन के साधन भी बदल गये हैं. आज […]

पारंपरिक खेलों पर गहरा रहे संकट के बादल खो-खो व कबड्डी में रुचि नहीं ले रहे खेलप्रेमीबच्चे मैदान के बदले कंप्यूटर पर गेम खेलना करते हैं पसंद (ग्राफिक्स लगा देंगे) औरंगाबाद(सदर) नये दौर में न सिर्फ लोगों का रहन-सहन बदला है बल्कि लोगों के खान-पान, खेल-कूद व मनोरंजन के साधन भी बदल गये हैं. आज हर घर डिस्को, पब, फास्ट फुड, 80 जीबी का आइपड, स्मार्ट फोन, ब्रांडेड कपड़े व जूते, आंख पर महंगे चश्मे आदि शायद लोगों की पहचान बन गयी है. आज के बच्चे मैदान में नहीं बल्कि कंप्यूटर पर गेम खेलना पसंद करते हैं. बेब्लेड खेलते हैं. उन्हें जिन खेलों में तड़क-भड़क ज्यादा दिखता है उसे ही खेलना पसंद करते हैं. आज बच्चों के पसंद में बैटबॉल, टेबल टेनिस व बैडमिंटन शामिल हैं. पर, पारंपरिक खेल खो-खो, कबड्डी, गिल्ली-डंडा आदि पसंद नहीं आते. आज लोग मिट्टी से जुड़े खेल को नापसंद कर रहे हैं. जमीन पर बैठ कर आराम से सुस्ताते हुए पारंपरिक खेल का मजा लोग नहीं लेना चाहते, बल्कि उन्हें शोर शराबे वाला स्टेडियम चाहिए. खेल के लिए भरपूर संसाधन होने चाहिए और अगर खुले मैदान का खेल है तो उसे भी वातानुकूलित में खेलना पसंद करते हैं. ऐसी मानसिकता रखनेवाले लोगों के कारण आज पारंपरिक खेलों पर संकट के बादल गहरा रहे हैं.अब मैदान में कहां दिखते खो-खो व कबड्डी के खिलाड़ी खो-खो व कबड्डी एक भारतीय खेल है. लट्टू व गिल्ली-डंडा भी यहीं का खेल रहा है. इन खेलों में किसी विशेष साधन की आवश्यकता नहीं होती. इन खेलों में माना जाता है कि युवाओं को संघर्षशीलता व जोश भरने वाला ये खेल है. ये खेल एक अनूठा स्वेदेशी खेल है. जिससे अत्यधिक तंदुरूस्ती, कौशल, गति, ऊर्जा और प्रतिस्पर्द्धा की उन्नति होती है. आज के आधुनिक खेलों की अपेक्षा इन खेलों में खर्च भी न के बराबर होता है और अन्य खेलों की अपेक्षा इसे अच्छा माना जाता है, लेकिन आज ये खेल न तो किसी भी स्कूल के खेल-कूद का महत्वपूर्ण हिस्सा है और न ही आम तौर पर किसी मैदान में लोग खेलते दिखते हैं. पहले तो सरकारी व गैर सरकारी स्कूलों में शारीरिक शिक्षक इन खेलों का नियमित आयोजन करते थे और बच्चे बड़े उत्साह से इस खेल को खेला करते थे. बड़े आयोजनों में बड़े लोग भी इस खेल का हिस्सा बना करते थे, लेकिन अब ऐसा कहां. संघ की शाखा में अब भी जीवित : स्वदेशी खेल होने के नाते खो-खो व कबड्डी को आरएसएस ने अब तक जीवित रखा है. आज भी संघ की जहां-जहां नियमित शाखा लगती है वहां इन खेलों को बखूबी खेला जाता है. शारीरिक व्यायाम व इन खेलों को शाखा में आनेवाले बड़े व छोटे सभी उम्र के स्वयंसेवक मजे से खेलते हैं. शहर के एक शाखा के वरीय स्वयंसेवक रंजय अग्रहरी बताते हैं कि खो-खो व कबड्डी एक पारंपरिक खेल है, जिसमें खिलाड़ियों का सिर्फ श्रम लगता है. और ये खिलाड़ियों में स्फूर्ति पैदा करता है. मैदान में खेले जाने वाले खेलों में इसकी एक अलग पहचान है. इसे पुरुष व महिला दोनों खेलते हैं. आज लोग भले ही इन खेलों से कट रहे हैं पर किसी समय में खो-खो व कबड्डी लोकप्रिय खेल रहा करता था, हालांकि कबड्डी जैसे खेल को अब ऐशियाई खेलों में शामिल कर लिया गया है. इसे बढ़ावा देने के लिए 2004 में पहला विश्वकप भी आयोजित किया गया. अब तक के विश्व कप में भारत सभी में विजेता भी रहा है. वैसे टीवी पर भी प्रो कबड्डी का आगाज हुआ है, जिसे लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया रहा है. बढ़ावा के लिए प्रयास जारी : जिला खेल पदाधिकारी जयनारायण कुमार बताते हैं कि खो-खो व कबड्डी के बढ़ावा के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास जारी है. समय-समय पर शहर के खेल मैदानों में इन खेलों का आयोजन किया जाता है. सरकारी विद्यालयों के 12वीं तक के छात्र-छात्राएं इस खेल प्रतियोगिता में शामिल भी होते हैं. प्रतियोगिता में शामिल होनेवाले प्रतिभागियों को प्रशासन की ओर से सम्मानित भी किया जाता है. ये खेल सितंबर व अक्तूबर में आयोजित होता है. ————————-कबड्डी खेलने का तरीकासाधारण तरीके से इस खेल का परिचय दिया जाये तो अंक हासिल करने के लिए दो टीमों के बीच एक स्पर्द्धा आयोजित होती है. अंक पाने के लिए एक टीम का रीडर कबड्डी-कबड्डी बोलने वाला विपक्षी पाले में जाकर खिलाड़ियों को छूने का प्रयास करता है. इस दौरान दूसरी टीम के खिलाड़ी संगठित होकर पाले में आये रीडर को पकड़ने का प्रयास करते हैं. इन दोनों टीम के खिलाड़ियों के हरकत में जो सफल होता है उनके टीम को अंक मिलता है. खेल की अवधि 20-20 मिनट की होती है. मैच का आयोजन वजन व उम्र पर होता है. इसमें पूरे मैच का निगरानी सात लोगों द्वारा की जाती है. ऐसे होता है खो-खोखो-खो मैदानी खेलों के सबसे प्राचीन खेलों में एक है, जिसका जन्म बताया जाता है कि प्रागैतिहासिक काल में हुआ. ये मुख्य रूप से आत्मरक्षा, आक्रमण व प्रत्याक्रमण के कौशल को विकासित करता है. इस खेल में न गेंद की आवश्यकता होती है और न बल्ले की. दो खंबो के बीच आठ बराबर भागों में दूरी विभाजीत कर दी जाती है और दोनों दलों के खिलाड़ी एक-दूसरे के विपरित दिशा में मुंह करके बैठ जाते हैं. प्रत्येक दल को एक निर्धारित समय दिया जाता है, फिर दो खिलाड़ी खड़े होते हैं और एक-दूसरे का पीछा करते हैं. इसी प्रकार यह खेल आगे बढ़ता है और दोनों टीमों का स्कोर भी. इस खेल में दोनों तरफ से खिलाड़ियों की संख्या नौ-नौ होती है. इसके अतिरिक्त आठ खिलाड़ी होते हैं. खेल में चार परिया होती है, दो दौड़ने और दो छूने की. मैच में अम्पायर, रेफरी, टाइम कीपर व स्कोरर एक-एक होते हैं.

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