दरभंगा: सिपाही लखींद्र चौधरी कोमा में है. पांच-10 दिनों से नहीं, बल्कि पूरे सात साल से. हाथ-पांच काम नहीं करते. गले में पाइप लगा है. उसी के सहारे भोजन दिया जाता है. लखींद्र की यह स्थिति किसी बीमारी या निजी कारणों से नहीं हुई. ड्यूटी के दौरान हुए हादसे ने उसे जिंदा लाश बना दिया. तब से लहेरियासराय पुलिस लाइन के क्वार्टर में पड़े हैं.
प्रशासन ने उसके समुचित इलाज की कोई व्यवस्था नहीं की. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह है कि इस हाल में होते हुए भी लखींद्र का तीन बार तबादला आदेश जारी कर दिया गया, जिसे किसी तरह रुकवाया गया. लखींद्र की पत्नी और उसके तीनों बच्चे, एक बेटी और दो बेटा तीमारदारी में लगे हैं. बड़ी बेटी महज 12 साल की है. प्रशासन ने मुंह फेर लिया, तो उसका इलाज कराने में परिवार
फटेहाल हो गया. मुजफ्फरपुर जिले के सरैया के रेवा की छह कट्ठा जमीन बिक चुकी और शेष जमीन बंधक रखनी पड़ी. पत्नी के जेवरात बिक गये. नाते-रिश्तेदारों और करीबियों का कर्ज हद से बढ़ गया है. पत्नी सीमा देवी अब टूट चुकी है. कहती हैं- जहां तक संभव था, कर लिया. अब तो बस देह पर का कपड़ा रह गया है. इतने पर भी इनकी हालत जस-की-तस बनी हुई है. अब एक ही रास्ता रह गया है. इनको उठा कर बड़े हाकिमों के दरवाजे पर रख दूंगी. वहीं जो होना होगा, हो जायेगा.
2006 के पंचायत चुनाव में लखींद्र समेत पांच सिपाहियों को मतपत्र लाने के लिए कोलकाता भेजा गया था. वहां से लौटने के क्रम में 27 अप्रैल, 2006 को नालंदा के पास इनकी बोलेरो गाड़ी में एक ट्रक ने ठोकर मार दी, जिससे उसमें सवार पांचों जवान घायल हो गये.
उनमें से चार तो इलाज के बाद ठीक हो गये, लेकिन लखींद्र आज तक कोमा में है. आज तक उन्होंने आंखें नहीं खोली हैं. ड्यूटी के दौरान हुए हादसे के बावजूद प्रशासन ने उसका इलाज कराना अपना दायित्व नहीं समझा. हां, ओहदेदार लोगों ने आश्वासनों की बौछार करने में कोई कोताही नहीं की. हालात को पथराई नजरों से निहारती आ रही लखींद्र की बड़े बेटी निशा कुमारी पूछती है, आखिर मेरे पापा का कसूर क्या है? क्यों नहीं उन्हें प्रशासनिक मदद मिल रही. उसका यह छोटा-सा सवाल पूरी प्रशासनिक कार्य संस्कृति पर गहरा सवालिया निशान लगा रहा है.