।। मिथिलेश ।।
पटना : लालू प्रसाद की राजनीतिक यात्रा शुरू होती है 1970 के पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव से. तब पटना विवि ने संशोधन किया था कि विवि के सभी छात्र अब सीधे छात्रसंघ के चुनाव में हिस्सा ले सकेंगे. इसके पहले तक कॉलेजों में काउंसलर का चुनाव होता था और वे अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी चुनते थे. उन दिनों पटना विवि में शिवानंद तिवारी की तूती बोलती थी. समाजवादी छात्र युवजन सभा के वह कर्ता–धर्ता थे. लालू प्रसाद का संपर्क शिवानंद तिवारी से हुआ और उन्होंने लालू को समाजवादी युवजन सभा का सदस्य बनवाया. 1970 में पटना विवि छात्रसंघ का चुनाव हुआ. लालू शिवानंद तिवारी के पैनल के उम्मीदवार थे. लालू महासचिव चुन लिये गये. यह लालू की पहली राजनीतिक सीढ़ी थी.
इसके बाद आया 1973 का छात्रसंघ का चुनाव. लालू इस चुनाव में जीत गये और पटना विवि छात्रसंघ के अध्यक्ष बने. उन दिनों लालू पटना विवि के लॉ के छात्र थे. वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पटना इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र थे. एक गरीब घर के छात्र का पटना विवि छात्रसंघ का अध्यक्ष बन जाना अपने आप में राजनीति की अनोखी घटना थी. लालू की टीम में सुशील कुमार मोदी भी थे. उन्होंने छात्रसंघ के महासचिव का चुनाव लड़ा और जीते.
भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद सहायक सचिव बने. पटना विवि में समाजवादी युवजन सभा का एक विंग काम करता था. सुरेश शेखर पटना साइंस कॉलेज के छात्र थे. वह इसके सक्रिय सदस्य रहे थे. छात्र जीवन में लालू के सबसे करीबी मित्र रहे थे नरेंद्र सिंह. नरेंद्र सिंह वर्तमान में नीतीश सरकार में कृषि मंत्री हैं. वह लालू के साथ स्कूली दिनों के साथी रहे हैं. दोनों पटना के मिलर स्कूल के छात्र रहे है. नरेंद्र सिंह राजनीतिक परिवार से आते हैं. कहते हैं कि उनकी मां जब भी अपने बेटे के लिए कुर्ता–पायजामा सिलवाती थीं, एक सेट लालू के लिए भी बनवाती थी.
कॉलेज के दिनों में वह रंजन प्रसाद यादव के करीब आये. पटना लॉ कॉलेज में उनसे एक साल जूनियर रहे यदुवंश गिरि कहते हैं– 1973 में छात्रसंघ का चुनाव जीतने में उन्होंने सुशील कुमार मोदी से हाथ मिलाया था. मोदी उन दिनों अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य थे. इसके पहले 1972 के पटना विवि छात्र संघ के चुनाव में वह रामजतन सिन्हा से परास्त हो गये थे. छात्रसंघ का चुनाव हार जाने के बाद लालू ने पटना वेटनरी कॉलेज में दैनिक वेतनभोगी की नौकरी कर ली. इसी समय उनकी मित्रता रंजन प्रसाद यादव से हुई. रंजन प्रसाद यादव पटना साइंस कॉलेज में जियोलॉजी विभाग में एमए के छात्र थे.
रंजन की मदद से सुशील कुमार मोदी खेमे से लालू का तालमेल हुआ और दोनों का एक पैनल तैयार हुआ, जिसमें दोनों नेता चुने गये. छात्र जीवन में लालू लड़कियों में बहुत लोकप्रिय थे. कैरीकेचर के कारण उनकी अलग पहचान थी. बीएन कालेज के दिनों में रामेश्वर सिंह उर्फ लोहा सिंह के प्रसिद्ब डायलॉग याद थे. छात्रों के बीच डायलॉग को लोहा सिंह के ही अंदाज में सुनाते थे.
लालू प्रसाद के सामने अब कई चुनौतियां हैं. एक तो कानूनी शिकंजा, ऊपर से लोकसभा चुनाव सिर पर. बिहार और दिल्ली की सत्ता से बेदखल हुए लालू के लिए चौतरफा खतरा है. पार्टी, जनाधार और खुद के राजनीतिक जीवन पर सवाल उठ खड़ा हुआ है. एक समय 22 सांसदों वाली पार्टी अब तीन की संख्या पर आकर सिमट गयी है.
छह माह बाद लोकसभा का चुनाव होना है. कांग्रेस को बिहार में एक नया साथी मिलते दिख रहा है. चुनावी तालमेल में यदि कांग्रेस ने राजद को यूपीए में शामिल नहीं किया, तो जदयू की ताकत बढ़ेगी, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. आने वाले दिनों में केंद्र में कांग्रेस से बढ़ रही दूरी पार्टी के लिए घातक भी साबित हो सकती है. चुनाव के बाद केंद्र में यदि नरेंद्र मोदी की चली, तो लालू के लिए यह और भी मुश्किल भरा समय साबित होगा. चुनाव में जदयू की ताकत कम नहीं हुई और राजद भी नही आगे बढ़ा, तो जेल में बंद लालू के लिए यह परेशानी का सबब बन सकता है.
* क्या फिर उबरेंगे?
राजनीति में कभी किसी के खत्म होने की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. और लालू तो हर बार गिर कर उठते रहे हैं. आरंभिक दिनों से अब तक लालू ने कई खतरों को पार कर नयी ताकत के साथ उठे हैं. उनके राजनीतिक विरोधी भी इस बात को स्वीकारते. लालू को दोषी ठहराये जाने की पहले से ही अंदेशा था. इसलिए उन्होंने कुछ दिन पहले ही पार्टी के कोर नेताओं की बैठक बुलायी थी. उन्होंने सभी के बीच काम बांट दिये. जिम्मेवारियां तय कर दीं. फिलहाल दल के भीतर लालू के लीडरशिप पर कोई संकट नहीं दिख रहा. लालू के बेस वोट में बिखराव नहीं दिख रहा. यादव मतदाताओं की खामोशी लालू के पक्ष में माना जा रहा. यदि यादव मतदाताओं का लालू को साथ मिला, तो मुसलिम मतदाताओं का भी समर्थन उन्हें मिल सकता है.
बिहार का चुनावी परिदृश्य जातिगत समीकरणों में ही सिमटती रही है. मुसलिम मतदाताओं का समर्थन उसी उम्मीदवार को मिलेगा, जिसमें भाजपा को हराने की कूबत होगी. यह कूबत जहां राजद की होगी, लालू को समर्थन मिलेगा. जहां जदयू की होगी वहां वोट जदयू को मिलेगा. ऐसी स्थिति में यदि राजद ने उम्मीदवारों का चयन सामाजिक समीकरणों के आधार पर तय किया तो नतीजा सर्वे के तथ्यों को सच भी साबित कर सकता है.
2004 के बाद आया 2009 का लोकसभा चुनाव. इस चुनाव में लालू ने कभी सोचा भी नहीं कि राजनीति में इतनी खराब स्थिति उनकी होने वाली है. उनकी ताकत महज चार सांसदों की रह गयी. उनके दल के अधिकतर बड़े नेता चुनाव हार गये. जिस रंजन प्रसाद यादव को उन्होंने अपने से अलग होने के बाद राज्यसभा में घुसने नहीं दिया था, पाटलिपुत्र सीट पर लालू प्रसाद उन्हीं से पराजित हो गये. ताकत घटी तो दिल्ली में भी उन्हें नजरअंदाज किया गया.
कल तक उनके एक इशारे पर झुकने वाली कांग्रेस सरकार ने लालू को दरकिनार करना शुरू कर दिया. हालांकि लालू अंत–अंत तक यूपीए-2 की सरकार को अपना समर्थन देते रहे. गिर कर उठने के आदी रहे लालू निराश नहीं हुए. आरंभिक दिनों में उन्हें ऐसा लगा कि देर–सबेर यूपीए सरकार में उन्हें शामिल किया जायेगा. लेकिन जब चुनाव की तिथि करीब आने लगी, तो उन्होंने बिहार में फिर खुद को केंद्रित किया.
22 विधायकों वाली उनकी पार्टी के टूटने की लगातार अटकलें आती रहीं. पर, राजनीति के माहिर खिलाड़ी लालू को अपने साथियों पर पूरा भरोसा था. लालू की परिवर्तन यात्रा आरंभ हुई. जिलों में उनकी सभाओं में भीड़ जुटने लगी. नीतीश विरोधी मतों का राजद के पक्ष में गोलबंदी का अहसास होने लगा था. जब भाजपा से जदयू ने अलग होने की घोषणा की तो लालू का विश्वास और भी बढ़ा.
चुनाव पूर्व सर्वे ने भी उनके विश्वास को ताकत दी. सर्वे के अनुसार बिहार में राजद को सबसे अधिक लाभ मिलने वाला था. लालू ने राजद के नेताओं व कार्यकर्ताओं को गावों में जाने का निर्देश दिया. पांच वरिष्ठ नेताओं की कमेटी बनी, उन्हें इलाकाई प्रभार सौंपा गया. लालू एक बार फिर दिल्ली में ताकतवर होते, इसके पहले उन्हें चारा घोटाले के 17 साल पुराने मामले में जेल जाना पड़ा.
* हर बार गिरफ्तारी या सजा के बाद क्या कहा लालू ने
पहली बार 30 जुलाई, 1997 को जब लालू ने सरेंडर किया और उन्हें जेल भेज दिया गया तो लालू ने इसे विरोधियों की साजिश करार दिया. लालू ने कहा पिछड़ी जाति के होने के कारण उनके खिलाफ साजिश रची गयी और उन्हें फंसाया गया.
पांच जुलाई, 1997 को लालू प्रसाद ने अपनी पार्टी बनायी, राष्ट्रीय जनता दल के नाम से. लालू इसके पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. लालू के साथ रघुवंश प्रसाद सिंह समेत 17 सांसद साथ आये. इस समय चारा घोटाले की आंच आने लगी थी. जॉर्ज के नेतृत्व में समता पार्टी का गठन हो गया था. इसके बाद से ही लालू की मुश्किलें बढ़नी लगी थीं.
1998 में लोकसभा का चुनाव हुआ. इसमें राजद के 17 सांसद थे. मगर, अगले साल 1999 में जब मध्यावधि चुनाव की नौबत आयी, तो लालू को नुकसान उठाना पड़ा. यह वही समय था, जब बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की पार्टी समता पार्टी और भाजपा के साथ तालमेल हुआ था. राजद की सीटें सात पर आकर सिमट गयीं. वह भी तब, जब बिहार और झारखंड एक था और कुल सीटें 54 थीं. लेकिन, तीन साल बाद जब 2000 में लालू ने फिर से अपनी सरकार बनायी.
छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में लालू के राजनीतिक संपर्क बढ़ते गये. इसी समय देश में छात्र आंदोलन एक अलग स्वरूप ले रहा था. बिहार में भी 1974 में छात्र आंदोलन हुआ. जयप्रकाश नारायण ने इसकी अगुवाइ की. जेपी ने गुजरात में नवनिर्माण समिति का गठन किया था और देश भर के छात्रों को आंदोलन में आगे आने का आह्वान किया.
पटना विवि में भी छात्र नेताओं की बैठक हुई और जेपी को आमंत्रित किया गया. जेपी आये और 18 मार्च, 1974 को पूरे राज्य के छात्रों को पटना पहुंचने और बिहार विधानसभा घेरने की योजना बनी. यह लालू के राजनीति का पहला आंदोलन था. जेपी ने आंदोलन की अगुवाई की, तो सभी प्रमुख नेता जेल में बंद कर दिये गये. अपातकाल लागू कर दिया गया था. तमाम छात्र नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया. लालू को भी जेल जाना पड़ा. उन पर भी मीसा लगाया गया. धीरे–धीरे आंदोलन की लपटें पूरे राज्य में फैलती गयीं. चूंकि पटना केंद्रबिंदु बना रहा, इसलिए जेपी से उनकी निकटता बढ़ती गयी. जेपी से मिलने देश भर के समाजवादी नेता आते रहते थे. लालू का संपर्क बढ़ा.
।। सुशील कुमार मोदी ।।
आजादी के बाद लालू प्रसाद सबसे लोकप्रिय नेता रहे. जिस प्रकार प्रचंड समर्थन उन्हें मिला, शायद ही किसी नेता को इतना मिला हो. लेकिन, लालू प्रसाद ने जनसमर्थन का दुरुपयोग किया. यही कारण है कि हाल के दिनों में उनकी जो सभाएं हुईं, उनमें दो हजार से भी कम लोग जुटे. जिस प्रकार उनकी एक बोली पर हजारों लोग आ जुटते, वैसी अब लोकप्रियता नहीं रही.
चारा घोटाला के कारण जनसमर्थन धीरे–धीरे समाप्त हो गया. मैं सबसे लंबे समय से लालू प्रसाद को जानता हूं. 1973 में वह छात्र संघ के अध्यक्ष थे, मैं महासचिव था. फिर वे मुख्यमंत्री बने, मैं विपक्ष का नेता हुआ. छात्र राजनीति में वो कैजुअल रहे. उस समय भी नॉन सीरियस थे, बाद में भी अपने को बदला नहीं. इसी का दुष्परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा. एक समय राजनीति में उनकी भूमिका होती थी, अब हाशिये पर चले गये हैं. लालू ने उस युग को खो दिया, जब उन्हें बड़ा जन समर्थन मिला था. जन समर्थन को वह वोट बैंक में बदल सकते थे. लोगों में सामाजिक चेतना जगी, सशक्तीकरण हुआ, लेकिन आर्थिक मोरचे पर उन्होंने कुछ नहीं किया. वे कहा करते थे, विकास से वोट नहीं मिलता, इसका फल उन्हें भुगतना पड़ा.
पटना. अनुग्रह नारायण सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक व समाजशास्त्री डॉ डीएम दिवाकर ने कहा कि सत्ता में बने लोगों के लिए न्यायालय द्वारा दिया गया न्याय निर्णय बड़ी सीख है. उन्होंने कहा कि प्रसिद्ध समाजविज्ञानी कैलेस्की का मानना है कि जो लोग नीचे से ऊपर आते हैं, सत्ता में सहभागी बनते हैं, उन्हें पहले से सत्ता में मौजूद तंत्र द्वारा जाने अनजाने उपयोग में लाया जाता है. डॉ दिवाकर ने कहा कि प्लेयर कोई भी हो, व्यवस्था पर जिनकी पकड़ होती है, वह उन्हें नेता भी बनाता है, इस्तेमाल भी करता है. ऐसे प्लेयर पूंजी के पैरोकारी में लग जाते हैं. अपने समाज को भूल जाते हैं.
इसके विपरीत दूसरी धारा चाहती है कि ऐसे लोग पूंजी के खिलाफ न हों. सत्ता पर पकड़ मूलत: नौकरशाही की होती है. नौकरशाही की प्रवृत्ति होती है कि किसी प्रकार उसे ऐसे फंसा लो ताकि वह उसके खिलाफ न जाये. जहां तक लालू प्रसाद का प्रश्न है, वे बिल्कुल सामान्य व्यक्ति से मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे. तब कोई ऐसा सोच भी नहीं सकता था. पहले दौर में उन्होंने अपने समाज को याद रखा. तब दूसरे दौर में उन्हें प्रचंड बहुमत से सत्ता में वापसी मिली. इसके साथ ही जब लालू ने नौकरशाही का सहयोग व विश्वास हासिल करने के बजाय उस पर आधिपत्य करना शुरू किया, तब नौकरशाही उनके खिलाफ हो गयी.
जब तक लालू समाज के साथ रहे, तब तक नौकरशाही उनकी बातों को फॉलो करती रही, जैसे ही उन्होंने नौकरशाही पर लगाम लगाने की कोशिश की, सामाजिक परिवर्तन की धारा से दूर होते गये, तब एक तबका उनका विरोधी होता गया. हालांकि कुछ लोगों ने नौकरशाही में रहते हुए लालू का साथ दिया, लेकिन कोर्ट के न्याय निर्णय से स्पष्ट हो गया कि गलत मंसूबे से किये गये कार्यों का नतीजा बुरा होता है.
फिलवक्त यह कहना कि लालू जेल में हैं, तो सामाजिक परिवर्तन की धारा टूट गयी है, प्री मैच्योर होगा. निसंदेह यह कहा जा सकता है कि जिस सामाजिक परिवर्तन की धारा को आगे ले जाने में लालू चूक गये, उसे नीतीश कुमार आगे ले जा रहे हैं. जातीय राजनीति के स्थान पर विकास की राजनीति शुरू हुई है, लेकिन सामाजिक समीकरणों पर से अब भी लालू की पकड़ कम नहीं हुई है.
(कौशलेंद्र मिश्र से बातचीत पर आधारित)
।। डॉ शकील कुमार सिंह ।।
(मनोचिकित्सक)
वरीय मनोचिकित्सक डॉ शकील कुमार सिंह ने कहा कि सत्ता व पावर से व्यक्ति उन्मादी बन जाता है. ईमानदार व धैर्यवान व्यक्ति पावर का उपयोग सामाजिक कार्य व विकास में करते हैं. इसके ठीक विपरीत उन्मादी प्रवृत्ति से मनोवृत्ति बदल जाती है. सत्ता व पावर में रहनेवाले व्यक्ति को महसूस होता है कि वही सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है. वह जो चाहे कर सकता है. उस पर अंकुश रखनेवाला कोई नहीं है. ऐसे में धन संग्रह व अन्य मनोविकृत्तियां प्रबल होने लगती हैं.
ऐसे लोगों को लगता है कि वह कानून का उल्लंघन भी करेगा, तो कानून की पकड़ से बच जायेगा. उसके सामने कानून की पकड़ में पावरफुल व्यक्तियों के आने कस कोई उदाहरण नहीं होने से वह स्वेच्छाचारी हो जाता है. लालू प्रसाद जब सत्ता में आये, तब के हालात आज से भिन्न थे. तब, किसी बड़े नेता को भ्रष्टाचार या किसी अन्य आरोपों में गंभीर सजा नहीं मिली थी.
।। डॉ शैबाल गुप्ता ।।
(सदस्य सचिव आर्दी)
1990 दशक की शुरुआत में जब लालू प्रसाद ने बिहार की बागडोर संभाली थी, तो यह उनकी राजनीतिक कुशलता का सिर्फ परिणाम नहीं था. बल्कि 43 साल की आजादी और करीब 70 वर्षों की सामाजिक न्याय, समाजवाद और पिछड़ावाद की ताकत उनके पीछे खड़ी थी. लेकिन लालू प्रसाद ने इन चीजों को कुछ ही दिनों में बहुत पीछे छोड़ दिया. यह सही है कि लालू प्रसाद के शासनकाल में या जब तक लालू डिफेक्टो रूप में प्रभावी रहे , कहीं सांप्रदायिक ताकतों ने सिर नहीं उठाया. बिहार में न्यू कल्चरल इम्पावरमेंट का नया दौर आरंभ हुआ.
मगर, गवर्नेंस की क्वालिटी धीरे–धीरे घटने लगी. यह बात जरूर है कि बिहार में कभी गवर्नेंस स्ट्रांग प्वाइंट नहीं रहा. यह कह सकते हैं कि बिहार वाज ए हिस्टोरिकली वन आफ द वस्र्ट स्टेट़ बिहार ऐतिहासिक रूप से देश के सबसे खराब गवर्नेंस वाला राज्य रहा है. लेकिन, लालू प्रसाद के समय यह और भी खराब होता गया. बाद के दिनों में भी लालू रैडिकल प्रोग्राम लेने में असमर्थ रहे.
15 साल में बिहार में कम–से–कम कुछ भी नहीं कर करते तो वह भूमि सुधार तो लागू कर ही सकते थे. भूमि सुधार कानून लागू करने से उनका सोशल ग्रुप और भी मजबूत होता तथा पिछड़ी जातियां उनके साथ गोलबंद होतीं.
लालू प्रसाद के कार्यकाल में सोशल इम्पावरमेंट के साथ कोई कंक्रीट इकोनॉमिक एजेंडा जुड़ जाता तो भूमि सुधार के साथ ही बड़ा काम होता. बल्कि, बिहार हिंदी हर्टलाइन में नया स्क्रीप्ट भी लिख देता. लेकिन उन्होंने गवर्नेंस और एडमिनिस्ट्रेशन को गंभीरता से नहीं लिया.
एक सबलटन लीडर होने के बावजूद भी सामंती ताकतों के कब्जे में वे धीरे धीरे आते गये. जिसके चलते शासन प्रशासन में, यहां तक कि उनके व्यक्तित्व में भी कई तरह के नकारात्मक दृष्टिकोण उभरे. इतना ही नहीं बिहार के सोशल जस्टिस और इम्पावरमेंट के आंदोलन में जो उनके साथी थे, जिसमें नीतीश कुमार एवं अन्य, एक खेमे में नहीं रह पाये. गवर्नेंस बिहार में इसलिए भी जरूरी था कि किसी भी दृष्टिकोण से बिहार देश का सबसे पिछड़ा राज्य था.
एक साथ कई एजेंडे के इंटरवेंशन की जरूरत थी. जितनी राजनीतिक और प्रशासनिक गंभीरता की जरूरत थी, लालू प्रसाद के समय यह गैरमौजूद रही. नीतीश कुमार ने इस अनुपस्थिति की भरपायी की. यह बहुत ही अनफोरचुनेट है कि बिहार का सामाजिक न्याय का खेमा बंटा हुआ है.
अभी जरूरत है सेकुलरिज्म और राष्ट्रीय एकता के लिए सभी सामाजिक न्याय को एक साथ मिल जाने की. यह एक बहुत बड़े इतिहास का तकाजा भी है. इस तकाजे को जो कोई नजरअंदाज करेगा, उसे इतिहास माफ नहीं करेगा. मगर, जिस ढंग से बिहार केंद्र की गलत आर्थिक नीतियों का शिकार होता आया है, अंडर डेवलप्ड एंड सबलटन सेंट्रीक पॉलिसी अडाप्ट करना बहुत जरूरी है. यह नेशनल डेवलपमेंट का एजेंडा सेट करेगा और विकासशील राज्यों के लिए नया मील का पत्थर लेकर आयेगा.
लालू कैबिनेट के मंत्री रामजीवन सिंह ने किया था आगाह
।। अजय कुमार ।।
लालू प्रसाद ने अगर तत्कालीन पशुपालन मंत्री रामजीवन सिंह की बात मान ली होती, तो उन्हें चारा घोटाले में जेल जाने की नौबत नहीं आती. 17 अगस्त, 1990 को ही सिंह ने पशुपालन विभाग की फाइल पर लूट की जांच सीबीआइ से कराने की सिफारिश कर दी थी. करीब छह वर्षों बाद अदालत के निर्देश पर इस मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गयी.
रामजीवन सिंह ने बातचीत में कहा : 1990 में 14 मार्च को हमने मंत्री पद की शपथ ली थी. उसके अगले दिन से काम शुरू किया. कुछ फाइलें मेरे पास भेजी गयीं. उसे देखने से ही ऐसा लगा कि कुछ न कुछ गड़बड़ है. एक फाइल सामान की खरीद से थी. उस पर एजी ने आपत्ति जाहिर की थी. विभाग के अधिकारी चाहते थे कि मैं उस पर साइन कर दूं. पर मैं उसकी जड़ तक जाना चाहता था. तब के कमिश्नर के अरुमुगम मेरे पास आये. बोले कि पशुपालन विभाग के निदेशक ने इस मामले की जांच की है. उन्होंने कोई गड़बड़ी नहीं देखी है. रामराज राम उन दिनों निदेशक थे.
1977 में कपूरूरी ठाकुर की कैबिनेट में पहली बार मंत्री बनने वाले रामजीवन सिंह ने कहा : पशुपालन विभाग में कुछ ऐसी घटनाएं घट रही थीं, जिससे मेरा माथा ठनकता रहता था. ऐसा लगता था कि यहां कुछ ऐसी बातें हो रही हैं जो अप्रत्याशित किस्म की हैं. मुझे अच्छी तरह याद है कि एक फाइल देख रहा था. वह दक्षिण बिहार (अब झारखंड) में गरीब आदिवासियों को गाय देनी थी. यह केंद्र सरकार की योजना थी. आदिवासियों को 1000 गायें दी गयीं. फाइल में लिखा हुआ था कि उनमें से 750 गायें मर गयीं. यह देख मैं चौंक पड़ा. मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि गायों की मौत कैसे हो गयी.
सिंह कहते हैं: पशुपालन विभाग में 1988-89 से ही भारी गड़बड़ी चली आ रही थी. स्कूटर पर सांढ़ और गाय ढोने की बात उसी समय की है. उस पर भी एजी ने गहरी आपत्ति जाहिर की थी. मंत्री बनने के बाद, उसी महीने 31 मार्च को एक फाइल मेरे पास पहुंची. दवा खरीद के मद में करीब तीन करोड़ रुपये निकाला जाना था.
मैंने पूछताछ की तो बताया गया कि अगर आज ट्रेजरी से पैसा नहीं निकलेगा तो इतनी बड़ी राशि लैप्स कर जाएगी. मैंने अधिकारियों से पूछा कि क्या दवा खरीद के लिए टेंडर वगैरह हुआ है, जवाब मिला नहीं. मैंने फाइल लौटा दी. इजाजत मैंने नहीं दी. करीब साढ़े पांच महीने तक पशुपालन विभाग में था. इस दौरान कई स्तरों पर गड़बड़ी देखी.
17 अगस्त 1990 को एक फाइल पर हमने मुख्यमंत्री को लिखा कि यहां विभिन्न योजनाओं में भारी गड़बड़ी दिख रही है. बेहतर होगा कि इस मामले की सीबीआइ जांच करायी जाये. क्या आपकी बात मान ली गयी होती तो..रामजीवन सिंह कहते हैं: देखिए मैं इसका श्रेय नहीं लेना चाहता. जब इसकी जांच सीबीआइ को दी गयी तो हमसे भी पूछताछ की गयी.
पशुपालन विभाग का मंत्री रहते जो अनुभव किया था, उसे बता दिया था. सांप और संचिका विष से भरे होते हैं. मारने पर सांप भले मर जाये पर संचिका का विष कब किसे डंस ले, कोई नहीं जानता.
लालू प्रसाद की राजनीतिक यात्रा शुरू होती है 1970 के पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव से. इन्हीं दिनों लालू प्रसाद का संपर्क शिवानंद तिवारी से हुआ. उन्होंने लालू को समाजवादी युवजन सभा का सदस्य बनवाया. 1970 में पटना विवि छात्रसंघ का चुनाव हुआ. लालू शिवानंद तिवारी के पैनल के उम्मीदवार थे. लालू महासचिव चुन लिये गये. यह लालू की पहली राजनीतिक सीढ़ी थी.
– 1973 छात्रसंघ अध्यक्ष बने
इसके बाद आया 1973 का छात्रसंघ का चुनाव. लालू इस चुनाव में पटना विवि छात्रसंघ के अध्यक्ष बने. उन दिनों लालू पटना विवि के लॉ के छात्र थे.
बिहार में भी 1974 में छात्र आंदोलन हुआ. पटना विवि में भी छात्र नेताओं की बैठक हुई और जेपी को आमंत्रित किया गया. जेपी आये और 18 मार्च, 1974 को पूरे राज्य के छात्रों को पटना पहुंचने और बिहार विधानसभा घेरने की योजना बनी. यह लालू के राजनीति का पहला आंदोलन था.
चार नवंबर, 1975 को पटना में जेपी पर पुलिस ने लाठियां चलायी थीं. उस समय लालू जेपी के साथ ही थे. लालू ने अपनी पीठ पर लाठियां रोकी थीं. नामांकन के दिन और चुनाव प्रचार के दौरान यही प्रचारित किया जाता कि एक नौजवान ने अपनी पीठ पर लाठियां खाकर जेपी को बचाया था.
आपातकाल खत्म हुआ. 1977 में आम चुनाव की घोषणा हुई. जनता पार्टी बनी. लालू को छपरा संसदीय क्षेत्र से टिकट मिला और वह भारी बहुमत से चुनाव जीत कर सांसद बन गये. लालू ने अपने को जेपी के प्रिय छात्र नेताओं मे स्थापित किया.
1980 का लोकसभा चुनाव हुआ. लालू प्रसाद छपरा से पराजित हो गये. संसदीय जीवन में लालू का पहली बार पराजय का सामना करना पड़ा.1984 के लोकसभा चुनाव में भी लालू को रामबहादुर सिंह के हाथों शिकस्त खानी पड़ी. लेकिन, वह निराश नहीं हुए. उन्होंने विधानसभा चुनाव में भाग्य आजमाया. पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास, जो सोनपुर विधानसभा से चुनाव जीतते आये थे, को लालू ने 1980 और 1985 में दो बार भारी मतों से पराजित कर दिया. वह 1989 तक विधायक रहे.
1989 में लोकसभा का चुनाव हुआ. लालू एक बार फिर छपरा लौटे. चुनाव लड़े और सांसद बन गये. अब सांसद लालू की नजर विधानसभा चुनाव पर थी और लक्ष्य मुख्यमंत्री की कुरसी पर.
10 अप्रैल, 1990 को लालू प्रसाद ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथग्रहण किया.
11 मार्च, 1996 को पटना हाइकोर्ट ने इस याचिका पर फैसला दिया. चारा घोटाले से संबंधित सभी मामलों की जांच सीबीआइ को सौंपने का आदेश दिया. 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर मुहर लगायी. सीबीआइ ने छह मामलों में लालू प्रसाद को षड्यंत्रकर्ता के रूप में चिह्न्ति किया और आरोपपत्र में इनके भी नाम डाले. इस समय लालू बिहार के मुख्यमंत्री थे. देश की यह पहली घटना थी, जब किसी मुख्यमंत्री को सीबीआइ ने आरोपित किया.
पांच जुलाई, 1997 को लालू प्रसाद ने अपनी पार्टी बनायी, राष्ट्रीय जनता दल के नाम से. लालू इसके पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. उनके साथ रघुवंश प्रसाद सिंह समेत 17 सांसद साथ आये. इस समय चारा घोटाले की आंच आने लगी थी.
29 जुलाई, 1997 को जब सुप्रीम कोर्ट ने लालू प्रसाद की जमानत याचिका खारिज कर दी, तो उनका जेल जाना तय हो गया. आरसी 20/96 के मामले में लालू ने 30 जुलाई को पटना के सीबीआइ की विशेष अदालत में सरेंडर किया. कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया. 12 दिसंबर,1997 को जमानत मिली.
1998 में लोकसभा का चुनाव हुआ. इसमें राजद के 17 सांसद थे. मगर, 2000 में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ, तो लालू फिर से अपनी पार्टी की सरकार बनाने में सफल रहे.
इसके बाद सीबीआइ ने लालू के खिलाफ आय से अघिक संपत्ति का मामला दर्ज किया. इस केस में भी उन्हें करीब एक महीने जेल में रहना पड़ा. चारा घोटाले के एक और मामले आरसी 47/96 के सिलसिले में लालू को झारखंड स्थित सीबीआइ की विशेष अदालत में 26 नवंबर, 2001 को सरेंडर करना पड़ा.
लालू को 10 जनवरी, 2002 को जमानत मिली और वे बाहर आये.
– 2004 रेल मंत्री का पद संभाला
2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए पराजित हो गया. केंद्र में यूपीए की सरकार बनी. लालू के राजद को बिहार की 40 लोकसभा सीटों में 22 सीटें मिलीं. केंद्र में लालू ताकतवर नेता के रूप में उभरे. उन्हें रेल मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण पद मिला. रेल मंत्री के रूप में लालू ने कई कीर्तिमान स्थापित किया.
2005 के विधानसभा चुनाव में बिहार में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला और कोई सरकार बनती नहीं दिखी, तो आधी रात में उनके कहने पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक हुई, जिसमें बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने का निर्णय लिया गया और उसी समय विदेश में रहे राष्ट्रपति को भेजा गया, जहां उन्होंने हस्ताक्षर किये.
2009 का लोकसभा चुनाव. इस चुनाव में लालू ने कभी सोचा भी नहीं कि राजनीति में इतनी खराब स्थिति उनकी होने वाली है. उनकी ताकत महज चार सांसदों की रह गयी.
03 अक्तूबर 2013– ?
– आगे क्या
* छह अक्तूबर को राबड़ी देवी के आवास पर राजद के बड़े नेताओं की होगी बैठक
* इसमें पार्टी की दिशा व रणनीति पर होगा मंथन
* दुर्गापूजा के बाद राबड़ी देवी राज्य का कर सकती हैं दौरा