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सुनना कलाम को समझना बिहार को
– हरिवंश – तीन मई को पुन: डॉ एपीजे अब्दुल कलाम को सुना. तीसरी बार. दो बार राष्ट्रपति रहते हुए. इस बार पूर्व राष्ट्रपति के रूप में. अवसर था बिहार विधान परिषद द्वारा आयोजित शताब्दी व्याख्यान. पटना के रवींद्र भवन में. डॉ कलाम की यह छठी बिहार यात्रा थी. इस कार्यक्रम में हम शरीक हुए, […]
– हरिवंश –
तीन मई को पुन: डॉ एपीजे अब्दुल कलाम को सुना. तीसरी बार. दो बार राष्ट्रपति रहते हुए. इस बार पूर्व राष्ट्रपति के रूप में. अवसर था बिहार विधान परिषद द्वारा आयोजित शताब्दी व्याख्यान. पटना के रवींद्र भवन में. डॉ कलाम की यह छठी बिहार यात्रा थी. इस कार्यक्रम में हम शरीक हुए, सौजन्य ताराकांत झा जी, बिहार विधान परिषद के सभापति (चेयरमैन).
झा साहब को वर्षों से जानता हूं, पर यह जानना एकपक्षीय था. वह अग्रणी वकील रहे. भाजपा के सक्रिय और बड़े नेता. पत्रकार के रूप में सार्वजनिक जीवन के बड़े लोगों को जानना मजबूरी भी है. नौकरी चलाने-बचाने के लिए. पर पिछले छह-आठ महीने में उनसे कार्यक्रमों में ही मुलाकात हुई. दो-तीन बार.
पटना में एकाध बार सस्नेह उनका निमंत्रण आया मिलने के लिए. पर पटना रहना बड़ा कम होता है. सो उनसे अलग से मिलना नहीं हुआ. अप्रैल में अचानक एक दिन सुबह घर पर फोन आया, मैं आपसे मिलना चाहता हूं. मैंने कहा, मैं तो रांची में हूं. उनके शब्द थे, आज आपको पटक दिया. मैं रांची आया हूं. आपसे मिलूंगा.
जानता था, 83 वर्ष पुराने ताराकांत जी, बाहर दफ्तरों में कहीं आते-जाते नहीं. इस कारण उनका प्रस्ताव सुन कर पहले बड़ा खेद हुआ कि क्यों नहीं, पटना जाकर पहले उनसे मिला. भारतीय संस्कृति की शिष्टता, मर्यादा और संस्कार कहते हैं, बड़ों के प्रति पहले सम्मान. इसलिए और भी आत्मग्लानि हुई. खुद छोटा अनुभव किया.
गांवों में अनुभव किया था. बचपन-कैशोर्य में. बुजुर्ग और बड़ों का नि:स्वार्थ स्नेह. बाजार की दुनिया में बगैर स्वार्थ वह भाव अब कहां? झा जी की बातों से वे दिन, भाव और दुनिया याद हो आये. भारतीय संस्कार में पले एक बुजुर्ग के स्नेह और अपनत्व ने प्रभावित किया. उन्हें हमने रांची दफ्तर न्योता. वह विद्यापति समारोह में आये थे. उनका काफी व्यस्त कार्यक्रम था. फिर भी वह आये.
पहली बार आमने-सामने बतियाने और उन्हें सुनने का मौका मिला. वह सरस्वती पुत्र हैं. मिथिला की संस्कृति की गहरी जानकारी उनमें है. वह कहते हैं कि अब मेरा जीवन इस संस्कृति को छीजने से बचाने के लिए ही समर्पित है. इसी यात्रा में उन्होंने भामति का प्रसंग सुनाया. यह सबके सुनने के लायक है.
भामति ग्रंथ मैथिली विद्वान वाचस्पति मिश्र ने नौवीं सदी में लिखा. भामति लिखे जाने के पीछे की बात. शंकराचार्य ने आदि ग्रंथ ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा. इसे शंकरभाष्य कहा गया. मगर, यह संपूर्ण प्रतीत नहीं हुआ. लोगों की जिज्ञासा खत्म नहीं हुई. तब आदि शंकराचार्य मिथिला आये. उन्होंने यहां के विद्वान वाचस्पति मिश्र के बारे में सुना था. वाचस्पति मिश्र वर्तमान मधुबनी जिले के ठाढ़ी गांव के रहने वाले थे. यह इलाका आज कल अंधराठाढ़ी के नाम से जाना जाता है.
आदि शंकराचार्य वाचस्पति मिश्र से मिले. ब्रह्मसूत्र पर लिखे गये शंकरभाष्य पर अलग से टीका लिखने का अनुरोध किया. वाचस्पति मिश्र राजी हुए. उन्होंने टीका लिखनी शुरू कर दी. जनश्रुति है कि टीका लिखने में वाचस्पति मिश्र को पूरे 18 वर्ष लगे. जब टीका तैयार हुई और वाचस्पति मिश्र मां भगवती की पूजा के लिए उठ खड़े हुए, तो उनकी नजर सामने खड़ी एक महिला पर पड़ी.
महिला हाथों में आरती की थाल और फूल लिये खड़ी थी. वाचस्पति मिश्र ने महिला से पूजा का सामान लिया. पूजा की. डूब कर. तन्मय होकर. सुध-बुध खोकर. पूजा के बाद बाहर निकले. खड़ी महिला से पूछा कि आप कौन हैं? यहां किसलिए आयी हैं.
यह सुन कर महिला की आंखों से आंसू की धारा बहने लगी. महिला ने कहा – मैं आपकी पत्नी हूं. भामति मेरा नाम है. मैं पिछले 18 वर्षों से आपकी सेवा करती आ रही हूं. आप जब लिखने बैठते, तो उसके पूर्व पूजा के लिए फूल और अन्य जरूरत का सामान रखती हूं. महिला की बात सुन वाचस्पति मिश्र अवाक रह गये. तब उन्हें अपनी पत्नी का भान हुआ. वाचस्पति मिश्र भी रो पड़े. वाचस्पति मिश्र ने पत्नी के आंसू पोंछते हुए कहा -तुम धन्य हो.
उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सका, पर इस पुस्तक का नाम भामति रहेगा. 18 वर्षों की साधना और तप से निकली रचना अपनी पत्नी के नाम समर्पित कर दिया. उस देवी की मूक सेवा, भक्ति और साधना का ॠ ण चुकाने के लिए. दर्शनशास्त्र पर भामति प्रसिद्ध ग्रंथ माना गया. इसमें दर्शन की 12 शाखाओं पर विस्तार से चर्चा की गयी. मिथिला में एक और वाचस्पति मिश्र हुए. इनका काल 13वीं सदी का था. इनका निवास मधुबनी जिले के समौर में था. यह भी बड़े विद्वान हुए.
ताराकांत जी से यह प्रकरण सुन कर तब से स्तब्ध हूं. मूक तप, त्याग और रातों की तपस्या के बिना अद्भुत सृजन नहीं होता. 18 वर्षों तक भामति का समर्पण, तपस्या और निष्ठा, वाचस्पति मिश्र का डूब कर लेखन, एकाग्रता, साधना और तप की वह ऊंचाई कि एक रचना से कोई अमर हो जाये. मनुष्य होने का सर्वश्रेष्ठ अलंकार शायद इससे बढ़ कर कुछ भी नहीं हो सकता.
यह सुनते हुए मुझे आजादी की लड़ाई के अनेक बेमिसाल कार्यकर्ता याद आये, जिनको दुनिया ने न कभी जाना, न सुना, न जिनकी मूर्तियां लगीं. पर अपने मूक बलिदान से वे समर्पण, शहादत और गौरव के अध्याय लिख गये.
चंद्रशेखर जयंती (17 अप्रैल को बोलते हुए) पर एक प्रसंग याद आया था, पर भूल गया, इसलिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं को न सुना सका. दो संस्करणों में प्रकाशित चंद्रशेखर की जेल डायरी 60 के बाद की राजनीति का अद्भुत दस्तावेज है. अपने शुरुआती वर्षों के बारे में उन्होंने लिखा कि वह लखनऊ में पार्टी का कामकाज संभाल रहे थे. ऑफिस में रहते थे. खुद बनाते-खाते थे. पार्टी कार्यकर्ता आते, तो उन्हें भी बना कर खिलाते. पार्टी के साथियों के जूठे बरतन मांजते-धोते. यह क्रम कई वर्षों तक चला.
तड़के सुबह उठ कर अंधेरे में वह यह सब कर डालते, कोई जानता भी नहीं था. उसी दौर में पूरे उत्तर प्रदेश का उन्होंने सघन दौरा भी किया. गांव-गांव तक पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों को लेकर. एक होली का विवरण बड़ा ही मार्मिक है. वह अकेले होते हैं. खाने का भी संकट है. पैसे होते ही नहीं थे. तब वो क्या महसूस करते हैं और अभाव भरे दिन कैसे लगते हैं, इसका उन्होंने उल्लेख किया है. किसी ने आचार्य नरेंद्र देव से जाकर यह बात कही. क्या आपने चंद्रशेखर को पार्टी दफ्तर में दूसरों का खाना बनाने और बरतन धोने के लिए रखा है? साथी कार्यकर्ता सोये होते, तो वह तड़के उठ कर यह सब करते थे. जिस बड़े नेता ने यह देखा, उन्होंने आचार्य नरेंद्र देव से यह बात कही.
पर वर्षों की ऐसी ही साधना, तप और तपस्या से चंद्रशेखर की पार्टी उत्तर प्रदेश में प्रमुख विरोधी दल बन कर उभरी. जीवन का यह रास्ता साधना का रास्ता है, जिस पर चल कर गांव के गरीब घर का लड़का, देश की सर्वोच्च कुरसी पर पहुंच जाता है. आज क्या हाल है राजनीति का? लोग कार्यकर्ता बने नहीं कि उन्हें विधायक और मंत्री पद चाहिए, मामूली अनुभव के बाद वह मुख्यमंत्री बन जाना चाहते हैं, फिर प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री की दौड़ में स्वत: अपना नाम शामिल करा देते हैं. यह फास्ट फूड और फास्ट कल्चर का जमाना है. इवरीथिंग नाउ (सब कुछ तुरंत). आधुनिक युवा पीढ़ी या आधुनिक समाज का दर्शन. सब कुछ तुरत-फुरत चाहिए. धैर्य-धीरज नहीं. परिश्रम, साधना, तप और त्याग बीते जमाने की अप्रासंगिक चीजें हैं, इस नये समाज में. पर पहले की पीढ़ी की निष्ठा, तप और साधना की बातें मन को छूती हैं. प्रेरित करती हैं.
भामति के प्रसंग ने भी अंदर से झकझोरा. भारत में त्याग की क्या ऊंचाई रही है? मनुष्य की गरिमा कितनी ऊंचाई तक पहुंची है? और आज हम कहां खड़े हैं. अपने सार्वजनिक जीवन में? भामति प्रसंग के साथ ही ताराकांत जी ने बिहार विधान परिषद के शताब्दी आयोजन पर चर्चा की.
उन्होंने कहा, अगला व्याख्यान तीन मई को पटना में है. वक्ता हैं डॉ कलाम. उनके एक कार्यक्रम में आमंत्रित होने के बावजूद अनुपस्थित होने का अफसोस था. इसलिए तय किया झा जी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में शरीक होना है और डॉ कलाम को पुन: सुनने के गौरव से वंचित नहीं रहना है.
तीन मई को समय से पहले हम रवींद्र भवन पहुंचे. पीछे बैठे, आगे का दृश्य देखने के लिए. कई सुखद आश्चर्य और अनुभूति हुई. बिहार के जाने-माने मंत्री, विधायक, राजनेता आ रहे थे. उनके साथ न बंदूकधारी थे, न बाहुबली. आगे की सीटें भरी थीं. सब चुपचाप बैठ रहे थे.
जिसको जहां जगह मिली. आगे या पीछे. अनुशासन और संयम के साथ. बिहार के सार्वजनिक जीवन में यह मर्यादित लोक व्यवहार देखना नया अनुभव था. पहले दबंग मंत्री आते थे, तो आगे की सीटों पर ही बैठते थे. अकेले नहीं, अपने साथ के शागिर्दों के साथ. पीछे बैठना मानो शान के खिलाफ हो. पर उस दिन रवींद्र भवन में देखा, आधा हिस्सा तो बच्चों से भरा था.
आगे से पीछे तक. आधे हिस्से में पहले से लोग जमे थे. लगभग 45 मिनट पहले ही. दूसरे भाग की आगे की कई कतारें भर चुकी थीं. सामान्य लोग भी बैठे थे. जो मंत्री देर से आये, वे खड़े भी रहे, या कहीं पीछे जाकर बैठे. मुख्यमंत्री डॉ कलाम के आने के 20 मिनट पहले ही पहुंच गये थे. वह अकेले ही आगे की दो पंक्ति छोड़ कर पीछे बैठे.
उनके साथ के बड़े अफसर एकदम पीछे. पीछे बैठा यह दृश्य सब देख रहा था, तो लगा कि बिहार के सार्वजनिक जीवन में अच्छी शुरुआत हो रही है. मंत्री और राजनेता खुद को विशिष्ट नहीं, सामान्य समझ रहे हैं. स्वानुशासन से बंधे हैं. अपने साथ खूबी यह थी कि बहुत कम लोगों से निजी पहचान या दरस-परस है. पर पत्रकार होने के नाते सबकी तसवीरें देखना, पहचानना मजबूरी है. इसलिए हम पीछे बैठे सब देख पा रहे थे. पहचान रहे थे. पर कोई हमें नहीं पहचानता था.
व्याख्यान सभा में नेताओं का बदला बरताव देखना सुखद आश्चर्य था. पहले के अनुभव हैं. मंत्री पहुंचने वाले होते थे कि उनके पहले ही उनके कारिंदे हाजिर. समूह में. हरबे-हथियार के साथ. लोगों को सीटों से हटाते-बैठाते, उठाते. एक भय का माहौल. अपने आप उठ कर पीछे हट जायें.
पर इससे भी अच्छा लगा, डॉ कलाम को सुनने की जो उत्सुकता बिहार के शासक वर्ग में दिखी. उन्होंने शुरुआत हिंदी में की, पर बोले अंगरेजी में. वह ओजस्वी वक्ता नहीं हैं, पर उनकी बातों में सार है. इससे भी आगे बढ़ कर अपने चरित्रबल और नैतिक जीवन के कारण वह श्रद्धा के पात्र हैं.
आज के भारत में आइकॉन या नायक की तरह. किसी बड़े-बुजुर्ग का सुनाया प्रसंग याद आया. गांधी भी बड़े वक्ता नहीं थे, पर उनके व्यक्तित्व की ऊंचाई की गरिमा अद्भुत थी. चरित्रबल या वाणी और कर्म में संगम था. एक सच्चा इनसान, इस कारण दुनिया उनको सुनती थी. डॉ कलाम को सुनते हुए मामूली झलक मिलती है कि बड़े-बड़े नेताओं या इतिहास मोड़नेवाले चरित्र कितने ऊंचे, महान और स्तब्ध करनेवाले होते होंगे.
अपनी साधना, सच्चाई, तप, त्याग और लोक के प्रति समर्पण के कारण नेता महान कैसे बनते हैं? कौन लोग युग परिवर्तनकर्ता होते हैं? हमेशा राजनीति, विचार, समाज परिवर्तन की पृष्ठभूमि से ही बदलावकारी जनमते हैं. समाज पर उनका जादुई प्रभाव रहता है. जो गांधी का था.
गांधी युग का वह अंश तो अब कहीं झलकता नहीं. भारत के लोकजीवन में एक शून्य है. युग परिवर्तनकर्ता नायक नहीं हैं. गांधी तो दूर की बात हैं. आज के भ्रष्ट माहौल में जेपी होते, तो देश में एक नयी फिजां होती. पर वह रोशनी नहीं है, तो जहां भी मामूली प्रयास हो रहे हैं, वे स्तुत्य हैं. पूज्य और प्रेरक.
आज कोई राजनेता-विधायक अलख जगाने का काम नहीं कर रहा, तो उस शून्य को एक हद या अपनी सीमा के तहत अकेले भरा है डॉ कलाम ने. अब डॉ कलाम को क्या चाहिए? वह सबसे बड़े पद पर रह चुके हैं. दुनिया के कोने-कोने से उन्हें निमंत्रण मिलते हैं. श्रेष्ठ संस्थाओं से. वह शीर्ष स्तर के वैज्ञानिक भी रह चुके हैं. दुनिया के टॉप वैज्ञानिकों और बौद्धिक लोगों के साथ संगत रही है. एक मामूली घर का लड़का, जिसने अखबार भी बेचा. सबसे शीर्ष पद पर भी रहे, कुछ सार्वजनिक मूल्यों के साथ. अब वह जिस शिखर पर हैं, उन्हें वहां कोई उपकृत नहीं कर सकता.
प्रभावित नहीं कर सकता. इसलिए वह किसी के बहकावे या झांसे में आकर किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते. ऐसे व्यक्ति के बारे में बिहार के मुख्यमंत्री ने जो भाव व्यक्त किये, वे अत्यंत ही गरिमापूर्ण और बिहार के बदलते मानस के संकेत हैं. नीतीश कुमार ने कहा कि हम विधायक, मंत्री उन्हें पुन: आमंत्रित करना चाहते हैं. वह आएं, एक टीचर और अध्यापक की तरह हम सब को बताएं. उन जैसे शिक्षक के चरणों में बैठ कर हम सभी विद्यार्थी की तरह पढ़ना, सीखना, जानना चाहते हैं.
भारत में ज्ञानसत्ता के प्रति राजसत्ता के सम्मान की सर्वश्रेष्ठ परंपरा रही है. ॠषियों की बात छोड़ दीजिए. चाणक्य के सान्निध्य में चंद्रगुप्त तपे. प्रतापी बने. इतिहासनायक. बिहार दुनिया में छा गया. ज्ञान, नैतिक बल, चरित्र बल के सान्निध्य में राजसत्ता का तपना और निखरना.
पुराणों या प्राचीन साहित्य में लौटें, तो चर्चा मिलती है कि जनक कैसे ॠषियों के संसर्ग में रहते थे. जनक राजसत्ता के शिखर के प्रतीक और ॠषि, ज्ञानसत्ता के पर्याय. दुनिया में आधुनिक दौर को नॉलेज एरा (ज्ञान युग) कहते हैं. कलाम जैसे लोग ज्ञान युग के आधुनिक ॠषियों की कतार में हैं. उनकी बातों से सहमति-असहमति हो सकती है. पर वे अपने धुन के पक्के हैं.
निराले. अपने मिशन में अकेले लगे. कभी भी आपने उनकी बातों में समस्याओं की बू नहीं देखी होगी. वह आरोप-प्रत्यारोप के धरातल पर बात ही नहीं करते. वर्तमान की गंभीर चुनौतियों के संदर्भ में अच्छे भविष्य गढ़ने की राह पर बात करते हैं. हमेशा विकल्प और समाधान उनकी बातों के मूल में है. हमेशा एक सकारात्मक सोच, चुनौतियों से निकलने का खाका और मॉडल, उनकी चिंता और चर्चा के विषय हैं. न वे कभी नकारात्मक बात करते हैं, न हतोत्साहित दिखते हैं. अपने धुन के पक्के. हर समस्या के हल के लिए व्यावहारिक मॉडल लेकर आपके सामने. आपके साथ. आपके बीच.
मनुष्य को ऊंचाई पर ले जाने के लिए, जो प्रेरक तत्व हो सकते हैं, उनकी चर्चा. हर इनसान के पॉजिटिव पहलुओं को बता कर उसे आगे ले जाने के लिए हर समय प्रेरित करना. भ्रष्टाचार है, तो उससे मुक्ति कैसे मिले, इसका व्यावहारिक रोडमैप तैयार करना. भारत या किसी राज्य को महान बनाना है, विकसित करना है, तो किस रास्ते और कैसे महानता, विकास आयेंगे, यह रोडमैप बताना. पूरी सूचनाओं के साथ. वैज्ञानिक विजन के साथ.
वर्षों से उनके व्याख्यानों-पुस्तकों पर नजर रखता हूं. निजी आकलन है कि जब उन्हें लगा कि भारत की शासक पीढ़ी कुछ नहीं कर पायेगी, तो छात्रों को ही तैयार करने में लग गये. बिना निराशा व्यक्त किये या नेताओं-राजनीति को कोसे बगैर! इसलिए देश भर में छात्रों के बीच जाकर बोलना, बड़े सपने दिखाना, आसमान छूने के लिए हौसला-ललक पैदा करना, बड़ी और उदात्त बातें करना, मनोबल बढ़ाना. यह काम आज कौन कर रहा है?
पहले बड़े नेता या अनेक जाने-माने बौद्धिक व्यक्ति यह करते थे. खुद को जला कर, खपा कर, नींव बन कर, समाज की नींव मजबूत करते थे. आज इस अभियान में भारत में अकेले कलाम लगे हैं. इसलिए उन्हें सुनने के लिए भीड़ जुटती है. लोग आते हैं. अब उनकी पोजीशन निंदा, स्तुति से परे है. इसलिए वे किसी को खुश करने की बात नहीं करते. साफ-साफ बोलते हैं.
उन्होंने बिहार और नीतीश कुमार की मुक्त प्रशंसा की. नीतीश कुमार के आलोचक इसके पीछे भी अर्थ ढूंढ़ सकते हैं. पर नीतीश कुमार अब कलाम साहब को क्या दे सकते हैं, जो उनके पास नहीं है. देश में एक-से-एक मुख्यमंत्री हैं, उनके पास खुश करने की अपार क्षमता और संसाधन हैं, ताकत भी है, नीतीश कुमार से अधिक. पर कलाम उनके बारे में नहीं बोलते, बोल भी नहीं सकते, क्योंकि जिस ऊंचाई पर वे खड़े हैं, वहां वे मन और विवेक से ही बोलते हैं.
ऐसा व्यक्ति जब किसी की प्रशंसा करे, तो यह उपलब्धि है. पश्चिम के समाज और खास तौर से हिंदी समाज में क्या भिन्नता है? या दक्षिण और उत्तर के समाज के बीच क्या मूल फर्क है? हमारे बीच का कोई आदमी अच्छा करता है, प्रशंसा होती है, तो वह ईर्ष्या-द्वेष का पात्र बनता है. उसकी टांग खींचने में पूरी ऊर्जा झोंकते हैं. लोग जलते हैं, लोहिया ने राजनीति में इस जलन राग की चर्चा की है. हिंदी इलाके में गरीबी है, पर क्रूरता, उद्दंडता, संकीर्णता, द्वेष-ईर्ष्या भी.
फलस्वरूप इससे नकारात्मक मानस रहा है, पिछले कई दशकों से. समाज अगर अपनी प्रतिभा को फलने-फूलने नहीं देगा, तो वह समाज बढ़ नहीं सकता. पश्चिम क्यों हमसे इतना आगे निकल गया. वह हम पर छाया है. क्योंकि वे अपने बीच की प्रतिभा को पहचानते हैं, आगे बढ़ाते हैं, हौसला बढ़ाते हैं. धोती नहीं खोलते. एक दूसरे को नंगा करने की होड़ में नहीं कूदते. हर चीज में नकारात्मक भाव या आलोचनात्मक दृष्टि नहीं होती.
जहां आवश्यक है, वहां साफ-साफ और खरी बातें भी जरूरी है. पर जहां अपने बीच से कोई प्रयास करता दिखे, कर्मरत दिखे, उसका भी उल्लेख जरूरी है. सार्वजनिक जीवन में अच्छे कामों की प्रशंसा न करना कृतघ्नता है. साथ ही गलत काम की प्रखर आलोचना न करना भी इनसान होने के फर्ज से विमुख होना है. पश्चिम क्यों हमसे आगे निकल गया? यह बड़ा विषय है. पर याद रखना चाहिए, अपनी कार्यसंस्कृति, आदतों, सोच (एटीट्यूड), हर चीज में छेद खोजने की आदत, ने हमें नकारात्मक बना दिया है.
ये उदाहरण एक भिन्न प्रसंग का है, पर गौर करने लायक है. व्हाइट हाउस पहुंचने से पहले बराक ओबामा का नारा था – यस वी कैन. हां, हम कुछ भी फतह कर सकते हैं. हजारों समस्याओं से घिरे रहने के बावजूद यह आत्मभरोसा. ओसामा बिन प्रकरण के बाद बराक ओबामा ने अमेरिकी जनता से यही कहा कि यस वी डिड. मिशन एकमप्लिश्ड. उन्होंने बड़े गर्व के साथ कहा कि हमने दुनिया को बता दिया कि हम क्या हैं और क्या कर सकते हैं.
अमेरिकन लोग जिस चीज को दिमाग में ठान लेते हैं, उसे पूरा करके ही दम लेते हैं. बराक ओबामा जब न्यूयॉर्क के जीरो ग्राउंड पर गये, तो अपने भाषण में कहा कि ‘नाउ ही विल नॉट बी देयर टू थे्रटेन द यूएस एगेन’.(अब वह संयुक्त राज्य अमेरिका को धमकाने के लिए वहां नहीं रहेगा). यह कुछ अच्छा प्रसंग नहीं है, पर अपने देश, अपने समाज और अपने मुल्क के प्रति एक स्वर में बोलना, यह भी एक ताकत रही है पश्चिम की. हम लाख उन्हें सैद्धांतिक भाषण देते रहें और कहते रहें कि वे शोषक हैं, साम्राज्यवादी हैं, पर हकीकत तो यही है कि उनकी कृपा के हम आकांक्षी रहते हैं.
हम अपने समाज, राज्य या देश निर्माण में उनकी बुराइयां न लें, साम्राज्यवादी मनोवृत्ति न लें, पर वह इफिशियंसी, देश के प्रति वह समर्पण, गांधी के अंतिम आदमी को भी विकास के पायदान पर खड़ा करने का संकल्प तो ले ही सकते हैं. पर यह सब कर सकते हैं, एक नया मानस, नया सोच, नये विचार को अपना कर ही.
कलाम की बातों को धैर्य से बिहार के शासक वर्ग ने सुना. उनके भाषण का मुख्य विषय था – बिहार : 21वीं सदी का राज्य. पावर प्वांइट प्रेजेंटेशन. टू द प्वांइट बातें और रोडमैप, बिहार कैसे विकसित हो, स्पष्ट खाका. यह भाषण हर बिहारी को पढ़ना चाहिए. अगर वह बिहार को शिखर पर देखना चाहता है. कलाम का खाका धरातल पर उतरना संभव है, पर इसके लिए नया मानस विकसित होना जरूरी है.
संसाधन तो मिल सकता है. अभाव और गरीबी है, तो उधार और जुगाड़ के रास्ते हैं. पर वह सकारात्मक सोच, कर्म, हमेशा कुछ करने का संकल्प. टांग खींचने का कल्चर नहीं. यह जज्बा और मानस हो, तो बिहार को पुराना गौरव पाने में कौन रोक सकता है? बड़े सपने-बड़े हौसले से, तो राह मिलेंगे. कलाम के शब्दों से संकेत मिलते हैं कि बड़े सपनों को देखने का माहौल और फि जां बने, यह बुनियादी जरूरत है.
अच्छा काम चाहे मुख्यमंत्री करें या सामान्य इनसान, वह सम्मान-चर्चा का हकदार है. छह मई के इंडियन एक्सप्रेस में बेंगलुरु से एक विश्लेषण रिपोर्ट छपी है, पीयर टू पीयर लर्निंग बिटवीन बिहार टू शिकागो (ए स्क्रैपी न्यू स्कूल इन चमनपुरा हैज नो इलेक्ट्रिसिटी बट हैज बिग प्लांस). यह गोपालगंज के गरीब चमनपुरा गांव से जुड़ी कहानी है.
गांव में बोरा-टाट और केरोसिन लालटेन साधनों से पढ़े चंद्रकांत सिंह आइआइटी कर अमेरिका के जनरल मोटर्स में बड़े पद पर गये. अब वह अत्याधुनिक हाइटेक चैतन्य गुरुकुल वहां बना चुके हैं. वह और कुछ अन्य बिहारी मिल कर अमेरिका के कुछ स्कूलों में, बिहार के गांवों के इन स्कूलों का सीधा संबंध बनवा रहे हैं. चैतन्य गुरुकुल चल रहा है. जहां हर वर्ग में 430 बच्चे पढ़ रहे हैं. 55 छात्र भूमिहीन मजदूरों के हैं.
वे नि:शुल्क वर्ल्ड क्लास एडुकेशन पा रहे हैं. विकास का इतिहास देखें, तो अंतत: श्रेष्ठ संस्थाएं ही समाज को आगे ले जाती हैं. इसी तरह एकमा में, पिछले दो दशकों से अपने पिता के नाम फांउडेशन बना कर, भारत में मैनेजमेंट के जाने-माने नाम डॉ पीएन सिंह काम कर रहे हैं. अपना पैसा लगा कर. अपने मित्रों से संसाधन का जुगाड़ कर. पर ऐसे लोगों के काम में भी अड़ंगे डालनेवाले, आलोचना करनेवाले भरे हैं. क्या यही मानस हमें बीमारू राज्य से स्वस्थ बनायेगा ?
डॉ कलाम के भाषण खत्म होते ही सुरुचिपूर्ण ढंग से भाषण की छपी प्रति मिलने और नाश्ते की व्यवस्था थी. रवींद्र भवन के प्रांगण में ही. कॉरिडोर या हॉल में नहीं, क्योंकि वहां चाय-नाश्ता करने की मनाही है. याद रखिए, यह बिहार विधान परिषद का कार्यक्रम था, राज्यसत्ता की महत्वपूर्ण संस्था या अंग, पर स्थापित नियमों के विपरीत वहां कोई काम नहीं हुआ.
आम तौर से ऐसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम, जिनके पीछे पूरी राजसत्ता होती है, वे कहीं भी कोई नियम-पाबंदी मानते ही नहीं. इस नये माहौल में डॉ कलाम को सुनना एक अलग ही अनुभव रहा. डॉ कलाम का जीवन ही संदेश है. उनकी परिषद की बातचीत या व्याख्यान का एक बड़ा उल्लेखनीय पहलू है. उन्होंने भाषण के शुरू में ही भाषण का मूल सत्व रख दिया. समय की मांग है कि एक ऐसा समाज विकसित हो, जिसका आधार-दर्शन रहे कि मैं देश को क्या दे सकता हूं?
क्षमा करेंगे, यह तुलना नहीं है. तुलना हो भी नहीं सकती. पर यह नयी अवधारणा है. हर नागरिक सोचे कि मैं देश और समाज को क्या दे सकता हूं? तो बिहार और देश बदल जायेंगे. हम जनता की परवरिश, राजनीति ने किन मूल्यों पर की है. हमें परजीवी बना कर. भिखमंगा बना कर.
पराश्रित बना कर. हर चीज हमें कोई दूसरा दे दे, सरकार दे दे, संस्था दे दे. हम अपने बल, पौरुष, पुरुषार्थ से देश या समाज को क्या दे सकते हैं? इस पर कभी चर्चा नहीं. चुनावों में फेवर या सरकार से प्रश्रय मांगने में ही हम ऊर्जा खपाते हैं. कैनेडी ने अमेरिका को ऊंचाई पर पहुंचाया.
उन्होंने आह्वान किया कि हम सोचें कि हम अमेरिका को क्या दे सकते हैं. सुभाष बाबू ने आजादी की लड़ाई में नयी ताकत और ऊर्जा डाल दी, यह कह कर कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा.
आज के राजनेता, हर जगह बोलते फिरते हैं कि वे ये देंगे, वो देंगे, यह सुविधा देंगे आदि. वे ठगते हैं, मतदाताओं को लोभी बनाते हैं. दूसरी तरफ कलाम हैं, जो साफ कह रहे हैं कि सोचने का मूल आधार पलटे. हम सिर्फ याचक न रहें, कर्ता भी रहें. हम क्या देश और समाज को दे रहे हैं, इस पर गौर करें.
कलाम की शताब्दी व्याख्यान पुस्तिका के आरंभ में संस्कृत का श्लोक है-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
न तो वृद्धये न वदन्ति धर्मम,
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति,
न तत् सत्यं यच्छलेनानुविद्धम.
वह सभा नहीं है, जहां वृद्ध पुरुष न हो, वे वृद्ध नहीं हैं, जो धर्म की बात न बतावें, वह धर्म नहीं है, जिसमें सत्य न हो और वह सत्य नहीं है, जो छल से युक्त हो.
डॉ कलाम की सभा और उनकी बातें सुन कर श्लोक का यह मर्म समझ में आया. ताराकांत जी की परिकल्पना है कि यह व्याख्यान क्रम और आगे बढ़े. इसमें एमजे अकबर अगले वक्ता होंगे.
हिंदू-मुसलिम संबंधों पर बोलने और समाधान सुझाने के लिए. इसके बाद ग्राम पंचायतों, विधानसभा और संसद तक लगातार संपन्न होनेवाले चुनावों से भारतीय लोकतंत्र के सामने उपस्थित चुनौतियों पर बोलेंगे, संविधान के विशेष जानकार और गहरे अध्येता, सुभाष कश्यप. इसी क्रम में आधुनिक सभ्यता के मुकाबले कोई विकल्प है और वह क्या है, इस पर बोलने के लिए मुरली मनोहर जोशी जी को आमंत्रित किया गया है.
दिनांक : 12.05.2011
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