भगवान शिव का हलाहल पान एक बहुआयामी दृष्टिकोण
हिदू धर्म की समृद्ध परंपरा में भगवान शिव को ‘विनाश और पुनर्निर्माण’ के देवता के रूप में जाना जाता है. उनका हलाहल विष का पान करना न केवल एक पौराणिक घटना है, बल्कि इसका धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक पक्ष भी अत्यंत गूढ़ और शिक्षाप्रद है. यह घटना केवल कथा नहीं, बल्कि कर्तव्य, त्याग और लोककल्याण का प्रतीक बन गयी है
पौराणिक दृष्टिकोण
जब समुद्र मंथन हुआ, तो उसमें से अनेक रत्नों और वस्तुओं के साथ-साथ एक घातक विष निकला जिसे “हलाहल” कहा गया. यह विष इतना प्रचंड था कि उसकी ज्वाला से देव, दानव और समस्त सृष्टि व्याकुल हो उठी. इस संकट को शांत करने के लिए भगवान शिव ने बिना विलंब उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वे “नीलकंठ” कहलाए.
“नीलकण्ठं महादेवं विश्वव्यापकमीश्वरम् |
लोकानां हितकारिणं शरण् शर यं णं व्रजे ||
धार्मिक दृष्टिकोण
भगवान शिव का यह कृत्य दर्शाता है कि जब सम्पूर्ण सृष्टि संकट में हो, तो ईश्वर स्वयं कष्ट उठाकर अपने भक्तों की रक्षा करते हैं. इसलिए शिव को करुणा, सहनशीलता और तारणहार के रूप में पूजा जाता है. विशेषतः सावन मास में गंगाजल, दूध, बेलपत्र आदि अर्पित कर भक्त शिव के इसी त्याग और तप को स्मरण करते हैं.
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आध्यात्मिक दृष्टिकोण
हलाहल पान आत्मनियंत्रण और वैराग्य का प्रतीक है. यह दर्शाता है कि जीवन में चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियाँ क्यों न हों, धैर्य और आत्मबल से उन्हें सहा जा सकता है. ईश्वर का सच्चा भक्त भी संकट को आत्मसात कर सकता है, यदि उसके भीतर आत्मबल और लोकहित की भावना हो.
विषं पीत्वा यः स्थिरोऽभूत् स शिवो लोकनाथकः | विषमेऽपि यो विचलति न स भक्तो महेश्वरः ||
सामाजिक दृष्टिकोण
भगवान शिव का यह कृत्य एक आदर्श सामाजिक संदेश भी देता है: नेता वह नहीं जो अधिकार चाहता है, बल्कि वह है जो संकट में आगे बढ़कर समाज का भार उठाए. विष पीने का तात्पर्ययह भी है कि समाज में व्याप्त कटुता, विषमता और अन्याय को स्वयं सहकर भी दूसरों को सुख देना ही सच्ची सेवा है. शिव हमें सिखाते हैं कि स्वार्थ से ऊपर उठकर, परहित के लिए जीवन जीना ही मनुष्य का कर्तव्य है. निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि भगवान शिव का हलाहल पान केवल एक पौराणिक घटना नहीं, बल्कि यह त्याग, सहिष्णुता, परोपकार और आध्यात्मिक जागरण का संदेश है. वह हमें सिखाते हैं कि जीवन में कितनी भी कठिनाई क्यों न हो, यदि उद्देश्य सार्वजनिक भलाई और आत्म-उत्कर्ष का हो, तो उसे स्वीकार करना ही धर्म है.
शिवो भूतेश्वरः साक्षात्, कल्याणानां निधिः परः |
विषं हरन् जगत्प्मरे्णा, सदा वन्द्यो महेश्वरः ||
शिवलिंग की स्थापना, उसके लक्षण और पूजन की विधि का वर्णन और शिव पद की प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मों की विवेचना
षियों ने पूछा- सूतजी ! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिये ? उसका लक्षण क्या है? तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिये, किस देश-काल में करनी चाहिये और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिये ? सूत जी ने कहा- महर्षियों ! मैं तुमलोगों के लिए इस विषय का वर्णन करता हूं. ध्यान देकर सुनो और समझो. अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में नदी आदि के तट पर अपनी रुचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिये, जहां नित्य पूजन हो सके. पार्थिव द्रव्य से, जलमय द्रव्य से अथवा तैजस पदार्थ से अपनी रुचि के अनुसार कल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिवलिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है. सम्पूर्णशुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग की यदि पूजा की जाये तो वह तत्काल पूजा का फल देनेवाला होता है. यदि चल प्रतिष्ठा करनी हो तो इसके लिए छोटा-सा शिवलिंग अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है और यदि अचल प्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा विग्रह अच्छा माना गया है. उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिये. शिवलिंग का पीठ मण्डलाकार (गोल), चौकोर, त्रिकोण अथवा खाटके पाये की भांति ऊपर-नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिये. ऐसा लिंगपीठ महान् फल देनेवाला होता है! पहले मिट्टी से, प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिये. जिस द्रव्य से शिवलिंग का निर्माण हो, उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिये, यही स्थावर (अचल प्रतिष्ठा वाले) शिवलिंग की विशेष बात है. चर (चल प्रतिष्ठा वाले) शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक ही उपादान होना चाहिये, किंतु बाण लिंग के लिए यह नियम नहीं है. लिंग की लंबाई निर्माणकर्ता या स्थापना करनेवाले यजमान के बारह अंगुल के बराबर होनी चाहिये. ऐसे ही शिवलिंग को उत्तम कहा गया है. इससे कम लंबाई हो तो फल में कमी आ जाती है, अधिक हो तो कोई दोष की बात नहीं है. चर लिंग में भी वैसा ही नियम है. उसकी लंबाई कम-से-कम कर्ता के एक अंगुल के बराबर होनी चाहिये. उससे छोटा होने पर अल्प फल मिलता है, किंतु उससे अधिक होना दोष की बात नहीं है. यजमान को चाहिए कि वह पहले शिल्प शास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय बनवाये, जो देवगणों की मूर्तियों से अलंकृत हो. उसका गर्भगृह बहुत ही सुन्दर, सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वच्छ हो. उसे नौ प्रकार के रत्नों से विभूषित किया गया हो. उसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मुख्य द्वार हों. जहां शिवलिंग की स्थापना करनी हो, उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत, मोती, मूंगा, गोमेद और हीरा-इन नौ रत्नों को तथा अन्य महत्त्वपूर्ण द्रव्यों को वैदिक मन्त्रों के साथ छोड़े. सद्योजात आदि पांच वैदिक मंत्रों- द्वारा शिवलिंग का पांच स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में हविष्य की अनेक आहुतियां दे और परिवार सहित मेरी पूजा करके गुरु स्वरूप आचार्य को धन से तथा भाई-बन्धुओं को मनचाही वस्तुओं से संतुष्ट करें. याचकों को जड़ (सुवर्ण, गृह एवं भू-सम्पत्ति) तथा चेतन (गौ आदि) वैभव प्रदान करे. स्थावर-जंगम सभी जीवों को यत्न पूर्वक संतुष्ट करके एक गड्डे में सुवर्ण तथा नौ प्रकार के रत्न भर कर सद्योजातादि वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेव जी का ध्यान करे. तत्पश्चात् नाद घोष से युक्त महामन्त्र ओंकार (ॐ) का उच्चारण करके उक्त गड्ढे में शिवलिंग की स्थापना करके उसे पीठ से संयुक्त करें. इस प्रकार पीठ युक्त लिंग की स्थापना करके उसे नित्य-लेप (दीर्घकाल तक टिके रहनेवाले मसाले) से जोड़कर स्थिर करें. इसी प्रकार वहां परम सुन्दर वेर (मूर्ति) की भी स्थापना करनी चाहिए. सारांश यह कि भूमि-संस्कार आदि की सारी विधि जैसी लिंग प्रतिष्ठा के लिए कही गयी है, वैसी ही वेर (मूर्ति) प्रतिष्ठा के लिए भी समझनी चाहिये. अंतर इतना ही है कि लिंग-प्रतिष्ठा के लिए प्रणव मन्त्र के उच्चारण का विधान है, परंतु वेर की प्रतिष्ठा पंचाक्षर-मन्त्र से करनी चाहिए. जहां लिंग की प्रतिष्ठा हुई है, वहां भी उत्सव के लिए बाहर सवारी निकालने आदि के निमित्त वेर (मूर्ति)-को रखना आवश्यक है. वेर को बाहर से भी लिया जा सकता है. उसे गुरुजनों से ग्रहण करे. बाह्य वेर वही लेने योग्य है, जो साधु पुरुषों द्वारा पूजित हो. इस प्रकार लिंग में और वेर में भी की हुई महादेवजी की पूजा शिव पद प्रदान करनेवाली होती है. स्थावर और जंगम के भेद से लिंग भी दो प्रकार का कहा गया है. वृक्ष, लता आदि को स्थावर लिंग कहते हैं और कृमि-कीट आदि को जंगम लिंग. स्थावर लिंग की सींचने आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिए और जंगम लिंग को आहार एवं जल आदि देकर तृप्त करना उचित है. उन स्थावर-जंगम जीवों को सुख पहुंचाने में अनुरक्त होना भगवान् शिव का पूजन है, ऐसा विद्वान् पुरुष मानते हैं. (यों चराचर जीवों को ही भगवान् शंकर के प्रतीक मानकर उनका पूजन करना चाहिए.) इस तरह महालिंग की स्थापना करके विविध उपचारों द्वारा उसका पूजन करें. अपनी शक्ति के अनुसार नित्य पूजा करनी चाहिए तथा देवालय के पास ध्वजारोपण आदि करना चाहिए. शिवलिंग साक्षात् शिव का पद प्रदान करनेवाला है. अथवा चर लिंग में षोडशोपचारों द्वारा यथोचित रीति से क्रमशः पूजन करें. यह पूजन भी शिवपद प्रदान करनेवाला है. आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग आचमन, अभ्यंगपूर्वक स्नान, वस्त्र एवं यज्ञोपवीत, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल-समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन – ये सोलह उपचार हैं. अथवा अर्घ्य से लेकर नैवेद्य तक विधिवत् पूजन करें. अभिषेक, नैवेद्य, नमस्कार और तर्पण – ये सब यथाशक्ति नित्य करें. इस तरह किया हुआ शिव का पूजन शिव पद की प्राप्ति करानेवाला होता है. अथवा किसी मनुष्य के द्वारा स्थापित शिवलिंग में, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग में, देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग में, अपने-आप प्रकट हुए स्वयम्भूलिंग में तथा अपने द्वारा नूतन स्थापित हुए शिवलिंग में भी उपचार-समर्पण पूर्वक जैसे-तैसे पूजन करने से या पूजन की सामग्री देने से भी मनुष्य ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह सारा फल प्राप्त कर लेता है. क्रमशः परिक्रमा और नमस्कार करने से भी शिवलिंग शिवपद की प्राप्ति करानेवाला होता है. यदिनियमपूर्वक शिवलिंग का दर्शन मात्र कर लिया जाये, तो वह भी कल्याणप्रद होता है. मिट्टी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेरपुष्प, फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से भी अपनी रुचि के अनुसार शिवलिंग बनाकर तदनुसार उसका पूजन करें अथवा प्रतिदिन दस हजार प्रणव मंत्र का जप करें अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्त्र प्रणव का जप किया करें. यह क्रम भी शिवपद की प्राप्ति करानेवाला है, ऐसा जानना चाहिए. जप काल में मकारांत प्रणव का उच्चारण मन की शुद्धि करनेवाला होता है. समाधि में मानसिक जप का विधान है तथा अन्य सब समय भी उपांशु जप ही करना चाहिए. नाद और बिन्दु से युक्त ओंकार के उच्चारण-को विद्वान् पुरुष ”समान प्रणव” कहते हैं. यदिप्रतिदिन आदर पूर्वक दस हजार पंचाक्षर मन्त्र का जप किया जाये अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्त्र का ही जप किया जाये, तो उसे शिव पद की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिए. ब्राह्मणों के लिए आदि में प्रणव से युक्त पंचाक्षर मन्त्र अच्छा बताया गया है. कलश से किया हुआ स्नान, मन्त्र की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास, सत्य से पवित्र अन्तःकरणवाला ब्राह्मण तथा ज्ञानी गुरु – इन सबको उत्तम माना गया है. द्विजों के लिये ”नमः शिवाय” के उच्चारण का विधान है. द्विजेतरों के लिए अंत में ”नमः” पद के प्रयोग की विधि है अर्थात् वे ”शिवाय नमः” इस मंत्र का उच्चारण करें. स्त्रियों के लिए भी कहीं-कहीं विधि पूर्वक नमोऽन्त उच्चारण का ही विधान है अर्थात् वे भी ”शिवाय नमः” का ही जप करें. कोई-कोई ऋषि ब्राह्मण की स्त्रियों के लिए नमः पूर्वक शिवाय के जप की अनुमति देते हैं अर्थात् वे ”नमः शिवाय” का जप करें. पंचाक्षर-मन्त्र का पांच करोड़ जप करके मनुष्य भगवान् सदाशिव के समान हो जाता है. एक, दो, तीन अथवा चार करोड़ का जप करने से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त होता है. अथवा मन्त्र में जितने अक्षर हैं, उनका पृथक पृथक एक- एक लाख जप करे अथवा समस्त अक्षरों का एक साथ ही जितने अक्षर हों उतने लाख जप करे. इस तरह के जप को शिव पद की प्राप्ति करानेवाला समझना चाहिये. यदि एक हजार दिनों में प्रतिदिन एक सहस्त्र जप के क्रम से पंचाक्षर-मन्त्र का दस लाख जप पूरा कर लिया जाये और प्रतिदिन ब्राह्मण-भोजन कराया जाये तो उस मन्त्र से अभीष्ट कार्य की सिद्धि होने लगती है. ब्राह्मण को चाहिए कि वह प्रतिदिन प्रातःकाल एक हजार आठ बार गायत्री का जप करें. ऐसा होने पर गायत्री क्रमशः शिव का पद प्रदान करनेवाली होती है. वेद मन्त्रों और वैदिक सूक्तों का भी नियम पूर्वक जप करना चाहिये. वेदों का पारायण भी शिवपद की प्राप्ति करानेवाला है, ऐसा जानना चाहिए. अन्यान्य जो बहुत-से मन्त्र हैं, उनका भी जितने अक्षर हों. उतने लाख जप करें. इस प्रकार जो यथाशक्ति जप करता है, वह क्रमशः शिवपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है. अपनी रुचि के अनुसार किसी एक मन्त्र को अपनाकर मृत्यु पर्यन्त प्रतिदिन उसका जप करना चाहिये अथवा (ॐ)” इस मन्त्र का प्रतिदिन एक सहस्त्र जप करना चाहिये. ऐसा करने पर भगवान शिव की आज्ञा से संपूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है.
विन्ध्य की तपस्या, ओंकार में परमेश्वर लिंग के प्रादुर्भाव और उसकी महिमा का वर्णन
ऋषियों ने कहा- महाभाग सूतजी ! आपने अपने भक्त की रक्षा करनेवाले महाकाल नामक शिवलिंग की बड़ी अद्भुत कथा सुनायी है.ग् अब कृपा करके चौथे ज्योतिर्लिंग का परिचय दीजिये- ओंकार तीर्थ में सर्वपातकहारी परमेश्वर का जो ज्योतिर्लिंग है, उसके आविर्भाव की कथा सुनाइये. सूतजी बोले-महर्षियों ! ओंकार तीर्थ में परमेशसंज्ञक ज्योतिर्लिंग जिस प्रकार प्रकट हुआ, वह बताता हूं; प्रेम से सुनो. एक समय की बात है, भगवान् नारद मुनि गोकर्ण नामक शिव के समीप जा बड़ी भक्ति के साथ उनकी सेवा करने लगे. कुछ काल के बाद वे मुनि श्रेष्ठ वहां से गिरिराज विन्ध्य पर आये और विन्ध्य ने वहां बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया. मेरे यहां सब कुछ है, कभी किसी बात की कमी नहीं होती है, इस भाव को मन में लेकर विन्ध्याचल नारद जी के सामने खड़ा हो गया. उसकी वह अभिमान भरी बात सुनकर अहंकार नाशक नारद मुनि लंबी सांस खींचकर चुपचाप खड़े रह गये. यह देख विन्ध्य पर्वत ने पूछा- ”आपने मेरे यहां कौन-सी कमी देखी है? आपके इस तरह लंबी सांस खींचने का क्या कारण है?” नारद जीने कहा- भैया ! तुम्हारे यहां सब कुछ है. फिर भी मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊंचा है. उसके शिखरों का विभाग देवताओं के लोकों में भी पहुंचा हुआ है. किंतु तुम्हारे शिखर का भाग वहां कभी नहीं पहुंच सका है. सूतजी कहते हैं-ऐसा कह कर नारदजी वहां से जिस तरह आये थे, उसी तरह चल दिये. परंतु विन्ध्य पर्वत ”मेरे जीवन आदि को धिक्कार है” ऐसा सोचता हुआ मन-ही-मन संतप्त हो उठा. अच्छा, ”अब मैं विश्वनाथ भगवान् शम्भु की आराधना पूर्वक तपस्या करूंगा” ऐसा हार्दिक निश्चय करके वह भगवान् शंकर की शरणमें गया. तदनन्तर जहां साक्षात् ओंकार की स्थिति है, वहां प्रसन्नता पूर्वक जाकर उसने शिव की पार्थिव मूर्ति बनायी और छह मास तक निरन्तर शम्भु की आराधना करके शिव के ध्यान में तत्पर हो वह अपनी तपस्या के स्थान से हिला तक नहीं. विन्ध्याचल की ऐसी तपस्या देख कर पार्वतीपति प्रसन्न हो गये. उन्होंने विन्ध्याचल को अपना वह स्वरूप दिखाया, जो योगियों के लिए भी दुर्लभहै. वे प्रसन्न हो उस समय उससे बोले-”विन्ध्य ! तुम मनोवांछित वर मागो. मैं भक्तों को अभीष्ट वर देनेवाला हूं और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं.” विन्ध्य बोला- देवेश्वर शम्भो ! आप सदा ही भक्त वत्सल हैं. यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वह अभीष्ट बुद्धि प्रदान कीजिये, जो अपने कार्य को सिद्ध करनेवाली हो. भगवान् शम्भु ने उसे वह उत्तम वर दे दिया और कहा – ”पर्वतराज विन्ध्य ! तुम जैसा चाहो, वैसा करो.” इसी समय देवता तथा निर्मल अन्तःकरण वाले ऋषि वहां आये और शंकर जी की पूजा करके बोले-”प्रभो! आप यहां स्थिर रूप से निवास करें. देवताओं की यह बात सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और लोकों को सुख देने के लिये उन्होंने सहर्ष वैसा ही किया. वहां जो एक ही ओंकारलिंग था, वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया. प्रणव में जो सदाशिव थे, वे ओंकार नाम से विख्यात हुए और पार्थिव मूर्ति में जो शिवज्योति प्रतिष्ठित हुई, उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई (परमेश्वर को ही अमलेश्वर भी कहते हैं). इस प्रकार ओंकार और परमेश्वर- ये दोनों शिवलिंग भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले हैं. उस समय देवताओं और ऋषियों ने उन दोनों लिंगों की पूजा की और भगवान् वृषभ ध्वज को संतुष्ट करके अनेक वर प्राप्त किये. तत्पश्चात् देवता अपने-अपने स्थान को गये और विन्ध्याचल भी अधिक प्रसन्नता का अनुभव करने लगा. उसने अपने अभीष्ट कार्य को सिद्ध किया और मानसिक परिताप को त्याग दिया. जो पुरुष इस प्रकार भगवान् शंकर का पूजन करता है, वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता और अपने अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है-इसमें संशय नहीं. सूतजी कहते हैं-महर्षियो ! ओंकारमें जो ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ और उसकी आराधना से जो फल मिलता है, वह सब यहां तुम्हें बता दिया. इसके बाद मैं उत्तम केदार नामक ज्योतिलिंग का वर्णन करूंगा.
