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लोक में व्याप्त सभी कलाओं व विद्याओं के जनक हैं देवाधिदेव जटाधारी शिव

महादेव त्रिलोक में हैं पूजनीय

जगत में असीम शक्तिशाली देव जटाधारी शिव को माना गया है. भारतीय वांङ्मय में इन्हें आदि देव महादेव के रूप में आख्यायित की गयी है. इहलोक से परलोक तक शिव की महिमा का गुणगान का वर्णन हमारे पौराणिक ग्रंथों में है, जिसे इनकार नहीं किया जा सकता है. हालांकि ऋग्वेद के समय से लेकर पुराणों के काल तक असंख्य धार्मिक ग्रंथों को रचा गया है, जो प्रामाणिक है. प्रत्येक ग्रंथों में आस्था का प्रवाह है और देवी देवता के पूजन को मुख्य आधार बनाया गया है. वैसे तो जगत में जितने भी कलाओं एवं विद्याओं का प्रचलन है, सभी के जनक देवाधिदेव महादेव ही हैं. वे ही जगत के धारक हैं और सृष्टि के सृजक माने गये हैं. संसार में लोगों का जीवन नीरस न हो जाये और सृष्टि विलुप्ति के कगार पर न चली जाये, इसके लिए विभिन्न प्रकार के कलाओं का सृजन किये. साथ ही साथ सभी प्रकार के विधाओं व विद्याओं को भी जन्म दिये. तभी तो इन्हें सभी प्रकार की कलाओं, विधाओं व विद्याओं के परम आचार्य की संज्ञा मनीषियों ने दी है. ज्ञन, योग, वैराग्य, भक्ति, आगम, तंत्र, मंत्र, यंत्र, नृत्य, वाद्य, संगीत, व्याकरण आदि के प्रणेता जटाधारी सदाबहार देव शिव माने गये हैं. सदियों से लोक में इनकी पूजा होती आ रही है और वर्तमान समय में तो अपने जीवन का बहुमूल्य समय लोग निकाल लेते हैं और अपनी आस्था देवाधिदेव के प्रति दिखाते हैं. अनेकानेक गुणों के साधक ही नहीं, बल्कि प्रणेता होने के चलते सभी लोगाें के बीच परम पूज्य हैं शिव. रुद्रहृदय उपनिषद में सदाशिव की महिमा का उल्लेख यहा प्रासंगिक हो जाता है.

कार्यं विष्णुक्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वर: |प्रयोजनार्थ रुद्रेण मूर्तिरेकत्रिधा कृता: ||

कार्यं विष्णुक्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वर: |प्रयोजनार्थ रुद्रेण मूर्तिरेकत्रिधा कृता: ||

अर्थात् विष्णु कार्य, ब्रह्मा क्रिया एवं रुद्र कारण है और तीनों एक ही हैं जो हैं देवाधिदेव महादेव. धार्मिक परंपराओं में अगर किसी से कुछ प्रप्ति की इच्छा होती है, तो उसका ध्यान आवश्यक हो जाता है. तभी तो संसार में बसने वाले प्राणियों में मानव सबसे श्रेष्ठ माना गया है. श्रेष्ठ प्राणी होने के नाते नतमस्तक होना नैतिकता दिखाती है. हम पूजते हैं शिव को और मन में अपनी इच्छा कुछ पाने की होती है. शिव भी इतने उदार हैं, आशुतोष हैं, जो शीघ्र ही प्रसीद हो जाते हैं एवं अपने भक्तों को एवमस्तु कह कर मनोकामना पूरित कर देते हैं. शिव वाकई में तारणहार हैं और सभी जीवों के आत्मा में सन्निहित हैं. शंकर का रूप धर्माशय के विपरीत तो दिखते हैं, तभी तो वे अपने माथे पर पतित पावनी गंगा एवं शीतल चंद्रमा को धारण किये हुए हैं. दोनों दो ध्रुव के प्रतीक माने गये हैं. इसी प्रकार गले में विषधर सर्प, हाथ में त्रिशूल व ब्रह्मरुपी डमरु लिये हैं, जो विशेष काल में बजाते हैं. यहां पर त्रिशुल एवं डमरु दोनों अलग अलग भाव के प्रतीक हैं. कहने का तात्पर्य है कि जगत में जीवन को सार्थक बनाना है, तो जटाधारी शिव की अर्चना अनिवार्य मानी गयी है. जगत को जीवन देते हैं तथा नियंत्रित करने के लिए संहार से पीछे कतई नहीं हटते हैं. डमरु की ध्वनि से ही व्याकरण विद्या की उत्पत्ति को नकारा नहीं जा सकता है. जब तांडव नृत्य करते हैं, तो तीनों लोक कांप उठता है. शक्ति रूपा हैं सदाशिव, तभी तो ग्रंथकारों ने बहुत ही सूक्ष्मता से वर्णन किया है.

अहं रूद्रेभिर्वसुमिश्चराभ्यहमादित्यै रुत विश्वदेव: | अहं मित्रवरुणोभा विभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ||

अहं रूद्रेभिर्वसुमिश्चराभ्यहमादित्यै रुत विश्वदेव: | अहं मित्रवरुणोभा विभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ||

कहने का तात्पर्य है कि शिव शक्ति स्वरूपा हैं. रूद्रों एवं वस्तुओं के रुप में संचरित हैं, आदित्यों व विश्वदेवों के रूप में अवस्थित है. इन्हें भक्ति पूर्ण हृदय से जो भी आराधना करते हैं, निश्चित तौर पर उनके अरमानों को पूरित करते हैं. मानव के समस्त पापों को खत्म कर मोक्ष की ओर से ले ही नहीं जाते, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति कराते हैं. शिवोपनिषद में पूजन के बारे में कहा गया है-कहने का तात्पर्य है कि शिव शक्ति स्वरूपा हैं. रूद्रों एवं वस्तुओं के रुप में संचरित हैं, आदित्यों व विश्वदेवों के रूप में अवस्थित है. इन्हें भक्ति पूर्ण हृदय से जो भी आराधना करते हैं, निश्चित तौर पर उनके अरमानों को पूरित करते हैं. मानव के समस्त पापों को खत्म कर मोक्ष की ओर से ले ही नहीं जाते, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति कराते हैं. शिवोपनिषद में पूजन के बारे में कहा गया है-

नाम संकीर्तनादेव शिवस्याशेषपातकै: | यत: प्रमचु्यते क्षिप्रं मंत्रोयं द्वयक्षर: पर: || य शिवं शिवमित्येवं द्वियक्षरं मंत्रमभ्यसेत्  | एकाक्षरं वा सततं स यति परमं पदम् ||

नाम संकीर्तनादेव शिवस्याशेषपातकै: | यत: प्रमचु्यते क्षिप्रं मंत्रोयं द्वयक्षर: पर: || य शिवं शिवमित्येवं द्वियक्षरं मंत्रमभ्यसेत् | एकाक्षरं वा सततं स यति परमं पदम् ||

लोक में आदिकाल की पूजा अर्चना की परंपरा वर्तमान में विकसित रूप धारण कर लिया है,तभी तो विभिन्न शिवालयों में सावन के पवित्र माह में सात्विक भाव से जलाभिषेक कर अपने ईष्टदेव को प्रसन्न करते हैं. इसका नजारा देखने से लगता है कि समानता का संदेश जगत में शिवोपासना दे रहा है.

महेश्वर का ब्रह्मा और विष्णु को अपने निष्कल और सकल स्वरूप का परिचय देते हुए लिंग पूजन का महत्त्व

महेश्वर का ब्रह्मा और विष्णु को अपने निष्कल और सकल स्वरूप का परिचय देते हुए लिंग पूजन का महत्त्व

नन्दिकेश्वर कहते हैं- तदनंतर वे दोनों – ब्रह्मा और विष्णु भगवान् शंकर को प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ उनके दायें – बायें भाग में चुपचाप खड़े हो गये. फिर, उन्होंने वहां साक्षात् प्रकट पूजनीय महादेव जी को श्रेष्ठ आसन पर स्थापित करके पवित्र पुरुष-वस्तुओं द्वारा उनका पूजन किया. दीर्घकाल तक अविकृत भाव से सुस्थिर रहनेवाली वस्तुओं को ”पुरुषवस्तु” कहते हैं और अल्पकाल तक ही टिकनेवाली क्षण भंगुर वस्तुएं ”प्राकृत वस्तु” कहलाती हैं. इस तरह वस्तु के ये दो भेद जानने चाहिये. (किन पुरुष-वस्तुओं से उन्होंने भगवान् शिव का पूजन किया, यह बताया जाता है) हार, नूपुर, केयूर, किरीट, मणिमय कुण्डल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्प-माला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका, पुष्प, ताम्बूल, कपूर, चन्दन एवं अगुरुका अनुलेप, धूप, दीप, श्वेतछत्र, व्यजन, ध्वजा, चंवर तथा अन्यान्य दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी और मन की पहुंच से परे था, जो केवल पशुपति (परमात्मा) के ही योग्य थे और जिन्हें पशु (बद्ध जीव) कदापि नहीं पा सकते थे, उन दोनों ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया. सबसे पहले वहां ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान् शंकर की पूजा की. इससे प्रसन्न हो भक्ति पूर्वक भगवान् शिव ने वहां नम्र भाव से खड़े हुए उन दोनों देवताओं से मुसकराकर कहा- महेश्वर बोले-पुत्रों ! आज का दिन एक महान् दिन है. इसमें तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हूं. इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान्-से-महान् होगा. आज की यह तिथि ”शिवरात्रि” के नाम से विख्यात होकर मेरे लिए परम प्रिय होगी. इसके समय में जो मेरे लिंग (निष्कल- अंग आकृति से रहित निराकार स्वरूप के प्रतीक) वेर (सकल – साकार रूप के प्रतीक विग्रह) की पूजा करेगा, वह पुरुष जगत् की सृष्टि और पालन आदि कार्य भी कर सकता है. जो शिवरात्रि को दिन-रात निराहार एवं जितेन्द्रिय रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से मेरी यथोचित पूजा करेगा, उसको मिलने वाले फल का वर्णन सुनो. एक वर्ष तक निरन्तर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है, वह सारा फल केवल शिवरात्रि को मेरा पूजन करने से मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है. जैसे पूर्ण चन्द्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है. इस तिथि में मेरी स्थापना आदि का मंगलमय उत्सव होना चाहिये. पहले मैं जब ”ज्योतिर्मय स्तम्भ रूप से प्रकट हुआ था, वह समय मार्ग शीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा है. जो पुरुष मार्ग शीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र होने पर पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की ही झांकी करता है, वह मेरे लिये कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है. उस शुभ दिन को मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है. यदि दर्शन के साथ-साथ मेरा पूजन भी किया जाये, तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि उसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता. वहां पर मैं लिंग रूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था. अतः उस लिंग के कारण यह भूतल ”लिंगस्थान” के नाम से प्रसिद्ध हुआ. जगत् के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिए यह अनादि और अनन्त ज्योतिः स्तम्भ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यन्त छोटा हो जायगा. यह लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है. इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान किया जाये तो यह प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है. अग्नि के पहाड़-जैसा जो यह शिवलिंग यहां प्रकट हुआ है, इसके कारण यह स्थान ”अरुणाचल” नाम से प्रसिद्ध ” होगा. यहां अनेक प्रकार के बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे. इस स्थान में निवास करने या मरने से जीवों का मोक्ष तक हो जायगा. मेरे दो रूप हैं- ”सकल” और ”निष्कल”. दूसरे किसी के ऐसे रूप नहीं हैं. पहले मैं स्तम्भ रूप से प्रकट हुआ; फिर अपने साक्षात् रूप से. ”ब्रह्मभाव” मेरा ”निष्कल” रूप है और ”महेश्वर भाव” ”सकल” रूप. ये दोनों मेरे ही सिद्ध रूप हैं. मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूं. कलायुक्त और अकल मेरे ही स्वरूप हैं. ब्रह्मरूप होने के कारण मैं ईश्वर भी हूं. जीवों पर अनुग्रह आदि करना मेरा कार्य है. ब्रह्मा और केशव ! मैं सबसे बृहत् और जगत् की वृद्धि करनेवाला होने के कारण ”ब्रह्म” कहलाता हूं. सर्वत्र सम रूप से स्थित और व्यापक होने से मैं ही सबका आत्मा हूं. सर्ग से लेकर अनुग्रह तक (आत्मा या ईश्वरसे भिन्न) जो जगत्-सम्बन्धी पांच कृत्य हैं, वे सदा मेरे ही हैं, मेरे अतिरिक्त दूसरे किसी के नहीं हैं; क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूं. पहले मेरी ब्रह्म रूपता का बोध कराने के लिये ”निष्कल” लिंग प्रकट हुआ था. फिर अज्ञात ईश्वरत्व का साक्षात्कार कराने के निमित्त मैं साक्षात् जगदीश्वर ही सकल” रूप में तत्काल प्रकट हो गया. अतः मुझ में जो ईशत्व है, उसे ही मेरा सकल रूप जानना चाहिए तथा जो यह मेरा निष्कल स्तम्भ है, वह मेरे ब्रह्म स्वरूप का बोध करानेवाला है. यह मेरा ही लिंग (चिह्न) है. तुम दोनों प्रतिदिन यहां रहकर इसका पूजन करो. यह मेरा ही स्वरूप है और मेरे सामीप्य की प्राप्ति करानेवाला है. लिंग और लिंगी में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंग का महान् पुरुषों को भी पूजन करना चाहिये. मेरे एक लिंग की स्थापना करने का यह फल बताया गया है कि उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है. यदि एक के बाद दूसरे शिव-लिंग की भी स्थापना कर दी गयी, तब तो उपासक को फल रूप से मेरे साथ एकत्व (सायुज्य मोक्ष) रूप फल प्राप्त होता है. प्रधानतया शिवलिंग की ही स्थापना करनी चाहिये. मूर्ति की स्थापना उसकी अपेक्षा गौण कर्म है. शिवलिंग के अभाव में सब ओर से सवेर (मूर्ति युक्त) होने पर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता. पांच कृत्यों का प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर-मन्त्र की महत्ता, ब्रह्मा-विष्णु द्वारा भगवान् शिव की स्तुति तथा उनका अन्तर्धान ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा-प्रभो! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण क्या हैं, यह हम दोनों को बताइये . भगवान शिव बोले : मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूं. ब्रह्मा और अच्युत ! ”सृष्टि”, ”पालन”, ”संहार”, ”तिरोभाव” और ”अनुग्रह” – ये पांच ही मेरे जगत्-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं. संसार की रचना का जो आरंभ है, उसी को सर्ग या ”सृष्टि” कहते हैं. मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी ”स्थिति” है. उसका विनाश ही ”संहार” है. प्राणों के उत्क्रमण को ”तिरोभाव” कहते हैं. इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा ”अनुग्रह” है. इस प्रकार मेरे पांच कृत्य हैं. सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं. पांचवां कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है. वह सदा मुझमें ही अचल भाव से स्थिर रहता है. मेरे भक्तजन इन पांचों कृत्यों को पांचों भूतों में देखते हैं. सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है. पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है. जल से सबकी वृद्धि एवं जीवन रक्षा होती है. आग सबको जला देती है. वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है. विद्वान् पुरुषों को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये. इन पांच कृत्यों का भार वहन करने के लिये ही मेरे पांच मुख हैं. चार दिशाओं में चार मुख हैं और इनके बीच में पांचवां मुख है. पुत्रो ! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं. ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं. इसी प्रकार मेरी विभूति स्वरूप ”रुद्र” और ”महेश्वर” में दो अन्य उत्तम कृत्य – संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं. परंतु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता. रुद्र और महेश्वर अपने कर्म को भूले नहीं हैं. इसलिये मैंने उनके लिये अपनी समानता प्रदान की है. वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं. मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूप भूत मन्त्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है. वह महामंगलकारी मन्त्र है. सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध करानेवाला है. ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूं. यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है. प्रतिदिन ओंकार का निरन्तर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है. मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ. इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ है. इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव ”ॐ” नामक एक अक्षर हो गया. यह नाम-रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद उत्पन्न स्त्री-पुरुष वर्ग रूप दोनों कुल इस प्रणव-मन्त्र से व्याप्त हैं. यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है. इसी से पंचाक्षर-मन्त्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है. वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है (”ॐ नमः शिवाय” यह पंचाक्षर-मन्त्र है). इस पंचाक्षर-मन्त्र से मातृ का वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पांच भेद वाले हैं. उसी से शिरोमन्त्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है. उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं. उन-उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है; परंतु इस प्रणव एवं पंचाक्षर से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है. इस मन्त्र समुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं. मेरे सकल स्वरूप से सम्बन्ध रखनेवाले सभी मन्त्र राज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले और शुभकारक (मोक्षप्रद) हैं. नन्दिकेश्वर कहते हैं- तदनन्तर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजी ने उत्तराभि मुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णु को पर्दा करनेवाले वस्त्र से आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपना कर कमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्र का उपदेश किया. मन्त्र-तन्त्र में बतायी हुई विधि के पालन पूर्वक तीन बार मन्त्र का उच्चारण करके भगवान् शिव ने उन दोनों शिष्यों को मन्त्र की दीक्षा दी. फिर उन शिष्यों ने गुरु दक्षिणा के रूप में अपने-आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवेश्वर जगद्गुरु का स्तवन किया. ब्रह्मा और विष्णु बोले- प्रभो! आप निष्कल रूप हैं. आपको नमस्कार है. आप निष्कल तेज से प्रकाशित होते हैं. आपको नमस्कार है. आप सबके स्वामी हैं. आपको नमस्कार है. आप सर्वात्मा को नमस्कार है अथवा सकल-स्वरूप आप महेश्वर को नमस्कार है. आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं. आपको नमस्कार है. आप प्रणव लिंग वाले हैं. आपको नमस्कार है. सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करनेवाले आपको नमस्कार है. आपके पांच मुख हैं.आप परमेश्वर को नमस्कार है. पंच ब्रह्म-स्वरूप पांच कृत्यवाले आपको नमस्कार है. आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं. आपके गुण और शक्तियां अनन्त हैं, आपको नमस्कार है. आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं. आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है. इन पद्यों द्वारा अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया. महेश्वर बोले- ”आर्द्रा” नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाये, तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है. सूर्य की संक्रान्ति से युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव-जप कोटि गुने जप का फल देता है. ”मृगशिरा” नक्षत्र का अन्तिम भाग तथा ”पुनर्वसु” का आदि-भाग पूजा, होम और तर्पण आदि के लिये सदा आर्द्र के समान ही होता है- यह जानना चाहिये. मेरा या मेरे लिंग का दर्शन प्रभात काल में ही- प्रातः और संगव (मध्याह्न के पूर्व) काल में करना चाहिये. मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथ व्यापिनी अथवा प्रदोष व्यापिनी लेनी चाहिये; क्योंकि परवर्तिनी तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है. पूजा करनेवालों के लिये मेरी मूर्ति तथा लिंग दोनों समान हैं, फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंग का स्थान ऊंचा है. इसलिये मुमुक्षु पुरुषों को चाहिये कि वे वेर (मूर्ति) से भी श्रेष्ठ समझकर लिंग का ही पूजन करें. लिंग का ॐकार मन्त्र से और वेर का पंचाक्षर-मन्त्र से पूजन करना चाहिये. शिवलिंग की स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरों से भी स्थापना करवा कर उत्तम द्रव्यमय उपचारों से पूजा करनी चाहिये. इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है. इस प्रकार उन दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये.

महाकाल के माहात्म्य के प्रसंग में शिवभक्त राजा चन्द्रसेन व गोप-बालक श्रीकर की कथा

महाकाल के माहात्म्य के प्रसंग में शिवभक्त राजा चन्द्रसेन व गोप-बालक श्रीकर की कथा

सूतजी कहते हैं-ब्राह्मणो ! भक्तों की रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिलिंग का माहात्म्य भक्ति भाव को बढ़ानेवाला है. उसे आदरपूर्वक सुनो. उज्जयिनी में चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, शिवभक्त और जितेन्द्रिय थे. शिव के पार्षदों में प्रधान तथा सर्व लोकवन्दित मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के सखा हो गये थे. एक समय उन्होंने राजा पर प्रसन्न होकर उन्हें चिन्तामणि नामक महामणि प्रदान की, जो कौस्तुभ-मणि तथा सूर्य के समान देदीप्यमान थी. वह देखने, सुनने अथवा ध्यान करने पर भी मनुष्यों को निश्चय ही मंगल प्रदान करती थी. भगवान् शिव के आश्रित रहनेवाले राजा चन्द्रसेन उस चिन्तामणि को कण्ठ में धारण करके जब सिंहासन पर बैठते, तब देवताओं में सूर्यनारायण की भांति उनकी शोभा होती थी. नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेन के कण्ठ में चिन्तामणि शोभा देती है, यह सुनकर समस्त राजाओं के मन में उस मणि के प्रति लोभ की मात्रा बढ़ गयी और वे क्षुब्ध रहने लगे. तदनन्तर वे सब राजा चतुरंगिणी सेना के साथ आकर युद्ध में चन्द्रसेन को जीतने के लिये उद्यत हो गये. वे सब परस्पर मिल गये थे और उसके साथ बहुत-से सैनिक थे. उन्होंने आपस में संकेत और सलाह करके आक्रमण किया और उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया. अपनी पुरी को सम्पूर्ण राजाओं द्वारा घिरी हुई देख राजा चन्द्रसेन उन्हीं भगवान् महाकालेश्वर की शरण में गये और मन को संदेह रहित करके दृढ़ निश्चय के साथ उपवास पूर्वक दिन-रात अनन्य भाव से महाकाल की आराधना करने लगे. उन्हीं दिनों उस श्रेष्ठ नगर में कोई ग्वालिन रहती थी, जिसके एकमात्र पुत्र था. वह विधवा थी और उज्जयिनी में बहुत दिनों से रहती थी. वह अपने पांच वर्ष के बालक को लिये हुए महाकाल के मन्दिर में गयी और उसने राजा चन्द्रसेन द्वारा की हुई महाकाल की पूजा का आदर पूर्वक दर्शन किया. राजा के शिवपूजन का वह आश्चर्यमय उत्सव देखकर उसने भगवान को प्रणाम किया और फिर वह अपने निवास स्थानपर लौट आयी. ” ग्वालिन के उस बालक ने भी वह सारी पूजा देखी थी. अतः घर आने पर उसने कौतूहलवश शिवजी की पूजा करने का विचार किया. एक सुन्दर पत्थर लाकर उसे अपने शिविर से थोड़ी ही दूर पर दूसरे शिविर के एकान्न स्थान में रख दिया और उसी को शिवलिंग माना. फिर उसने भक्तिपूर्वक कृत्रिम गग्य, अलंकार, वस्त्र, धूप, दीप और अक्षत आदि द्रव्य जुटाकर उनके द्वारा पूजन करके मनःकल्पित दिव्य नैवेद्य भी अर्पित किया. सुन्दर-सुन्दर पत्तों और फूलों से बारंबार पूजन करके भांति-भांतिसे नृत्य किया और बारंबार भगवान् के चरणों में मस्तक झुकाया. इसी समय ग्वालिन ने भगवान् शिव में आसक्त चित्त हुए अपने पुत्र को बड़े प्यार से भोजन के लिये बुलाया. परंतु उसका मन तो भगवान् शिव की पूजा में लगा हुआ था. अतः जब बारंबार बुलाने पर भी उस बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई, तब उसकी मां स्वयं उसके पास गयी और उसे शिव के आगे आंख बंद करके ध्यान लगाये बैठा देख उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी. इतने पर भी जब वह न उठा, तब उसने क्रोध में आकर उसे खूब पीटा. खींचने और मारने-पीटने पर भी जब उसका पुत्र नहीं आया, तब उसने वह शिवलिंग उठाकर दूर फेंक दिया और उस पर चढ़ायी हुई सारी पूजा-सामग्री नष्ट कर दी. यह देख बालक ”हाय-हाय करके रो उठा. रोष से भरी हुई ग्वालिन अपने बेटे को डांट-फटकार कर पुनः घर में चली गयी. भगवान् शिव की पूजा को माता के द्वारा नष्ट की गयी देख वह बालक देव! देव ! महादेव!” की पुकार करते हुए सहसा मूच्छित होकर गिर पड़ा. उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी. दो घड़ी बाद जब उसे चेत हुआ, तब उसने आंखें खोलीं. आंख खुलने पर उस शिशु ने देखा, उसका वही शिविर भगवान् शिव के अनुग्रह से तत्काल महाकाल का सुन्दर मन्दिर बन गया, मणियों के चमकीले खंभे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे. वहां की भूमि स्फटिक मणि से जड़ दी गयी थी. तपाये हुए सोने के बहुत से विचित्र कलश उस शिवालय को सुशोभित करते थे. उसके विशाल द्वार, कपाट और प्रधान द्वार सुवर्णमय दिखायी देते थे. वहां बहुमूल्य नीलमणि तथा हीरे के बने हुए चबूतरे शोभा दे रहे थे. उस शिवालय के मध्यभाग में दयानिधान शंकर का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित था. ग्वालिन के उस पुत्र ने देखा, उस शिवलिंग पर उसकी अपनी ही चढ़ायी हुई पूजन-सामग्री सुसज्जित है. यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया. उसे मन-ही-मन बड़ा आश्चर्य हुआ और वह परमानन्द के समुद्र में निमग्न-सा हो गया. तदनन्तर भगवान् शिव की स्तुति करके उसने बारंबार उनके चरणों में मस्तक झुकाया और सूर्यास्त होने के पश्चात् वह गोप बालक शिवालय से बाहर निकला. बाहर आकर उसने अपने शिविर को देखा. वह इन्द्र भवनके समान शोभा पा रहा था. वहां सब कुछ तत्काल सुवर्णमय होकर विचित्र एवं परम उज्ज्वल वैभव से प्रकाशित होने लगा. फिर वह उस भवन के भीतर गया, जो सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन्न था. उस भवन में सर्वत्र मणि, रत्न और सुवर्ण ही जड़े गये थे. प्रदोषकाल में सानन्द भीतर प्रवेश करके बालक ने देखा, उसकी मां दिव्य लक्षणों से लक्षित हो एक सुन्दर पलंग पर सो रही है. रत्नमय अलंकारों से उसके सभी अंग उद्दीप्त हो रहे हैं और वह साक्षात् देवांगना के समान दिखायी देती है. मुख से विह्वल हुए उस बालक ने अपनी माता को बड़े वेग से उठाया. वह भगवान् शिव की कृपापात्र हो चुकी थी. ग्वालिन ने उठकर देखा, सब कुछ अपूर्व-सा हो गया था. उसने महान् आनन्द में निमग्न हो अपने बेटे को छाती से लगा लिया. पुत्र के मुख से गिरिजापति के कृपा प्रसाद का वह सारा वृत्तान्त सुनकर ग्वालिन ने राजा को सूचना दी, जो निरन्तर भगवान् शिव के भजन में लगे रहते थे. राजा अपना नियम पूरा करके रात में सहसा वहां आये और ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव, जो शंकर जी को संतुष्ट करनेवाला था, देखा. मन्त्रियों और पुरोहितों सहित राजा चन्द्रसेन वह सब कुछ देख परमानन्द के समुद्रमें डूब गये और नेत्रों से प्रेम के आंसू बहाते तथा प्रसन्नता पूर्वक शिव के नाम का कीर्तन करते हुए उन्होंने उस बालक को हृदय से लगा लिया. ब्राह्मणो ! उस समय वहां बड़ा भारी उत्सव होने लगा. सब लोग आनन्दविभोर होकर महेश्वर के नाम और यश का कीर्तन करने लगे. इस प्रकार शिव का यह अद्भुत माहात्म्य देखने से पुरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ और इसी की चर्चा में वह सारी रात एक क्षण के समान व्यतीत हो गयी. युद्धके लिये नगर को चारों ओर से घेरकर खड़े हुए राजाओं ने भी प्रातःकाल अपने गुप्तचरों के मुख से वह सारा अद्भुत चरित्र सुना. उसे सुनकर सब आश्चर्य से चकित हो गये और वहां आये हुए सब नरेश एकत्र हो आपस में इस प्रकार बोले- ”ये राजा चन्द्रसेन बड़े भारी शिवभक्त हैं; अतएव इनपर विजय पाना कठिन है. ये सर्वथा निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनी का पालन करते हैं. जिसकी पुरी के बालक भी ऐसे शिवभक्त हैं, वे राजा चन्द्रसेन तो महान् शिवभक्त हैं ही. इनके साथ विरोध करने से निश्चय ही भगवान् शिव क्रोध करेंगे और उनके क्रोध से हम सब लोग नष्ट हो जायेंगे. अतः इन नरेश के साथ हमें मेल मिलाप ही कर लेना चाहिये. ऐसा होने पर महेश्वर हम पर बड़ी कृपा करेंगे.” सूत जी कहते हैं-ब्राह्मणो ! ऐसा निश्चय करके शुद्ध हृदय वाले उन सब भूपालों ने हथियार डाल दिये. उनके मन से वैरभाव निकल गया. वे सभी राजा अत्यन्त प्रसन्न हो चन्द्रसेन की अनुमति ले महाकाल की उस रमणीय नगरी के भीतर गये. वहां उन्होंने महाकाल का पूजन किया. फिर वे सब के-सब उस ग्वालिन के महान् अभ्युदयपूर्ण दिव्य सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उनके घर पर गये. वहां राजा चन्द्रसेन ने आगे बढ़कर उनका स्वागत-सत्कार किया. वे बहुमूल्य आसनों पर बैठे और आश्चर्यचकित एवं आनन्दित हुए. गोप बालक के ऊपर कृपा करने के लिये स्वतः प्रकट हुए शिवालय और शिवलिंग का दर्शन करके उन सब राजाओं ने अपनी उत्तम बुद्धि भगवान् शिव के चिन्तन में लगायी. तदनन्तर उन सारे नरेशों ने भगवान् शिव की कृपा प्राप्त करने के लिये उस गोप शिशु को बहुत-सी वस्तुएं प्रसन्नता पूर्वक भेंट कीं. सम्पूर्ण जनपदों में जो बहुसंख्यक गोप रहते थे, उन सबका राजा उन्होंने उसी बालकको बना दिया. इसी समय समस्त देवताओं से पूजित परम तेजस्वी वानर राज हनुमान् जी वहां प्रकट हुए. उनके आते ही सब राजा बड़े वेग से उठकर खड़े हो गये. उन सबने भक्ति भाव से विनम्र होकर उन्हें मस्तक झुकाया. राजाओं से पूजित हो वानर राज हनुमानजी उन सबके बीच में बैठे और उस गोप बालक को हृदय से लगाकर उन नरेशों की ओर देखते हुए बोले-”राजाओ ! तुम सब लोग तथा दूसरे देहधारी भी मेरी बात सुनें. इससे तुम लोगों का भला होगा. भगवान् शिव के सिवा देह धारियों के लिये दूसरी कोई गति नहीं है. यह बड़े सौभाग्य की बात है कि इस गोप बालक ने शिव की पूजा का दर्शन करके उससे प्रेरणा ली और बिना मन्त्र के भी शिव का पूजन करके उन्हें पा लिया. गोप वंश की कीर्ति बढ़ानेवाला यह बालक भगवान् शंकर का श्रेष्ठ भक्त है. इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में यह मोक्ष प्राप्त कर लेगा. इसकी वंश परम्परा के अन्तर्गत आठवीं पीढ़ी में महा यशस्वी नन्द उत्पन्न होंगे, जिनके यहां साक्षात् भगवान् नारायण उनके पुत्र रूप से प्रकट हो श्रीकृष्ण नाम से प्रसिद्ध होंगे. आज से यह गोपकुमार इस जगत में श्रीकरके नाम से विशेष ख्याति प्राप्त करेगा.” सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो! ऐसा कहकर अंजनी नन्दन शिव स्वरूप वानरराज हनुमानजी ने समस्त राजाओं तथा महाराज चन्द्रसेन को भी कृपा दृष्टिसे देखा. तदनन्तर उन्होंने उस बुद्धिमान् गोप बालक श्रीकर को बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवोपासना के उस आचारव्यवहार का उपदेश दिया, जो भगवान् शिव को बहुत प्रिय हैं. इसके बाद परम प्रसन्न हुए हनुमानजी चन्द्रसेन और श्रीकर से बिदा ले उन सब राजाओं के देखते- देखते वहीं अन्तर्धान हो गये. वे सब राजा हर्ष में भरकर सम्मानित हो महाराज चन्द्रसेन की आज्ञा ले जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये. महा तेजस्वी श्रीकर भी हनुमान्जी का उपदेश पाकर धर्मज्ञ ब्राह्मणों के साथ शंकरजी की उपासना करने लगा. महाराज चन्द्रसेन और गोप बालक श्रीकर दोनों ही बड़ी प्रसन्नता के साथ महाकाल की सेवा करते थे. उन्हीं की आराधना करके उन दोनों ने परम पद प्राप्त कर लिया. इस प्रकार महाकाल नामक शिवलिंग सत्पुरुषों का आश्रय है. भक्त वत्सल शंकर दुष्ट पुरुषों का सर्वथा हनन करनेवाले हैं. यह परम पवित्र रहस्यमय आख्यान कहा गया है, जो सब प्रकार का सुख देनेवाला है. यह शिवभक्ति को बढ़ाने तथा स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला

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