हमारे शास्त्रों में दो मार्ग बताये गये हैं, एक है उत्तर मार्ग और दूसरा है दक्षिण मार्ग. इन्हें उत्तरायण और दक्षिणायन भी कहते हैं. पंचाग्नि की पांच अग्नियां दक्षिणायन से संबंध रखती हैं, लेकिन इनका प्रयोजन है आपको उत्तरायण की ओर ले जाना. पंचाग्नि साधना की यही विचित्रता है. पंचाग्नि की एक अग्नि सूर्य है, जिसे स्वर्ग में माना जाता है.
उसे ‘असौ लोक’ भी कहते हैं. सूर्य स्वर्ग की अग्नि है और वहां से तपाती है. अग्नि का दूसरा स्वरूप पर्जन्य कहलाता है. पर्जन्य का मतलब होता है जल या वर्षा. फिर संसार को तीसरी अग्नि कहा गया है, पुरुष को चौथी अग्नि कहा गया है और अंत में स्त्री को पांचवीं अग्नि कहा गया है. इन अग्नियों के सहारे जब हम असौ लोक से नीचे आते हैं, तो देखते हैं कि यह एक सृष्टि क्रम है. बीज की उत्पत्ति ऊपर में होती है. बीज का मतलब वह तत्व जो प्रकट नहीं हुआ है, पर जिसमें हर प्रकार की संभावना निहित होती है. बीज रूप को संकल्प भी कहा जा सकता है. उस संकल्प में श्रद्धा की आहुति देना सूर्य को आहुति प्रदान करना होता है.
उस आहुति से पर्जन्य का प्रादुर्भाव होता है. फिर जल से औषधियों का, अन्न का प्राकट्य होता है. बिना जल के ये सब चीजें प्रकट नहीं होती हैं. इसलिए जल को अग्नि का एक रूप माना गया है. ये सब चीजें प्रकट होती हैं संसार में, इसलिए संसार को तीसरी अग्नि माना गया है. फिर इस बीज का रोपण होता है पुरुष तत्व के द्वारा, तो पुरुष को अग्नि रूप में देखा गया है. बीज का रोपण स्त्री तत्व में होता है, इसलिए स्त्री को पांचवीं अग्नि के रूप में देखा गया है.
यह दक्षिणायन का मार्ग हुआ. जो इन सभी धारणाओं को करते हुए अपने आपको मद-मुक्त करता है, अहंकार-मुक्त करता है, वह फिर दक्षिण मार्ग का त्याग करता है और उत्तर मार्ग पर चल पड़ता है. इसमें फिर ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्’ की बात नहीं होती. अब आप मंजिल तक पहुंच गये. चाहे अग्नि माचिस में जले या हवन कुंड में, तत्व में अंतर नहीं है. जो अग्नि माचिस में जल रही है, वह माचिस की तीली को भस्म कर रही है, और हवन कुंड में जो अग्नि जल रही है, वह लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़ों को भस्म कर रही है. तत्व तो एक ही है.
– स्वामी निरंजनानंद सरस्वती