मन जब अपने स्थूलरूप में होता है, तो चीजों का संग्रह करना चाहता है, जब यह थोड़ा-सा विकसित होता है तो ज्ञान का संग्रह करना चाहता है. मन की प्रकृति हमेशा ही संग्रह करने की होती है. वे सारी बातें, जिन्हें आप सोचते और महसूस करते हैं और स्वयं के बीच जब एक दूरी बनाने लगते हैं, तो इसे ही हम चेतना कहते हैं. जब इसमें भावना प्रबल होती है, तो यह लोगों का संग्रह करना चाहता है, इसकी मूल प्रकृति बस यही है कि यह संग्रह करना चाहता है. जब कोई व्यक्ति यह सोचने और विश्वास करने लगता है कि वह आध्यात्मिक मार्ग पर है, तो उसका मन तथाकथित आध्यात्मिक ज्ञान का संग्रह करने लगता है.
हो सकता है कि यह गुरु के शब्दों का ही संचय करने लगे. लेकिन, यह जो भी संचित करे, जब तक कोई व्यक्ति संग्रह करने की जरूरत से ऊपर नहीं उठ जाता, तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता. चाहे वह भोजन हो, कोई चीज हो, सांसारिक ज्ञान हो, लोग हों या आध्यात्मिक ज्ञान हो. यह कोई मायने नहीं रखता कि आप क्या इकट्ठा कर रहे हैं. संग्रह करने की जरूरत का अर्थ है कि अभी भी एक अधूरापन रह गया है. यह अधूरापन, अधूरा होने का भाव, इस असीमित प्राणी में घर कर गया है, इसका एकमात्र कारण यह है कि कहीं-न-कहीं आप अपनी पहचान उन सीमित चीजों के साथ बना लेते हैं, जो कि आप हैं ही नहीं. अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में पर्याप्त चेतना प्राप्त कर लेता है, और निरंतर किसी साधना का अभ्यास करता है, तो उसका यह पात्र धीरे-धीरे पूर्णत: खाली हो जाता है. चेतना पात्र को खाली करती है, साधना पात्र को साफ करती है. जिसे हम साधना कह रहे हैं, वह एक अवसर है
अपनी ऊर्जा को बढ़ाने का, ताकि आप अपनी सीमाओं और सभी खामियों पर नियंत्रण रख सकें, जिनके कारण आप अपने विचारों और भावनाओं में उलझ गये हैं. जब आप इन दोनों पहलुओं का अपने जीवन में पालन करते हैं, जब दीर्घकाल तक चेतना और साधना का पालन एवं अभ्यास करते हैं, तो आपका यह पात्र खाली हो जाता है. जब आपके जीवन में यह खालीपन, रिक्तता, यह शून्यता घटित होती है, केवल तभी आप पर कृपा अवतरित होती है.
– सद्गुरु जग्गी वासुदेव