हमें यात्रा-पथ इस शरीर में ही चुनना होगा. हमारे इस दृश्य शरीर में दो केंद्र हैं- ज्ञानकेंद्र और कामकेंद्र. नाभि के ऊपर मस्तिष्क तक का स्थान ज्ञानकेंद्र है, चेतनाकेंद्र है और नाभि के नीचे का स्थान कामकेंद्र है. हमारी चेतना इन दो वृत्तियों के आसपास उलझी रहती है.
जहां चेतना ज्यादा उलझी रहती है वहां चेतना का प्रवाह भी अधिक हो जाता है. ऊर्जा का मुख्य केंद्र कामकेंद्र है. सारी चेतना इसी के आसपास बिखरी हुई है. नाभि और जननेंद्रिय- इसी के आसपास मनुष्य की चेतना और ऊर्जा बिखरी पड़ी है. ज्ञानकेंद्र में ऊर्जा बहुत कम है, क्योंकि आज के मनुष्य की मौलिक वृत्ति है काम, इसलिए उसकी सारी चेतना, सारी ऊर्जा वहीं सिमटी पड़ी है.
उसका ध्यान उधर ही ज्यादा जाता है. मानस शास्त्री कहते हैं- मनुष्य में काम का जितना तनाव होता है, उतना और किसी वृत्ति का नहीं होता. भय का तनाव कभी-कभी होता है. क्रोध का तनाव कभी-कभी होता है. द्वेष और मान का तनाव कभी-कभी होता है. इसी प्रकार अन्य आवेगों का तनाव भी कभी-कभी होता है.
किंतु काम का तनाव सबसे ज्यादा होता है, सघन होता है. इसकी जड़ें बहुत गहरे में हैं. इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या- इन तीन अप्रशस्त य अधर्म लेश्याओं का केंद्र भी यही होना चाहिए और यथार्थ में यही है.
उसकी अभिव्यक्ति का केंद्र इसी शरीर में होगा. इन तीन अधर्म लेश्याओं का केंद्र भी यही होना चाहिए और यथार्थ में यही है. उसकी अभिव्यक्ति का केंद्र कामकेंद्र से अपान तक है. आर्तध्यान और रौद्रध्यान के केंद्र भी ये ही हैं. जब चेतना यहां रहती है, तब इष्ट का वियोग होने पर व्याकुलता उत्पन्न होती है. अनिष्ट का संयोग होने पर क्षोभ पैदा होता है.
प्रियता, अप्रियता की अनुभूतियां उत्पन्न होती हैं. वेदना के आने पर व्याकुलता, वेदना को नष्ट करने की चेष्टाएं, क्रूरता, द्वेष, घृणा आदि के स्पंदन कामकेंद्र के आसपास अनुभूत होते हैं. वे यहीं उभरते हैं. हमारे कामकेंद्र की चेतना के आसपास ही वे स्पंदन क्रियान्वित होते हैं.
-आचार्य महाप्रज्ञ