अनासक्ति को आप सही संदर्भ में समझ लीजिए. मैं एक कथा बताता हूं. एक था लल्लू महतो और दूसरा था कल्लू महतो. दोनों सगे भाई थे. एक दिन ये लोग बाजार गये और वहां से आम की दो सौ कलमें खरीद लाये.
उन्होंने उन कलमों को खेत में रोप दिया. रात को कल्लू अपने कमरे में बैठा सोचने लगा- कलमें लगायी हैं, पांच साल में आम मिलेंगे, फिर उनको बाजार में बेचेंगे, फिर उनसे इतना रुपया मिलेगा, सातवें साल इतना रुपया होगा. इस प्रकार कल्लू देर रात तक सोचता रहा. उसने अपनी कल्पना में आम पैदा कर लिये, बाजार में बेच भी आया. जब वह सबेरे उठा और अपने खेत का चक्कर लगाने गया, तो देखा कि रात को भैंसों ने आम की कलमों को रौंद दिया था. बेचारे का दिल टूट गया.
वह वापस घर आ रहा था कि रास्ते में बेटे ने फीस के लिए पैसे मांगे. वह बेटे पर झल्ला उठा- तेरा बाप कमा कर लाता है! और दो-चार चांटे भी जड़ दिये अपने बेटे को. घर पहुंचा तो वह पत्नी पर भी गुस्सा करने लगा- दिन भर कुछ करती-धरती नहीं है, अभी तक चाय भी नहीं लायी. इस तरह उसने गुस्से में कप, गिलास, बरतन आदि फेंकने लगा.
उधर कल्लू ने रात में बैठ कर सोचा कि आम तो लगा दिये हैं, अब उनकी देखभला करनी है. सबेरे जब वह उठा तो अपने खेत की तरफ गया. उसने देखा कि उसकी भी कुछ कलमों को भैंसों ने रात में ही रौंद दिया था. वह तुरंत वापस आया और अपने भाई-भतीजों को लेकर खेत पर पहुंचा. सब मिल कर बची हुई कलमों को संभालने के लिए बाड़ लगाने लगे.
तो इस तरह हम देखते हैं कि फलाकांक्षा के, दुख और सुख के ये दो उदाहरण मिलते हैं. मनुष्य का कर्म के साथ, कल्पना के साथ, जीवन की योजनाओं और तमन्नाओं के साथ कितना गहरा संबंध होना चाहिए, यह प्रत्येक व्यक्ति को जानना जरूरी है.
जो व्यक्ति इसको नहीं जानते हैं, वे हमेशा दुखी ही रहते हैं. गीता में इस बात को बिल्कुल स्पष्ट रूप में बतलाया गया है कि अनासक्ति का अर्थ कर्म का त्याग नहीं होता है. अनासक्ति का अर्थ होता है कि कर्म से उत्पन्न होनेवाले फलों का जो हमारे दिमाग पर असर होता है, उस असर से हम अपने आपको अलग रखें.
– स्वामी सत्यानंद सरस्वती