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आत्म-निरीक्षण
इस दुनिया में कोई आदमी ऐसा नहीं है, जो अपने को देख सकता है. हां, दूसरों को देखना सबको आता है. हमको मालूम है कि तुम्हारा चेहरा कैसा है, तुम्हारे बाल कैसे हैं, तुम्हारी नाक कैसी है, तुम कैसा बोलते हो, मीठा बोलते हो या कड़वा, अच्छा गाते हो या खराब, हमको यह सब मालूम […]
इस दुनिया में कोई आदमी ऐसा नहीं है, जो अपने को देख सकता है. हां, दूसरों को देखना सबको आता है. हमको मालूम है कि तुम्हारा चेहरा कैसा है, तुम्हारे बाल कैसे हैं, तुम्हारी नाक कैसी है, तुम कैसा बोलते हो, मीठा बोलते हो या कड़वा, अच्छा गाते हो या खराब, हमको यह सब मालूम पड़ जायेगा, मगर तुमको खुद कभी मालूम नहीं पड़ेगा. सबका यही हाल है.
दुनिया में जितने जीव हैं, इस मामले में सब अज्ञान में हैं. मनुष्य स्वयं कैसा है, इसकी जानकारी दूसरे से होती है. जैसे चेहरे की जानकारी दर्पण से होती है, वैसे ही तुम्हारे स्वभाव की जानकारी निंदा करनेवाले से होती है. जो तुम्हारी आलोचना करता है, निंदा करता है, वही तुम्हारे चेहरे का, स्वभाव का सही रंग बतलाता है.
इसलिए कभी कोई कहे कि तुम ऐसा क्यों करते हो, तो उस समय प्रतिकार नहीं करना चाहिए. कहना कि हां, ऐसा है, फिर उस आत्म-निरीक्षण करना चाहिए. आत्म-निरीक्षण के वक्त आदमी को अपने विवेक को जज बनाना पड़ता है, जो तुम्हारी तरफदारी न करे. वकील तरफदारी करता है, मगर जज तरफदारी नहीं करता. अपनी तरफदारी नहीं करनी चाहिए. इसको ही कहते हैं स्व-आलोचना. स्व-आलोचना बहुत जरूरी है.
– स्वामी सत्यानंद सरस्वती
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