व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व बंधुत्व का जो विकास हुआ है या हो रहा है, उसके मूल में अहिंसा की ही पवित्र भावना काम करती रही है. मानव सभ्यता के उच्च आदर्शो का सही-सही मूल्यांकन अहिंसा के रूप में ही किया जा सकता है.
अहिंसा की परिधि के अंतर्गत समस्त धर्म और समस्त दर्शन समवेत हो जाते हैं. यही कारण है कि प्राय: सभी धर्मो ने इसे एक स्वर से स्वीकार किया है. अहिंसा की महत्ता के संबंध में कहीं भी दो मत नहीं हैं. भले ही उसकी सीमाएं कुछ भिन्न-भिन्न हों, पर विश्व में जितने भी धर्म दर्शन और संप्रदाय हैं, उन सभी में अहिंसा के संबंध में चिंतन किया गया.
चाहे वैदिक धर्म हो, बौद्ध धर्म हो, यहूदी, ईसाई, इसलाम, सिख और जैन धर्म हो, सभी में अहिंसा के महत्व को स्वीकार किया गया है. अहिंसा की विमल धारा प्रांतवाद, भाषावाद, पंथवाद और संप्रदायवाद के क्षुद्र घेरे में कभी आबद्ध नहीं होती. वह तो विश्व का सर्वमान्य सिद्धांत है. इसलिए अहिंसा प्रशिक्षण में सर्वप्रथम अहिंसा के सिद्धांत और इतिहास पर विशेष विचार किया गया है.
जब दृष्टिकोण सम्यक बन जाता है तो अहिंसा की ओर प्रयाण शुरू हो जाता है. विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर टायनबी ने घोषणा की थी कि यदि विश्व को सर्वनाश से बचाना है, तो अहिंसा की शरण में आना होगा. अहिंसा व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के लिए वांछनीय है.
आचार्य तुलसी