डॉ अरुणा ब्रूटा, वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक
delhi@prabhatkhabar.in
आत्महत्या के बारे में अध्ययन और अनुसंधान करना आजकल मनोविज्ञान में एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है. भारत और अमेरिका समेत कई देशों में ऐसा किया जा रहा है. इसमें एक विशेष बिंदु यह जानने की कोशिश करना है कि कौन व्यक्ति आत्महत्या कर सकता है और इसके लक्षणों की पहचान पहले से कैसे की जाये. एक तो ऐसे लोग होते हैं, जो मानसिक रूप से बहुत पीड़ित होते हैं, सीजो-अफेक्टिव होते हैं, मैनिक होते हैं, बाइ-पोलर होते हैं, उनमें आत्महत्या करने की आशंका अधिक होती है.
आम जन की भाषा में कहें, तो जिनका बहुत कम आत्मविश्वास हो और महत्वाकांक्षाएं बहुत अधिक हों, अगर इसमें बहुत असंतुलन है कि आप असल में क्या कर सकते हैं और आप कहां पहुंचे हैं. जैसे, आप बहुत योग्य हैं, पढ़ाई में, खेल-कूद में, नाचने-गाने में, किसी भी चीज में आप बहुत अच्छे हैं, पर उस क्षेत्र में आपको उपलब्धियां नहीं मिलती हैं, तो आप बहुत जल्दी निराश हो जाते हैं.
अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का उदाहरण लें, तो वे इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा के टॉपर रहे थे और उन्होंने अच्छी पढ़ाई की थी, इसका मतलब है कि वे बहुत प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे. उनकी मानसिक शक्ति बहुत थी. लेकिन उनकी आत्मशक्ति कमजोर थी. अगर बॉलीवुड में राजनीति भी रही हो, पर ऐसा कहां नहीं होता- हर दफ्तर, हर परिवार में ऐसा होने के उदाहरण आपको मिल जायेंगे.
बॉलीवुड में भी ऐसा चलन नया नहीं है. एक जमाना ऐसा था, जब स्थापित गायिकाएं नयी गायिकाओं को पैर नहीं जमाने देती थीं. आज कुछ निर्माता-निर्देशक मिल जाते हैं और किसी को फिल्म में लेने या नहीं लेने का फैसला कर लेते हैं. जो भी कारण रहे हैं और मैं किसी को दोष नहीं दे रही हूं. आखिरकार उन्हें फिल्में बनानी हैं और उन्हें ही यह देखना है कि कौन इसमें काम करने के लिए सही है या नहीं है. लेकिन राजनीति भी होती है, पर यह समाज के हर क्षेत्र में है.
सवाल यह है कि आपकी आत्मशक्ति मजबूत है या नहीं है. अगर आपकी आत्मशक्ति अच्छी है, तो आप और अधिक सकारात्मक होंगे. ऐसे में जो भी कुंठाएं या बाधाएं आती हैं, आप उन्हें झेल जायेंगे. दूसरा कारण है कि ऐसे क्षेत्रों में जीवन शैली का स्तर बहुत बढ़ जाता है, जिससे वित्तीय संकट का अंदेशा बना रहता है. चार फिल्में चलीं, पांचवीं नहीं चली या काम नहीं मिला. मैं मनोवैज्ञानिक हूं, हो सकता है कि इस साल पिछले साल से कम मामले मेरे सामने आयें, इससे मैं अपना दिल छोटा कर लूं. आत्महत्या अपने को नुकसान पहुंचाने की कोशिश का चरम है.
खुद को नुकसान पहुंचाने की अनेक श्रेणियां होती हैं- नसें काटना, अपने को थप्पड़ मारना, कई दिनों तक कुछ न खाना, यह सब केवल स्वयं को दंडित करने के लिए है. यदि आप आत्महत्या करनेवाले लोगों का अध्ययन करें, तो पता चलता है कि ये संवेदनशील और संवेगशील प्रवृत्ति के लोग होते हैं. आवेग उठा, तो अपनी जान ले ली, ऐसी स्थितियां पैदा हुई कि आप घिर गये, आपने खुद को इतना निराश कर लिया कि अब आपका कुछ नहीं हो सकता, आपके साथ कोई नहीं रहता, तो आप अकेले हैं. बहुत से कारण हो सकते हैं, कोई सरल विवरण दे पाना संभव नहीं है. मानसिक स्वास्थ्य में अनेक कारकों की भूमिका हो सकती है.
यह दुख की बात है कि हमारे देश में शारीरिक सेहत को लेकर तो बहुत बातें होती हैं, पर आज भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीरता नहीं है. आज यह घटना हुई है, तो हम बात कर रहे हैं, कुछ दिनों के बाद सब भूल जायेंगे. आज सब कह रहे हैं कि हमें दोस्त बनाने हैं, एक-दूसरे का साथ देना है, पर कुछ दिन बाद सभी अपने-अपने काम में लग जायेंगे. मानसिक स्वास्थ्य से सभी डरते हैं और सोचते हैं कि मैं कोई पागल हूं, जो मनोवैज्ञानिक के पास जाऊं, मनोचिकित्सक के पास जाऊं. और तरह के डॉक्टरों के पास लोग आराम से चले जाते हैं.
यदि मैं किसी से कहूं कि शरीर में कोई परेशानी है, कोई डॉक्टर बता दो, तो अनेक डॉक्टर की जानकारी मिल जायेगी. मुझसे यह नहीं कहा जायेगा कि आपको कैंसर है. परंतु यदि मैं कहूं, मुझे नींद नहीं आती, मेरा दिल नहीं लगता, कोई मनोवैज्ञानिक बता दो, तो सीधा सुनने को मिलेगा कि पागल है क्या. पहले कैंसर नहीं कहा गया, पर इस सवाल पर पागल कह दिया गया. यह हमारी मानसिकता है कि असली समस्या पर ध्यान मत दो.
हर नौकरी में शारीरिक स्वास्थ्य का प्रमाणपत्र मांगा जाता है, बीमा लेने में भी स्वास्थ्य की जानकारी ली जाती है, लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कोई पूछताछ नहीं होती है. ऐसी जांच और प्रमाणपत्र को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए. इससे मानसिक स्वास्थ्य की समस्या पर भी नियंत्रण किया जा सकता है और बड़ी संख्या में लोगों को मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के क्षेत्र में आने के अवसर भी पैदा किये जा सकेंगे.
(बातचीत पर आधारित)