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एनजीओ के मंसूबों पर निगरानी

फैशनेबल, ग्लैमरस और भारत-विरोधी एनजीओ को ‘विनाशक संस्थागत नेटवर्क’ घोषित करना चाहिए

प्रभु चावला, एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla@newindianexpress.com

गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को विरोधाभासी अस्तित्व में बने रहने के लिए सरकार और निजी पैसे दोनों की जरूरत होती है. एनजीओ का मतलब परिवर्तन का वाहक होना है, जो समाज में हाशिये पर जी रहे लोगों की सेवा करता है. वे उस कार्य को करते हैं, जिसे सरकारी एजेंसियां कर पाने में असफल हो जाती हैं. विनोबा भावे और बाबा आम्टे जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों ने एनजीओ को विश्वसनीयता और सम्मान दिलाया. पिछड़े तबकों की मदद के लिए हजारों स्वयंसेवक आगे आये. वे सच्चे पैदल सैनिक थे, जिन्होंने विलासिता के सुख को त्याग दिया. एनजीओ एक मिशन था, फैशन नहीं.

ग्रामीण कार्यालयों के कार्यकर्ता चप्पल और कुर्ता पहनते थे और सस्ते परिवहन से यात्रा करते थे. उनकी जीवनशैली ही उनकी पहचान थी. वे सफलता को अपने कार्यों के आधार पर देखते थे, न तिजोरी में एकत्रित लाखों के धन के आधार पर देखते थे. अब, सामाजिक कार्य ठाट-बाट की तरह है. डिजाइनर कुर्ते और ब्रांडेड झोले एनजीओ की पोशाक बन चुके हैं. अधिकांश का प्रीमियम पता महानगरों में होता है. इन ऊंचे बाजार के एनजीओ का मकसद व्यवसाय वर्ग बनाम निम्न वर्ग होता है, जो विदेशों में मौज-मस्ती, भारत के खिलाफ दुष्प्रचार और विदेशी हितों को बढ़ावा देते हैं. उच्च प्रोफाइल एक्टिविस्ट पहुंच और वाकपटुता से देहाती और चकाचौंध से दूर सामाजिक नेताओं को दरकिनार कर देते हैं.

एनजीओ वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों, राजनेताओं और ग्लैमरस लोगों के लिए गैर-सरकारी क्षेत्र संपर्क बढ़ाने और सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ जुटान का प्लैटिनम प्लेटफाॅर्म है. पारंपरिक लोक कल्याण के भाव की जगह व्यावसायिक अनुकंपा ली है. नये युग के सुधारक केंद्र में सत्तारूढ़ दल के दोषपूर्ण रवैये के कारण बचे हैं और पनप रहे हैं. विकास परियोजनाओं को रोकने और तोड़-फोड़ करने के कारण, वे जब सरकार से सीधे टकराव में आ गये, सरकार ने उनकी गतिविधियों पर निगरानी शुरू कर दी.

एनजीओ से कभी सवाल नहीं होते और न ही जवाबदेही होती है. प्रधानमंत्री मोदी और संघ परिवार विदेशी धन से चलने वाले एनजीओ को लेकर हमेशा असहज रहे हैं. वे इसे भारतीय संस्कृति के रूपांतरण, नुकसान और विनाश के संस्थागत कारण के तौर पर देखते हैं. पिछले हफ्ते मोदी ने उनके मुक्त संचालन पर शिकंजा करने का फैसला किया.

सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम को संशोधित किया है. इसमें विदेशी अंशदान के प्रवाह और इस्तेमाल को कम करने, एनजीओ में लोकसेवकों पर रोक और प्रशासनिक खर्च के लिए अनुदान की 20 प्रतिशत की सीमा तय करने का प्रावधान है. मनमोहन सिंह सरकार ने 2010 में मूल एफसीआरए में बदलाव किया था, जिसमें विदेशी धन प्राप्त करने या राष्ट्र हित के खिलाफ किसी गतिविधि पर नियमन के लिए एक उपबंध जोड़ा गया था. नये प्रावधान में राजनीतिक प्रकृति के किसी भी संस्थान को विदेशी धन स्वीकार करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है.

विदेशी धन का इस्तेमाल और घरेलू राजनीति में विदेशी हस्तक्षेप को रोकने के लिए आपातकाल के दौरान 1976 में एफसीआरए की शुरुआत की गयी थी. वर्तमान बहस उन एनजीओ पर है, जो सीएए और एनआरसी के खिलाफ वित्तीय मदद मुहैया करा रही हैं. पूर्व में, एनजीओ का इस्तेमाल धर्म परिवर्तन और धार्मिक प्रचार के लिए होता रहा है. वे आंदोलनकारी राजनीति को बढ़ा रहे हैं.

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, भारत में 32 लाख से अधिक एनजीओ हैं, प्रत्येक 500 लोगों पर एक एनजीओ के साथ यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है. एनजीओ की संख्या देश में स्वास्थ्य केंद्रों से 250 गुना और स्कूलों से दोगुने से अधिक है. साल 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को देश में संचालित एनजीओ की स्थिति पर रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया था. चूंकि, ज्यादातर का प्रबंधन सरकार और राजनीति में प्रभावशाली लोगों द्वारा होता है, वे आवश्यक सूचनाओं और रिपोर्ट को सरकार के पास कभी फाइल नहीं करते. बीते कुछ वर्षों से एनजीओ को वैश्विक विचार मंच के तौर पर प्रचारित किया गया है.

भारतीय खुफिया एजेंसियों के एक अध्ययन में इन स्वघोषित नये बौद्धिक अखाड़े की भूमिका पर सवाल खड़ा किया गया है. रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि ये विचार मंच या तो वरिष्ठ लोक सेवकों और रक्षा अधिकारियों द्वारा या कॉरपोरेट द्वारा संचालित किये जाते हैं. वे घरेलू स्रोतों में मामूली धन एकत्र करते हैं, लेकिन उनकी विदेश यात्रा और स्थानीय कार्यालयों की सुविधाएं विदेशी धन पर निर्भर होती हैं. वे बैठकों, संगोष्ठियों और वार्ताओं का आयोजन करते हैं, जिसमें प्रभावशाली कानूनविद और अधिकारी शामिल होते हैं.

नये कानून के लागू होने के बाद 100 से अधिक सांसद, विधायक, न्यायपालिका और मीडिया से जुड़े लोगों को एफसीआरए के तहत पंजीकृत इन थिंक टैंकों से संबंध तोड़ना होगा. बीते दो दशकों में सभी एनजीओ ने दो लाख करोड़ रुपये से अधिक धन प्राप्त किया- जो कि कई राज्यों के वार्षिक बजट से भी दोगुना है. पारदर्शिता नहीं होने से लाखों-करोड़ों की हेराफेरी की गयी या गुप्त गतिविधियों के लिए खर्च किया गया. एनडीए शासन के एक साल में ही भारतीय एनजीओ ने रिकॉर्ड 18,000 करोड़ रुपये एकत्र किये हैं. मोदी को गैर-औपचारिक क्षेत्र के हानिकारक और आग भड़काने वाले वोल्टेज का एहसास हो चुका है. पहले कार्यकाल के दौरान गृह मंत्रालय ने 20,000 से अधिक एनजीओ का पंजीकरण रद्द किया था. नये कानून के तहत शीघ्र ही कई अन्य एनजीओ की मान्यता जा सकती है.

एनजीओ पर नियंत्रण सरकार के लिए बहुत ही मुश्किल है. व्यावसायिक उदारवादी और नागरिक समाज के उनके सहयोगी सरकार पर असंतोष को दबाने और मानव अधिकारों पर अंकुश लगाने का आरोप लगाकर मुखर हो जाते हैं. वे एनजीओ इंडस्ट्री के विदेशियों से उम्मीद करते हैं कि वे सरकार के खिलाफ वैश्विक मुहिम छेड़ें. फैशनेबल, ग्लैमरस और भारत-विरोधी एनजीओ को ‘विनाशक संस्थागत नेटवर्क’ घोषित करना चाहिए और उसी आधार पर उनसे निपटना चाहिए, अन्यथा इस नेटवर्क की लागत करदाता को वहन करनी होगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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