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सुरक्षा परिषद में तत्काल सुधार आवश्यक

जितने भी विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय समूह हैं, भारत उनका संस्थापक सदस्य है. संयुक्त राष्ट्र की भावना और निर्णयों को भारत ने हमेशा सम्मान की दृष्टि से देखा है तथा वैश्विक संस्थाओं को बेहतर और बहुपक्षीय बनाने में हरसंभव योगदान दिया है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद हो या इस विश्व संस्था के अन्य घटक हों, जैसे विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, यूनेस्को, मानवाधिकार परिषद, यानी वैश्विक शासन और वित्तीय प्रबंधन के जो भी औजार हैं, इनमें बड़े सुधारों की दरकार है. इस आवश्यकता को भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने फिर से रेखांकित किया है. जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि सात-आठ दशक पहले की परिस्थितियां कुछ और थीं. उस दौर की तुलना में आज विश्व व्यवस्था में बहुत बदलाव हो चुका है और वह बदलाव संयुक्त राष्ट्र में परिलक्षित होना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र का गठन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ था. इसका मुख्य उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति एवं स्थायित्व को सुनिश्चित करना था ताकि महायुद्ध जैसी भयावह परिस्थितियां फिर न उत्पन्न हो सकें. उल्लेखनीय है कि पहले विश्व युद्ध के बाद बना राष्ट्र संघ विफल हुआ था. संयुक्त राष्ट्र के गठन के समय पांच देशों, जो द्वितीय महायुद्ध में विजयी हुए थे, ने सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में किसी भी निर्णय के निषेध का विशेषाधिकार हासिल कर लिया. उस समय उन्हें कोई रोक भी नहीं सकता था.

सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र का सबसे प्रमुख मंच है, जिसमें वर्तमान समय में 15 सदस्य होते हैं. इनमें से 10 सदस्य अस्थायी होते हैं, जबकि पांच देशों- अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस- की सदस्यता स्थायी होती है. वीटो अधिकार प्राप्त इन पांच देशों को जब भी लगता है कि कोई प्रस्ताव उनके भू-राजनीतिक हितों के अनुरूप नहीं है, तो वे उसका निषेध कर देते हैं और वह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाता. कई बार इनका रवैया व्यापक वैश्विक हित के विरुद्ध होता है. उदाहरण के लिए, पाकिस्तान द्वारा संरक्षित आतंकियों और आतंकी समूहों पर अंतरराष्ट्रीय पाबंदी के अनेक प्रस्तावों को चीन ने तकनीकी या प्रक्रियागत बहानों से बाधित किया था. मेरी राय है कि वैश्विक शासन में जो सबसे प्रमुख अवरोध है, वह ये पांच देश ही हैं. अभी हम देख रहे हैं कि इस्राइल-हमास संघर्ष से संबंधित प्रस्तावों को अमेरिका लगातार वीटो कर रहा है. इसी प्रकार रूस-यूक्रेन युद्ध से जुड़े प्रस्तावों पर चीन या रूस वीटो कर देते हैं. जिन देशों या क्षेत्रों में इन पांच देशों के भू-राजनीतिक हित हैं, उनके बारे में जब प्रस्ताव आते हैं, तो इन देशों का यही रवैया होता है. विदेश मंत्री जयशंकर ने उचित ही इस समूह को ‘ओल्ड क्लब’ की संज्ञा दी है, जो नये सदस्यों को नहीं आने देना चाहते हैं ताकि उनका वर्चस्व बना रहे. उनके ऐसे पैंतरों का खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ता है.

भारत बहुत पहले से सुरक्षा परिषद और अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं में सुधार की मांग करता आया है. जितने भी विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय समूह हैं, भारत उनका संस्थापक सदस्य है. संयुक्त राष्ट्र की भावना और निर्णयों को भारत ने हमेशा सम्मान की दृष्टि से देखा है तथा वैश्विक संस्थाओं को बेहतर और बहुपक्षीय बनाने में हर संभव योगदान दिया है. फिर भी ‘ओल्ड क्लब’ के पांच स्थायी सदस्य 21वीं सदी के लगभग एक चौथाई हिस्से के बीत जाने के बाद भी अभी 20वीं सदी की मानसिकता से संचालित हो रहे हैं. जनसंख्या की दृष्टि से भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा देश है. उसकी अर्थव्यवस्था शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में है तथा उसकी गिनती सबसे तेजी से बढ़ने वाले देशों में होती है. विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान लगभग 16 प्रतिशत है. संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना में भारत हमेशा से सबसे अधिक योगदान करने वाले देशों में रहा है. स्थायी सदस्यता के उसके दावे के ठोस आधार हैं. यह सदस्यता पहले ही मिल जानी चाहिए थी. अनेक स्थायी सदस्य देश बयान तो देते रहते हैं कि भारत को शामिल किया जाना चाहिए, पर वे सुधार के लिए गंभीर नहीं हैं. उन्हें पता है कि भारत को स्थायी सदस्य बनाने के लिए चीन सहमत नहीं होगा, तो वे बयान देकर निकल जाते हैं.

यदि दुनिया की वर्तमान और भावी समस्याओं का ठोस समाधान निकालना है और युद्धों आदि को रोकना है, तो उभरती हुई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को स्थान देना होगा. साथ ही, महादेशीय प्रतिनिधित्व को भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. उल्लेखनीय है कि लगभग डेढ़ दशक से संयुक्त राष्ट्र में सुधार के लिए प्रयास हो रहे हैं, पर मामला वहीं का वहीं है. इस संबंध में एक समूह का गठन भी हो चुका है. अगले वर्ष संयुक्त राष्ट्र का विशेष सम्मेलन इसी मुद्दे पर आयोजित होने वाला है. लेकिन स्थायी सदस्यों के रवैये को देखते हुए सुधार की बड़ी उम्मीद नहीं दिखती है. भारत के साथ-साथ जापान, ब्राजील और जर्मनी स्थायी सदस्यता के सबसे बड़े दावेदार हैं. जापान एशिया में एक बड़ी आर्थिक शक्ति है. जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इसी तरह ब्राजील लातिनी अमेरिका का सबसे बड़ा देश है. स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने के साथ अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाना भी सुधार का अहम पहलू है. जी-20 में प्रधानमंत्री मोदी के प्रयासों से अफ्रीकी देशों के संगठन अफ्रीकी संघ को सदस्यता मिली है. अफ्रीका सबसे बड़ा महादेश है. उसके समुचित प्रतिनिधित्व के लिए दो सदस्यों को लाने का प्रस्ताव है. ये देश कौन होंगे, यह निर्णय अफ्रीकी देश करेंगे.

यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव बयान देते रहते हैं, अपील करते रहते हैं, पर कोई नहीं सुनता. दुनिया में कई जगहों पर हिंसा और अस्थिरता है, पर यह विश्व संस्था कारगर हस्तक्षेप नहीं कर पा रही है. आप राजनीतिक हल निकालने या शांति स्थापित करने की बात तो छोड़ दें, संयुक्त राष्ट्र की संस्थाएं समुचित रूप से मानवीय मदद और राहत के कार्यों को भी ठीक से नहीं कर पास रही हैं. इसका सबसे प्रमुख कारण है कि पांच स्थायी सदस्यों की प्राथमिकता में संयुक्त राष्ट्र और उसकी भूमिका नहीं, बल्कि उनके अपने हित हैं. ऐसे में इस संस्था के भविष्य के बारे में आशंकाएं पैदा होना स्वाभाविक है. महासभा में 150-170 देशों के समर्थन से कोई प्रस्ताव पारित होता है, पर सुरक्षा परिषद में एक देश उसे निरस्त कर देता है. इस विडंबनापूर्ण स्थिति से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है कि वर्तमान और भविष्य को देखते हुए सुधार प्रक्रिया शुरू हो. यह काम जितना शीघ्र प्रारंभ होगा, उतना ही विश्व के लिए हितकारी होगा. इस दिशा में सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों को अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है, तो दूसरे देश भी संयुक्त राष्ट्र की बात नहीं सुनेंगे और अपनी मनमानी करेंगे. यह विश्व व्यवस्था के लिए बेहद नुकसानदेह होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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