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विपक्षी एकता पर कांग्रेस-आप कलह का साया

कांग्रेस के अलावा विपक्ष में आप ही ऐसा दल है, जिसे राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल है और जिसकी एक से अधिक राज्यों में सरकार है. अभी चार राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, तो दिल्ली और पंजाब में आप की सरकार है.

अगले साल लोकसभा चुनाव में भाजपा को टक्कर देने के लिए विपक्षी एकता की कवायद कांग्रेस और आप की रार में फंसती दिख रही है. दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल अपनी सरकार को अफसरों के तबादले-तैनाती के सुप्रीम कोर्ट से मिले अधिकार को निष्प्रभावी करनेवाले केंद्र सरकार के अध्यादेश को राज्यसभा में रोकने के लिए मुहिम चला रहे हैं. उन्हें नीतीश कुमार, शरद पवार, ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव का समर्थन तो मिल गया है, लेकिन कांग्रेस ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं.

उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी से मुलाकात का समय मांगा है. कांग्रेस ने दिल्ली और पंजाब के अपने नेताओं से चर्चा कर बताने को कहा है. सूत्रों की मानें, तो अंतिम निर्णय आलाकमान पर छोड़ते हुए दिल्ली-पंजाब के कांग्रेस नेताओं ने साफ कर दिया है कि केजरीवाल का साथ देना पार्टी के हित में नहीं होगा. ऐसे में सवाल यह है कि कांग्रेस आलाकमान का अंतिम निर्णय दिल्ली-पंजाब के नेताओं की राय पर आधारित होगा या फिर व्यापक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विपक्षी एकता की जरूरत के मद्देनजर.

कांग्रेस के अलावा विपक्ष में आप ही ऐसा दल है, जिसे राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल है और जिसकी एक से अधिक राज्यों में सरकार है. अभी चार राज्यों- राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक- में कांग्रेस की सरकार है तो दिल्ली और पंजाब में आप की सरकार है. ऐसे में इन दोनों दलों के रिश्ते सुधरे बिना व्यापक विपक्षी एकता का मुद्दा दूर की कौड़ी बना रहेगा. बेशक पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव के साथ भी कांग्रेस के रिश्ते मधुर नहीं हैं, पर उनमें वैसी कटुता नहीं है, जैसी केजरीवाल के साथ है.

यह कटुता पुरानी है, जो समय के साथ बढ़ती गयी है. अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन के समय से ही केजरीवाल के निशाने पर, उस समय केंद्र में यूपीए सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस थी. बाद में जब उन्होंने आम आदमी पार्टी बनाई तो उसने भी सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही पहुंचाया. दिल्ली में शीला दीक्षित के नेतृत्व में लगातार तीन बार से सत्तासीन कांग्रेस सरकार को भाजपा ढंग से चुनौती तक नहीं दे पायी, लेकिन नयी-नवेली आप ने अपने पहले ही चुनाव में उसे सत्ता से बेदखल कर दिया.

दिल्ली में राजनीति के हाशिये पर भाजपा भी खिसक गयी है, लेकिन कांग्रेस के समक्ष तो अस्तित्व का संकट नजर आता है. कांग्रेस पर आप की मार दिल्ली तक ही सीमित नहीं रही. पिछले साल चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल कर आप ने कांग्रेस से पंजाब की सत्ता भी छीन ली. इतना ही नहीं, गोवा और गुजरात विधानसभा चुनावों में भी आप को जो थोड़ी-बहुत सफलता मिली, वह भी कांग्रेस की ही कीमत पर.

इसलिए कांग्रेस में यह धारणा प्रबल होती गयी है कि आप उसे नुकसान पहुंचाते हुए, अप्रत्यक्ष ही सही, भाजपा को लाभ पहुंचा रही है. पिछले दिनों जब केंद्रीय एजेंसियों ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी से पूछताछ की, तब कई गैर भाजपा दलों ने आलोचना की, लेकिन आप की टिप्पणियां उपदेशात्मक ही रहीं. इसलिए आश्चर्य नहीं है कि जब दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की कथित शराब घोटाले में गिरफ्तारी पर अनेक विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, तो कांग्रेस विवादास्पद शराब नीति की गहन जांच की मांग दोहराती रही.

राज्यों के नेताओं के निहित स्वार्थ समझे जा सकते हैं, लेकिन संकट यह है कि कांग्रेस और आप के नेतृत्च के बीच भी कभी वैसा संपर्क-संवाद नहीं रहा, जैसा दो विपक्षी दलों के बीच रहना चाहिए. कमोबेश नापसंदगी की हद तक ऐसी ही संवादहीनता के चंद्रशेखर राव और कांग्रेस के बीच है. परस्पर संबंधों का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हाल ही में कर्नाटक में मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण में कांग्रेस ने केजरीवाल और के चंद्रशेखर राव को नहीं बुलाया.

सोनिया गांधी के साथ ममता बनर्जी की राजनीतिक समझदारी रही है, लेकिन राहुल के साथ संपर्क-संवाद की निरंतरता नहीं रही. उद्धव ठाकरे की बाबत भी ऐसा कहा जा सकता है. यही कारण है कि इन क्षत्रपों से संपर्क-संवाद के लिए कांग्रेस को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को वार्ताकार बनाना पड़ा.

भाजपा के समर्थन से भी कई बार बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके नीतीश मूलत: समाजवादी हैं. गैर भाजपा दलों और नेताओं से भी उनके रिश्ते रहे हैं. वार्ताकार की भूमिका वह अच्छे से निभा भी रहे हैं, पर कांग्रेस और आप की रार में विपक्षी एकता की गाड़ी फंसने की आशंका दिख रही है. बेशक खरगे और राहुल की केजरीवाल से मुलाकात की तारीख अभी तय नहीं है, लेकिन नीतिश को कांग्रेस-आप की कटुता को कम करने की कोशिश उससे पहले ही करनी होगी.

जाहिर है, यह आसान नहीं, क्योंकि अपनी भावी राजनीति-रणनीति की बाबत सबसे पहले कांग्रेस को फैसला लेना होगा. सबसे पुराने राजनीतिक दल और आज भी सबसे बड़े विपक्षी दल के नाते राष्ट्रीय राजनीति में सबसे ऊंचे दांव कांग्रेस के ही लगे हैं. इसलिए कह सकते हैं कि विपक्षी एकता की जरूरत कांग्रेस को सबसे ज्यादा है, पर क्या उसके लिए वह राज्य-दर-राज्य अपने राजनीतिक हित कुर्बान कर देगी – यह बड़ा सवाल है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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