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बिहार में बदलाव और राष्ट्रीय राजनीति

आज की भारतीय राजनीति में विचारधारा की मामूली भूमिका रह गयी है. ऐसी स्थिति में आम मतदाता भ्रम में हैं कि नीतीश कुमार अपनी विचारधारा पर तब सही थे, जब वे भाजपा के साथ थे या फिर अब जब उन्होंने राजद के साथ गठबंधन किया है.

संजय कुमार

बिहार के राजनीति में हुए ताजा बदलाव से दो बातें फिर रेखांकित हुई हैं. पहली बात यह कि राजनीति में कोई चिर मित्र या शत्रु नहीं होता. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में आमने-सामने रहे जद (यू) और राजद अब सत्ता में साझेदार बन गये हैं. इसी तरह 2015 के चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने वाले भाजपा और जद (यू) 2017 में दोस्त बन गये थे. दूसरी बात यह है कि आज की भारतीय राजनीति में विचारधारा की मामूली भूमिका रह गयी है. ऐसी स्थिति में आम मतदाता भ्रम में हैं कि नीतीश कुमार अपनी विचारधारा पर तब सही थे, जब वे भाजपा के साथ थे या फिर अब जब उन्होंने राजद के साथ गठबंधन किया है. बहरहाल, अभी जो सवाल उठ रहे हैं, वे इस प्रकार हैं- क्या नया गठबंधन टिक पायेगा? क्या नीतीश कुमार को इस गठबंधन के नेतृत्व का नैतिक अधिकार है, जबकि उन्हें भाजपा-जद (यू) गठबंधन के लिए जनादेश मिला था? बिहार और देश की राजनीति पर इस बदलाव का क्या असर पड़ेगा?

बिहार के ताजा प्रकरण से निश्चित ही राज्य में सामाजिक और राजनीतिक ताकतों का समीकरण बदलेगा. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और विभिन्न वंचित समूहों को लामबंद करने के जद (यू) और राजद के इरादे से बिहार में मंडल राजनीति 2.0 का माहौल बनने के आसार है, जबकि भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए उच्च जातियों में जनाधार बढ़ाने के साथ दलित और ओबीसी मतदाताओं, विशेषकर निचले तबके, में पहुंच बनाने का प्रयास करेगी. बीते कुछ वर्षों में भाजपा राज्य में नीतीश कुमार और केंद्र में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे ओबीसी के निचले तबके और दलितों में पैठ बनाने में कामयाब रही है, पर अब नये गठबंधन से इस मोर्चे पर उसे चुनौती मिलेगी. हाल में प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिम समुदाय के वंचित समूह, जिन्हें पसमांदा मुस्लिम कहा जाता है, से निवेदन किया था, लेकिन बिहार में इसका कोई असर नहीं होगा. भले ही इस गठबंधन में कांग्रेस कनिष्ठ सहयोगी है, पर सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा होने से पार्टी कार्यकर्ताओं को न केवल बिहार में, बल्कि अन्य राज्यों में भी संजीवनी मिलेगी और उनका उत्साह बढ़ेगा. लोक जनशक्ति पार्टी और अन्य छोटी पार्टियों के पास किसी एक गठबंधन के साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. कम-से-कम 2024 तक राज्य की राजनीति पूरी तरह दो ध्रुवीय प्रतियोगिता- भाजपा के पक्ष और विपक्ष में- बनी रहेगी.

भाजपा को भले ही सीटों का नुकसान हो जाए, पर लंबी अवधि में जनाधार बढ़ने के रूप में उसे लाभ होगा. भाजपा अब नया नेतृत्व भी विकसित कर सकती है, जो अब तक नीतीश कुमार की लोकप्रियता के साये में रही है, जो एक बाधा रही है. सरकार बदलने से जद (यू) को भी नया जीवन मिलेगा, जो स्पष्ट रूप से कुछ वर्षों से ढलान पर दिख रही थी और उसके वोट घट रहे थे. हालांकि पहले भी पार्टी का कोई बहुत मजबूत जनाधार नहीं था, पर हाल के वर्षों में उसमें कमी आयी है. नीतीश कुमार बिहार के बहुत लोकप्रिय नेता रहे हैं, पर उसमें भी कमी आ रही है. सहयोगी बदलने से भी उनकी छवि में सेंध लग सकती है. बिहार में राजनीतिक शक्तियों के नये समीकरण से लोकसभा चुनाव से पहले की राष्ट्रीय राजनीति पर असर पड़ने की संभावना है. जद (यू), राजद और कांग्रेस का साथ आना दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दलों के लिए एक संकेत है कि अगर वे मोदी-शाह जोड़ी के विजय रथ को सचमुच रोकना चाहते हैं, तो उन्हें एकजुट होना होगा. हाल में महाराष्ट्र में सरकार बदलने और क्षेत्रीय पार्टियों के खत्म होते जाने एवं भारतीय राजनीति में केवल भाजपा के बचे रहने के भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के बयान ने क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं को चौकन्ना कर दिया है. विपक्षी नेताओं के विरुद्ध केंद्रीय एजेंसियों के इस्तेमाल ने भी उन्हें आगाह कर दिया है. इसका मतलब यह है कि बिहार का प्रयोग क्षेत्रीय दलों को फिर एक साथ आने के लिए प्रेरित कर सकता है, पर बड़ा सवाल यह है कि यह सब केवल कागज पर ही संभव दिखता है. क्या विपक्षी पार्टियां अपने मतभेदों को भुलाकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ाई में एकजुट होंगी?

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बिहार में बदलाव के साथ नीतीश कुमार के पाला बदलने के बाद उन्हें 2024 में नरेंद्र मोदी के बरक्स विपक्ष के साझा चेहरे के रूप में भी देखा जा रहा है. कुछ राजनीतिक पैंतरे और घटती विश्वसनीयता के बावजूद वे कई क्षेत्रीय दलों को स्वीकार्य हो सकते हैं, लेकिन साझा चेहरा होना नीतीश कुमार के लिए आसान नहीं होगा. यह मानना मुश्किल है कि अगर विपक्ष एक साथ आता है, तो ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल और कुछ अन्य नेता उन्हें एकीकृत विपक्ष के नेता के रूप में आसानी से मंजूर कर लेंगे. वर्ष 2014 में ऐसा संभव हो सकता था, जब उनकी छवि आज से कहीं अधिक बड़ी थी. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ उनकी लड़ाई में विपक्षी पार्टियों के साथ आने की संभावना पर ही बड़ा प्रश्नचिह्न है. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने एक साथ आकर कई बार तस्वीरें खिंचवायीं, लेकिन चुनाव आया, तो वह एकता कहीं भी नहीं दिखी.

लेकिन, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि बिहार में राजनीतिक समीकरण बदलने से भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति पर कोई असर नहीं होगा. जद (यू) और राजद के साथ आने से निश्चित ही विपक्ष अधिक मुखर होगा तथा केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना धारदार होगी. विपक्ष अब कहीं अधिक प्रभाव से बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी को लेकर भाजपा पर हमलावर हो सकेगा. नीतीश कुमार के एनडीए के साथ होने के दौर की तुलना में केंद्र सरकार की आलोचक आवाजों की त्वरा अब अधिक होगी. इन सबके बावजूद अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि आलोचना में उठतीं ये आवाजें विपक्षी दलों को बेहतर चुनावी फायदा दिलवा पायेंगी या नहीं. महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर उठनेवाली विरोधी आवाजों पर अतिउत्साही राष्ट्रवाद भारी पड़ सकता है, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होगा, क्योंकि 2024 से पहले राम मंदिर बनाने का काम पूरा होने की उम्मीद है. बीते कुछ समय से विपक्षी दल जोर-शोर से महंगाई और बेरोजगारी जैसे असली मसलों को उठाते रहे हैं, लेकिन इससे वे आम मतदाता को प्रभावित नहीं कर सके हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar Digital Desk
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