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नवतुरिया पाठक कहां है?

प्रभात रंजन कथाकार सीतामढ़ी के मास्साब शास्त्रीजी ने न जाने कहां से मेरा नंबर लेकर मुझे फोन किया. बोले, ‘खूब आशीर्वाद, सुना है लेखक बन गये हो. अब कुछ ऐसा भी लिखो कि नवतुरिया लोग भी पढ़ें. आजकल नवतुरिया लोग या तो काॅम्पिटिशन का किताब पढ़ता है या अंगरेजी में लफाशूटिंग वाला उपन्यास. अब तो […]

प्रभात रंजन

कथाकार

सीतामढ़ी के मास्साब शास्त्रीजी ने न जाने कहां से मेरा नंबर लेकर मुझे फोन किया. बोले, ‘खूब आशीर्वाद, सुना है लेखक बन गये हो. अब कुछ ऐसा भी लिखो कि नवतुरिया लोग भी पढ़ें. आजकल नवतुरिया लोग या तो काॅम्पिटिशन का किताब पढ़ता है या अंगरेजी में लफाशूटिंग वाला उपन्यास. अब तो हिंदी में बच्चा सब जासूसी उपन्यास भी नहीं पढ़ता है…’

सोचता रहा कि क्या सच में हिंदी में नवतुरिया यानी नयी उम्र के लड़के-लड़कियां, स्कूलों और कॉलेज में पढ़नेवाले क्या हिंदी में किसी तरह का साहित्य नहीं पढ़ते हैं? यह सवाल इसलिए गंभीर बन जाता है, क्योंकि इस समय हिंदी में युवा लेखन का जोर है. नयी उम्र के अनेक लेखक नयी-नयी विधाओं में लिख रहे हैं.

लेकिन किसके लिए लिख रहे हैं?

पिछले दिनों एक हिंदी वेबसाइट के संपादक ने भी यही रोना रोया कि मार्केटिंग वाले अंगरेजी की तर्ज पर हम हिंदी वालों से भी कहते हैं कि 18-24 साल के युवाओं की भाषा में, उनके सोच को ध्यान में रखते हुए सामग्री का प्रकाशन कीजिये. जबकि यह समझना आज भी टेढ़ी खीर है कि क्या 18-24 साल की उम्र की पीढ़ी हिंदी में सोचती भी है, पढ़ती भी है?

पहले मैंने सोचा था कि शास्त्रीजी की बातों को बुढ़भस समझ कर जाने दूं. लेकिन, उन्होंने जैसे मेरे लिए सोच की एक नई खिड़की ही खोल दी. एक अध्यापक, एक लेखक, एक वेबसाइट के संपादक के रूप में अपने अनुभवों के आधार पर मैं भी यही समझने लगा हूं कि हिंदी में साहित्य लिखने-पढ़ने की तरह हमारा रुझान परिपक्व होने के बाद ही होता है.

हालांकि, 80 के दशक या 90 के दशक के मध्य तक भी स्कूल-कॉलेज में पढ़नेवाले युवा हिंदी से जुड़ते थे. उसका कारण यह था कि मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे तब अधिकतर सरकारी स्कूलों से पढ़ते थे. इसीलिए 90 के दशक में ‘वर्दी वाला गुंडा’ जैसी किताब करोड़ों में बिक जाया करती थी. उसके बाद बस एक ही किताब की बिक्री ने चौंकाया था, वह थी शिव खेड़ा की ‘जीत आपकी’. वह लाखों में बिकी. उसके बाद और कोई ऐसा उदाहरण हिंदी में मुझे अभी तक दिखायी नहीं देता है.

यह अच्छी बात है कि हिंदी में युवाओं को ध्यान में लेकर न केवल किताबें लिखी जा रही हैं, बल्कि हिंदी में बड़े-बड़े प्रकाशक उनको छाप भी रहे हैं. लेकिन उनका हश्र क्या हो रहा है, इस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. मसला सिर्फ नये लेखक तैयार करने का ही नहीं है, बल्कि उससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि नये पाठक किस तरह से तैयार किये जायें? शास्त्रीजी की भाषा में कहें तो नवतुरिया लेखक से ज्यादा जरूरी है नवतुरिया पाठक तैयार करना.

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