बिहार-झारखंड में चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक आस्थाएं बदलने का दौर चल रहा है. यह खेल पहले भी होता रहा है, लेकिन इस बार बात कुछ अलग है. एक मुहावरा है, देख कर मक्खी निगलना. इसे चरितार्थ करते हुए राजनीतिक दल, दलबदलुओं के बारे में पूरी जानकारी होने के बावजूद उन्हें अपने यहां ला रहे हैं, ताकि कुछेक सीटें बढ़ जायें. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या दलबदलुओं की राजनीतिक आस्था की तरह लोगों की भी आस्था तेजी से बदलती है.
क्या राजनीतिक दल यह नहीं जानते हैं कि रातोंरात आस्था, आदर्श और सिद्धांत बदल लेनेवालों के साथ जनता कैसा सुलूक करती है? इस कारण अब चुनावों में इस तरह के दलबदलुओं को लेकर लोगों में उदासीनता का भाव रहता है. बिहार व झारखंड में लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद एक दर्जन से भी अधिक ऐसे तथाकथित नाम हैं, जिन्होंने रातोंरात अपनी राजनीतिक आस्था बदल ली है.
इन नामों में से अधिकतर को राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दल का टिकट मिलना भी तय है. टिकट मिलने की गारंटी के कारण ही इन महानुभावों ने नीति, नीयत व सिद्धांत से समझौता किया है. टिकट मिलने के बाद ये वोट मांगने अपने-अपने क्षेत्र में भी जायेंगे. दल- बदल को लेकर कोई नयी कहानी या किस्सा सुनायेंगे. शिगूफा छोड़ेंगे. ऐसे नेताओं से वोटरों को सीधे सवाल करना चाहिए. उनकी कहानियों पर एतबार के बदले एतराज जताना चाहिए. यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर क्या बात हुई कि मात्र टिकट के लिए उन्होंने अपनी आस्था बदल ली है. अगर लोकसभा क्षेत्र में ऐसे ही उम्मीदवारों की भरमार है, तो अब ‘इनमें से कोई नहीं’ का बटन भी मौजूद है. पहले यह मजबूरी होती थी कि नागनाथ या सांपनाथ में किसे चुनें. अब यह मजबूरी नहीं रही.
अगर चुनाव में जाति के आधार पर, धर्म के आधार पर या किसी भावनात्मक कारण से आस्था बदलनेवाले नेताओं का हम समर्थन करते हैं, तो इसमें पूरा दोष वोटरों का है. दल-बदल करनेवाले नेताओं या उनके समर्थकों को यह तर्क हो सकता है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है. लेकिन यह तर्क, नहीं कुतर्क है. स्वस्थ लोकतंत्र के लिए टिकट या व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण नीति, नीयत व सिद्धांत है. इसके लिए केवल राजनीतिक दल व राजनेता नहीं, वोटर भी उतना ही जिम्मेवार है.